छबीलदास ने टाई गले से उतारकर वर्मा को दे दी और मिस्टर वर्मा सज-धजकर तैयार हो गए। अपने ट्रंक से उन्होंने स्टेट एक्सप्रेस का एक टिन निकाला और दस सिगरेटें जो वास्तव में स्टेट एक्सप्रेस की थीं, उन्होंने एक ओर हटाकर बाकी नंबर टेन सिगरेटों में से एक-एक उन्होंने कमरे में सब लोगों को दीं। इसके बाद वे अपने कारोबार के लिए रवाना हो गए।
छबीलदास टाई के हाथ से निकल जाने पर उदास हो गए थे। उस दिन उनका भाग्य खुलनेवाला था। बात यह थी कि पिछले दिन उन्हें सुशीला का पत्र मिला था और सुशीला ने उन्हें दूसरे दिन सुबह के समय अपने यहाँ मिलने के लिए बुलाया था। सुशीला छबीलदास के नगर बनारस की वेश्या की पुत्री थी। छबीलदास अचानक एक दिन उसके प्रेम में पड़ गए। उन दिनों छबीलदास हिंदू विश्वविद्यालय में एम.ए. में पढ़ते थे। उत्साही नवयुवक थे, राजनीतिक अभिरुचि के थे। काँग्रेस के पक्के कार्यकर्ता थे। विश्वविद्यालय में उनके व्याख्यानों की, उनके चरित्र-बल की, उनके व्यक्तित्व की धाक थी।
सुशीला की माता ने सुशीला को उच्च शिक्षा दिलाई। मैट्रिकुलेशन पास करके वह भी विश्वविद्यालय में भरती हुई थी। लेकिन सुशीला की माँ की संगिन-साथियों ने, उनके मेली-मुलाकातियों ने उसे समझाना शुरू किया कि वेश्या की लड़की को समाज में कोई स्थान नहीं मिलेगा। ऐसी हालत में उसे उच्च शिक्षा देना उसकी जिंदगी बरबाद कर देना था, और धीरे-धीरे सुशीला की माता को यह विश्वास होने लगा था कि सुशीला को कालेज से हटाकर उसे पेशे में लगा देने में ही सुशीला का कल्याण है। सुशीला को इन बातों की भनक पड़ गई थी, और लगातार कई दिनों तक इस नई समस्या पर सोच-विचार के बाद सुशीला इस निर्णय पर पहुँची कि उसी दिन शाम को उसे किसी योग्य, समझदार और नेक आदमी की सलाह लेनी चाहिए। उस दिन छबीलदास का एक महत्वपूर्ण व्याख्यान राजनीति और समाज पर हुआ था और उस व्याख्यान से सुशीला प्रभावित हुई थी।
हिम्मत करके सुशीला ने छबीलदास को अपनी दास्तान सुनाई और उसकी सलाह माँगी। सत्याग्रही किस्म के युवक छबीलदास ने सुशीला को दृढ़ता, चरित्र और सत्य पर कुर्बान हो जाने का संदेश दिया; सुशीला को ऐसा लगा मानो उसे एक पथ-प्रदर्शक, एक देवता, एक आराध्य मिल गया।
सुशीला और छबीलदास की दोस्ती बढ़ी, और यह दोस्ती लोगों की नजर में खटकी। इस दोस्ती की चर्चा छबीलदास के चचा लाला मलकूदास के कानों तक पहुँची। लाला मलकूदास की चौक में परचून की एक बहुत बड़ी दुकान थी और उनकी गणना नाकवालों में होती थी। उन्होंने इस विषय पर छबीलदास से जिरह-बहस की और जिरह-बहस के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर जल्दी ही रोक-थाम नहीं की जाती तो लड़का वेश्या की लड़की से शादी करके सारे घर की नाक कटवा देगा। उन्होंने बलिया जाकर जहाँ उनके बड़े भाई, छबीलदास