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वसीयत भाग 1

10 अगस्त 2022

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जिस समय मैंने कमरे में प्रवेश किया, आचार्य चूड़ामणि मिश्र आंखें बंद किए हुए लेटे थे और उनके मुख पर एक तरह की ऐंठन थी, जो मेरे लिए नितांत परिचित-सी थी, क्‍योंकि क्रोध और पीड़ा के मिश्रण से वैसी ऐंठन उनके मुख पर अक्‍सर आ जाया करती थी। वह कमरा ऊपरी मंजिल पर था और वह अपने कमरे में अकेले थे। उनका नौकर बुधई मुझे उस कमरे में छोड़कर बाहर चला गया।

आचार्य चूड़ामणि की गणना जीवन में सफल, सपन्‍न और सुखी व्‍यक्तियों में की जानी चाहिए, ऐसी मेरी धारणा थी। दो पुत्र, लालमणि और नीलमणि। लालमणि देवरिया के स्‍टेट बैंक की शाखा का मैनेजर था और नीलमणि लखनऊ के सचिवालय में डिप्‍टी सेक्रेटरी था। तीन लड़कियां थीं, सरस्‍वती, सावित्री और सौदामिनी। सरस्‍वती के पति श्री ज्ञानेन्‍द्रनाथ पाठक इलाहाबाद में पी.डब्‍ल्‍यू.डी. के सुपरिटेंडिंग इंजीनियर थे, सावित्री के पति श्री जयनारायण तिवारी की सुल्‍तानपुर में आटे की और तेल की मिलें थीं तथा सौदामिनी के पति संजीवन पांडे सेना में कर्नल थे और मेरठ छावनी में नियुक्‍त थे।

आचार्य चूड़ामणि का और मेरा साथ करीब चालीस वर्ष पुराना था। एक ही दिन हम दोनों की हिंदू विश्‍वविद्यालय के दर्शन-विभाग में नियुक्ति हुई थी। आचार्य चूड़ामणि रीडर बने थे और मैं लेक्‍चरर बना था।

उनके अथक परिश्रम, अटूट निष्‍ठा तथा अडिग संयम का ही परिणाम था कि वे विश्‍व में भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ माने जाते थे। प्रकांड पांडित्‍य के ग्रंथों से लेकर बी.ए की पाठ्य पुस्‍तकों तक अनेक ग्रंथों की रचना उन्‍होंने की थी। न जाने कितनी कमेटियों के वह सदस्‍य थे। हरेक विश्‍वविद्यालय उन्‍हें अपने यहां परीक्षक बनाकर अपने को धन्‍य समझता था। साथ ही बड़े कट्टर किस्‍म के ब्राह्मण थे वे। और तो और, मेरे घर की बनी हुई चाय तक उन्‍होंने कभी नहीं पी। महीनों उन्‍हें वाराणसी से बाहर रहना होता था और तब वे सत्तू, दूध, फल तथा अपने घर में बनी हुई मटरियों या लड्डुओं से हफ्तों काम चला लेते थे।

वाराणसी के लंका मोहल्‍ले में उन्‍होंने दुमंजिला मकान खरीद लिया था, उसी में वह रहते थे। उनकी पत्‍नी तथा उनके पुत्रों ने उनसे कितना आग्रह किया कि वे कहीं खुली जगह में कोई कोठी बनवा लें, लेकिन उन्‍होंने कतई इनकार कर दिया। गर्मी में दो बार और जाड़ों मे एक बार नित्‍य गंगा-स्‍नान करके पूजा करना नियत-सा था।

