*आदिकाल के मनुष्यों ने अपने
ज्ञान , वीरता एवं साहस से अनेकों ऐसे कार्य किए हैं जिनका लाभ आज तक मानव समाज ले रहा है | पूर्वकाल के मनुष्यों ने आध्यात्मिक , वैज्ञानिक , भौतिक एवं पारलौकिक ऐसे - ऐसे दिव्य कृत्य किए हैं जिनको आज पढ़ कर या सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है परंतु कभी मनुष्य इस पर विचार नहीं करता है कि यदि उन लोगों ने ऐसे कार्यों को संपन्न किये तो उसके पीछे कारण क्या रहा होगा ?? पूर्व काल के मनुष्य वाह्य संपन्नता की अपेक्षा आंतरिक संपन्नता से संपन्न होते थे | धन हो ना हो परंतु मनुष्य निर्धन होते हुए भी अंदर से मजबूत होते थे और उनकी यही मजबूती , उनकी यही संपन्नता उनसे ऐसे ऐसे कार्य करवाती थी जो कि एक उदाहरण बन जाते थे | पूर्वकाल के अनेकों ऐसे चरित्र हमें पढ़ने को मिल जाते हैं जिनके पास कुछ ना होते हुए भी वह समाज में सिर्फ अपनी आंतरिक संपन्नता के बलबूते पर स्थापित हुए , एवं उनके कार्यो ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है | पहले के मनुष्य भोग के साथ योग के महत्त्व को भी जानते थे | ईशावास्य उपनिषद में एक सूत्र है - "तेन त्यक्तेन भुंजीथा:" अर्थात :- जो त्याग करते हैं वे ही भोग पाते हैं | पूर्वकाल के मनुष्य बाहरी धन , पद , प्रतिष्ठा की अपेक्षा आन्तरिक सम्पन्नता पाने के लिए प्रयास करते रहते थे क्योंकि जब मनुष्य आन्तरिक रूप से सम्पन्न होता था तो सामाजिक , आध्यात्मिक , भौतिक एवं राजनीतिक आदि सम्पन्नता उनकी दासी बनी रहती थी | आचार्य चाणक्य एवं स्वामी विवेकानन्द जी आन्तरिक सम्पन्नता से सम्मपन्न होने के बाद ही इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी याद किये जाते हैं |* *आज मनुष्य ने बहुत विकास कर लिये हैं सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मनुष्य व्यर्थ का जीवन व्यतीत कर रहा है | आज मनुष्य तरह - तरह के हथियार लेकर चलता तो है परंतु वह भीतर से उतना ही डरपोक है जितना वह स्वयं को साहसी दर्शाना चाहता है | आज बड़े - बड़े धर्मात्मा एवं मठाधीश तथा राजनीतिक हस्तियाों की बातें यदि लोग नहीं सुन रहे हैं तो उसका एक ही कारण है कि ये सभी आन्तरिक रूप से दरिद्र हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि एक विशाल गेंद को कई खिलाड़ी मिलकर अपने पैरों से इधर से उधर ठोकर मारकर फुटबाल खेलते हैं | विचारणी़य यह है कि गेंद का अस्तित्व तो बड़ा होता है परन्तु वह अन्दर से खोखली होती है , यही आन्तरिक रिक्तता उसकी उपेक्षा का कारण बनती है | उसी प्रकार आज हमारी दशा है कि हमारी जुबान पर तो
धर्म -
अध्यात्म सदैव रहता परन्तु अन्दर से पूरी तरह खाली हैं | हमारे अन्दर न तो आध्यात्मिकता बच रही है और न ही धर्म | इसी आन्तरिक रिक्तता के कारण मनुष्य सब कुछ होते हुए भी खोखला है | यदि हमारे अन्दर यही धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता रूपी आंतरिक रिक्तता न होती तो कोई न तो हमारे ऊपर उंगली उठा सकता था और न ही हमारे तीर्थों व देवी - देवताओं पर | आज मनुष्य चाँद पर तो पहुँच गया , समुद्र की गहराई तो नाप ली परंतु अपने हृदय की गहराई को नहीं नाप पाया |* *वाह्य आडम्बर हो या न हो परन्तु मनुष्य को आन्तरिक स्तर पर मजबूत होना चाहिए | क्योंकि आंतरिक रिक्तता मनुष्य को कुछ भी नहीं करने देती |*