*मानव जीवन में इन तीन बातों का होना अनिवार्य हैः-- सत्संग, भगवद् भजन और परोपकार | इन तीनों में भी सत्संग की बड़ी भारी महिमा है | सत्संग का अर्थ है, सत् वस्तु का
ज्ञान | परमात्मा की प्राप्ति और प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करने तथा बढ़ाने के लिए सत्पुरूषों को श्रद्धा एवं प्रेम से सुनना एवं बीच - बीच में कुछ पूंछना– यही सत्संग है | श्रीमद्भागवत में वेदव्यास जी ने बताया है कि सतसंग से तीन प्रकार के लोगों का कल्याण होता है :- "श्रोतारं , वक्तारं एवं पृच्छकम्" अर्थात श्रोता , वक्ता एवं पूंछने वाला अर्थात जिज्ञासु | जीव की उन्नति सत्संग से ही होती है | सत्संग से उसका स्वभाव परिवर्तित हो जाता है | सत्संग उसे नया जन्म देता है | जैसे, कचरे में चल रही चींटी यदि गुलाब के फूल तक पहुँच जाय तो वह देवताओं के मुकुट तक भी पहुँच जाती है | ऐसे ही महापुरूषों के संग से नीच व्यक्ति भी उत्तम गति को पा लेता है | तुलसीदास जी ने कहा हैः-- "जाहि बड़ाई चाहिए, तजे न उत्तम साथ ! ज्यों पलास संग पान के, पहुँचे राजा हाथ !!" अर्थात :- जैसे, पलाश के फूल में सुगंध नहीं होने से उसे कोई पूछता नही है, परंतु वह भी जब पान का संग करता है तो राजा के हाथ तक भी पहुँच जाता है | इसी प्रकार जो उन्नति करना चाहता हो उसे महापुरूषों का संग करना चाहिए | परमात्मा की प्राप्ति और प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करने एवं बढ़ाने के लिए साधु पुरूष का संग करना और उनके उपदेशों को श्रद्धा व प्रेम से सुनकर तदनुसार आचरण करना, यह सत्संग है | जैसा संग, वैसा रंग | संग से ही मनुष्य की पहचान की जाती है | अतः अपनी उन्नति एवं वास्तविक सुख की प्राप्ति के लिए सदैव सत्संग करना चाहिए | शास्त्र कहते हैं कि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है | मन शुद्ध कैसे होता है ? मन शुद्ध होता है विवेक से और मिलता है विवेक से | सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और भगवान की कृपा के बिना सच्चे संत नहीं मिलते | तोते की तरह रट-रटकर बोलने वाले तो बहुत मिलते हैं, परंतु उस 'सत्' तत्त्व का अनुभव करने वाले महापुरूष विरले ही मिलते हैं | आत्मज्ञान को पाने के लिए रामकृपा, सत्संग और सदगुरू की कृपा आवश्यक है | ये तीनों मिल जायें तो हो गया बेड़ा पार |* *आज के युग में लोग बढ़-चढ़कर सत्संग में नाम गिनाने के लिए हिस्सा तो लेते हैं | लेकिन यह भी सत्स है कि कुछ लोगों को छोड़कर शेष लोग या तो सत्संग करने का दिखावा करते हैं या फिर मात्र अपना नाम गिनाने के लिए सत्संग सभाओं में सम्मिलित होते हैं | भगवत्प्राप्ति तो हर व्यक्ति करना चाहता है परंतु उसके आचरण इस कार्य के बिल्कुल विपरीत होते हैं | जब बिना भगवान की कृपा से संत पुरुष नहीं मिल सकते हैं बिना उसकी कृपा के भगवान की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? भगवत्प्राप्ति करने का सबसे सरल साधन सत्संग कहा गया है | नौ प्रकार की भक्ति जो हमारे पुराणों में बताई गई उसमें सर्वप्रथम सत्संग का ही वर्णन किया गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के समाज को देख कर यह कह सकता हूं कि आज स्वयं को विद्वान कहने वाले मात्र अपना वक्तव्य देना जानते हैं सत्संग सभाओं में मुझे कोई रुचि नहीं रह गयी है | आज यदि लोग विद्वान हैं तो उसका कारण भी यही सत्संग है परंतु लोग इतने विद्वान हो गए हैं कि अब उनके पास सत्संग में जाने का न तो समय और न ही उनकी इच्छा होती है | मनुष्य को किसी भी मकान की छत पर चढ़ने के लिए सीढ़ी के पहले डंडे पर चढ़ना ही होता है , उसी प्रकार भगवत्प्राप्ति का प्रथम सोपान सत्संग है | अत: प्रत्येक व्यक्ति को सत्संग करते रहना चाहिये |* *मनुष्य शरीर का पोषण करने समय - समय पर भोजन तो कर रहा है परंतु आत्मा को परिस्कृत करने के माध्यम सतसंग से दूर हो रहा है ! यह दुर्भाग्यपूर्ण है |*