के पिता साह बुलाकीदास रहते थे, उस मामले में बातचीत की। साह बुलाकीदास बलिया जिले के महाजन, जमींदार और न जाने क्या-क्या थे। उन्होंने बीमारी का तार देकर छबीलदास को घर बुलाया और उनके हाथ-पैर बाँधकर जबर्दस्ती छबीलदास की शादी पास के एक जमींदार की लड़की से करा दी। दहेज में रुपए-पैसे, चीज वस्तु के साथ छबीलदास के ससूर ने, जिनके डाकू होने का लोगों को शक था, छबीलदास को एक धमकी भी दी कि अगर भविष्य में छबीलदास और सुशीला के संबंध में कोई शिकायत सुनी गई तो बनारस के बीच चौक में छबीलदास की जूतों से मरम्मत की जाएगी।
छबीलदास के चचा को शायद इस बात का पता नहीं था कि काँग्रेस का सत्याग्रही कार्यकर्ता बला का जिद्दी होता है। एक तो छबीलदास इस जबर्दस्तीवाली शादी से ही नाराज था, उस पर श्वसुर के इस नए किस्म के दहेज ने आग में घी का काम किया।
बनारस लौटकर छबीलदास को सुशीला ने बतलाया कि अब उसकी माँ बिना उससे पेशा कराए न मानेगी। छबीलदास ने सुशीला को अपनी कहानी सुनाई। दोनों में तय हुआ कि बंबई चला जाए। मोरारजी देसाई, कन्हैयालाल मुंशी आदि बड़े बड़े नेता वहाँ पर हैं ही, उन नेताओं के आश्रय में रहकर दोनों देश का काम करेंगे। उसी रात दोनों बंबई के लिए रवाना हो गए।
बंबई जाने पर सुशीला और छबीलदास दोनों को यह पता चला कि वास्तविकता कल्पना से कहीं अधिक कुरूप होती है। बड़े-बड़े नेताओं के पास इतना समय नहीं था कि इन लोगों से मिलें, छोटे नेताओं ने दरपरदा छबीलदास को ठुकराकर सुशीला को हथियाने की कोशिश की। और एक दिन छबीलदास को पता चला कि सुशीला एक करोड़पति सेठ के यहाँ, जो काँग्रेस का एक छोटा - मोटा कार्यकर्ता था, बैठ गई।
और जिस दिन सुशीला उसके यहाँ चली गई उस दिन छबीलदास को पता चला कि वह सुशीला से बहुत अधिक प्रेम करने लगा था। सुशीला को इस प्रकार करोड़पति के रुपयों के लोभ में पड़कर उसके प्रेम को ठुकरा देने से छबीलदास के हृदय को एक गहरी ठेस लगी। उसने चार-छह बार सुशीला से मिलने की कोशिश की, लेकिन सुशीला ने कोई-न-कोई बहाना बनाकर मिलने से इनकार कर दिया। उसने सुशीला को कई पत्र लिखे लेकिन उसे किसी भी पत्र का उत्तर न मिला। उसे काँग्रेस से और काँग्रेसी नेताओं से घृणा हो गई। एक बार सुशीला से मिलकर वह बतला देना चाहता था कि किस प्रकार उसने उसकी जिंदगी को बरबाद कर दिया। घर जाने की हिम्मत न होती थी क्योंकि डाकू ससुर की खौफनाक मूर्ति उसकी आँखों के आगे नाच उठती थी। पागल-सा वह बंबई की सड़कों की धूल छानता फिरता था।
एक दिन सिंह उसी पार्क में सोया था जिसमें छबीलदास सो रहा था। माली ने जब रात के समय दोनों को पार्क से निकाला तब इन दोनों का परिचय हुआ। सिंह ने पांडे के यहाँ जगह पाकर छबीलदास को भी अपने साथ बुला लिया। इसके बाद छबीलदास ने एक दफ्तर में क्लर्की कर ली।