इस सवाल का पूछा जाना था कि नवाब साहब के उद्गारों के बाँध का टूट पड़ना था। बड़े करुण स्वर में बोले - "क्या बतलाऊँ हुजूर, अपनी क्या हालत है, कह नहीं सकता! खुदा जो कुछ दिखलाएगा, देखूँगा! एक दिन थे जब हम लोगों के बुजुर्ग हुकूमत करते थे। ऐशोआराम की जिंदगी बसर करते थे; लेकिन आज हमें - उन्हीं की औलाद को - भूखों मरने की नौबत आ गई। और हुजूर, अब पेशे में कुछ रह नहीं गया। पहले तो ताँगे चले, जी को समझाया-बुझाया, म्याँ, अपनी-अपनी किस्मत! मैं भी ताँगा ले लूँगा, यह तो वक्त की बात है, मुझे भी फायदा होगा; लेकिन क्या बतलाऊँ हुजूर, हालत दिनोंदिन बिगड़ती ही गई। अब देखिए, मोटरों-पर-मोटरें चल रही हैं। भला बतलाइए हुजूर, जो सुख इक्के की सवारी में है, वह भला ताँगे या मोटर में मिलने का? ताँगे में पालथी मार कर आराम से बैठ नहीं सकते। जाते उत्तर की तरफ हैं, मुँह दक्खिन की तरफ रहता है। अजी साहब, हिंदुओं में मुरदा उलटे सिर ले जाया जाता है, लेकिन ताँगे में लोग जिंदा ही उलटे सिर चलते हैं और जरा गौर फरमाइए! ये मोटरें शैतान की तरह चलती हैं, वह बला की धूल उड़ाती हैं कि इंसान अंधा हो जाए। मैं तो कहता हूँ कि बिना जानवर के आप चलनेवाली सवारी से दूर ही रहना चाहिए, उसमें शैतान का फेर है।"
इक्केवाले नवाब और न जाने क्या-क्या कहते, अगर वे 'या अली!' के नारे से चौंक न उठते।
सामने क्या देखते हैं कि एक आलम उमड़ रहा है। इक्का रकाबगंज के पुल के पास पहुँचकर रुक गया।
एक अजीब समाँ था। रकाबगंज के पुल के दोनों तरफ करीब पंद्रह हजार की भीड़ थी; लेकिन पुल पर एक आदमी नहीं। पुल के एक किनारे करीब पचीस शोहदे लाठी लिए हुए खड़े थे, और दूसरे किनारे भी उतने ही। एक खास बात और थी कि पुल के एक सिरे पर सड़क के बीचोंबीच एक चारपाई रक्खी थी, और दूसरे सिरे पर भी सड़क के बीचोंबीच दूसरी। बीच-बीच में रुक-रुककर दोनों ओर से 'या अली!' के नारे लगते थे।
मैंने इक्केवाले से पूछा - "क्यों म्याँ, क्या मामला है?"
म्याँ इक्केवाले ने एक तमाशाई से पूछकर बतलाया - "हुजूर, आज दो बाँकों में लड़ाई होनेवाली है, उसी लड़ाई को देखने के लिए यह भीड़ इकट्ठी है।"
मैंने फिर पूछा - "यह क्यों?"
म्याँ इक्केवाले ने जवाब दिया - "हुजूर, पुल के इस पार के शोहदों का सरगना एक बाँका है और उस पार के शोहदों का सरगना दूसरा बाँका। कल इस पार के एक शोहदे से पुल के उस पार के दूसरे शोहदे का कुछ झगड़ा हो गया और उस झगड़े में कुछ मार-पीट हो गई। इस फिसाद पर दोनों बाँकों में कुछ कहा-सुनी हुई और उस कहा-सुनी में ही मैदान बद दिया गया।"
"अरे हुजूर! इन बाँकों की लड़ाई कोई ऐसी-वैसी थोड़ी ही होगी; इसमें खून बहेगा और लड़ाई तब तक खत्म न होगी, जब तक एक बाँका खत्म न हो जाए। आज तो एक-आध लाश गिरेगी। ये चारपाइयाँ उन बाँकों की लाश उठाने आई हैं। दोनों बाँके अपने बीवी-बच्चों से रुखसत लेकर और कर्बला के लिए तैयार होकर आवेंगे।"
इसी समय दोनों ओर से 'या अली!' की एक बहुत बुलंद आवाज उठी। मैंने देखा कि पुल के दोनों तरफ हाथ में लाठी लिए हुए दोनों बाँके आ गए। तमाशाइयों में एक सकता सा छा गया; सब लोग चुप हो गए।
पुल के इस पारवाले बाँके ने कड़ककर दूसरे पारवाले बाँके से कहा - "उस्ताद !" और दूसरे पारवाले बाँके ने कड़ककर उत्तर दिया - "उस्ताद!"
पुल के इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, आज खून हो जाएगा, खून!"
पुल के उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, आज लाशें गिर जाएँगी, लाशें!
पुल के इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, आज कहर हो जाएगा, कहर!"
पुल के उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, आज कयामत बरपा हो जाएगी, कयामत!"
चारों ओर एक गहरा सन्नाटा फैला था। लोगों के दिल धड़क रहे थे, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी।
पुल के इस पारवाले बाँके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ते हुए कहा - "तो फिर उस्ताद होशियार!"
पुल के इस पारवाले बाँके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया - "या अली!"
पुल के उस पारवाले बाँके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ाते हुए कहा, "तो फिर उस्ताद सँभलना!"
पुल के उस पारवाले बाँके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया - "या अली!"
दोनों तरफ के दोनों बाँके, कदम-ब-कदम लाठी के हाथ दिखलाते हुए तथा एक-दूसरे को ललकारते आगे बढ़ रहे थे, दोनों तरफ के बाँकों के शागिर्द हर कदम पर 'या अली!' के नारे लगा रहे थे, और दोनों तरफ के तमाशाइयों के हृदय उत्सुकता, कौतूहल तथा इन बाँकों की वीरता के प्रदर्शन के कारण धड़क रहे थे।