जनवरी का प्रथम सप्‍ताह था। उस दिन जब वह गंगा स्‍नान करके लौटे, उन्‍हें कुछ ज्‍वर-सा मालूम हुआ। उनकी पत्‍नी जसोदा देवी अपनी परंपरा के अनुसार लखनऊ में अपने छोटे पुत्र के यहां थीं, उनके नौकर बुधई के ऊपर उनकी देखभाल करने का पूरा भार था। दोपहर के समय जब उन्‍हें पसलियों में दर्द भी मालूम हुआ, उन्‍होंने वैद्यराज धन्‍व‍न्‍तरि शास्‍त्री को बुलाया। वैद्यराज ने नब्‍ज देखकर काढ़ा पिलाया - निदान था कि सर्दी लग गई है, ठीक हो जाएगी। दूसरे दिन जब बुखार और तेज हुआ, तब उन्‍होंने डाक्‍टर को बुलाया। डाक्‍टर ने देखा कि उन्‍हें निमोनिया हो गया है। दोनों फेफड़े जकड़ गए हैं। उसने दवा दी। बीमारी के चौथे दिन आचार्य चूड़ामणि ने बुधई को भेजकर मुझे बुलाया था।

थोड़ी देर तक मैं उनकी चारपाई के सामने खड़ा रहा कि वे आंखें खोलें, फिर हार कर मुझे ही बोलना पड़ा, 'गुरुदेव! आपका शिष्‍य जनार्दन जोशी आपकी सेवा में उपस्थित है।''

मेरा इतना कहना था कि आचार्य चूड़ामणि ने अपनी आंखें खोल दीं, 'जनार्दन ! मेरा अंत समय आ गया है। तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्‍थ रहे हो, तो तुम्‍हें बुला भेजा!'

मैंने आचार्य चूड़ामणि की बीमारी के संबंध में लालमणि से सब कुछ नीचे ही सुन लिया था, जो देवरिया से एक घंटा पहले ही आ गया था - आचार्य चूड़ामणि का तार पा कर। मेरी आंखों में भी आंसू आ गए। मैंने कहा, 'गुरुदेव! यह संसार असार है और यह शरीर नश्‍वर है!'

कमजोर आवाज में आचार्य ने कहा, 'हां, जनार्दन! यही पढ़ा है लेकिन अभी मेरी अवस्‍था ही क्‍या है... कुल मिलाकर पचहत्तर वर्ष! सोच रहा था, संन्‍यासाश्रम का भी कुछ रस लूं, लेकिन लगता है, मृत्‍यु सिर पर आ गई है! मृत्‍यु से बड़ा भय लगता है!' और जैसे वे बेहद थके हों, उन्‍होंने आंखें मूंद लीं।

मैंने उन्‍हें धीरज बंधाया, 'दिल छोटा मत कीजिए, गुरुदेव! बताइए, मेरे लिए क्‍या आदेश है?'

आचार्य चूड़ामणि ने फिर आंखें खोलीं, 'अरे हां, मेरे तकिए के नीचे कुछ कागज रखे हैं, उसमें मेरी वसीयत है। कल इसकी रजिस्‍ट्री यहीं घर पर करा चुका हूं। एक प्रति न्‍यायालय में है। दूसरी यह है। तो इसे निकाल लो। एकमात्र तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्‍थ हो और इस दुनिया में एकमात्र तुम पर मेरा विश्‍वास रहा है। मैंने उन सबों को कल ही तार करवा दिया है जिन्‍हें मेरे क्रिया-कर्म में सम्मिलित होना है और मेरी वसीयत के अनुसार कुछ मिलना है। इस वसीयत के कार्यान्‍वयन के लिए मैंने तुम्‍हें नियुक्‍त किया है। तो यह वसीयत मैं तुम्‍हें सौंपता हूं। मेरा प्रणांत होते ही यह वसीयत लागू हो जाएगी।'

'गुरुदेव की असीम कृपा रही है मेरे ऊपर!' यह कहकर मैंने आचार्य के तकिए के नीचे से कागजों का पुलिंदा निकाला। इधर मैंने उन कागजों को उलटना आरंभ किया, उधर आचार्य चूड़ामणि की आंखें उलटने लगीं। मैंने तत्‍काल बुधई और लालमणि को बुला कर आचार्य को भूमि पर उतारा। इधर मैंने उनके मुख में गंगाजल डाला, उधर आचार्य के प्राण महायात्रा पर निकल पड़े।

बुधई को उनके कमरे में छोड़कर मैं लालमणि के साथ नीचे वाले बड़े हाल में आया। कागज का पुलिंदा मेरे हाथ में था। लालमणि ने पूछा, 'यह कैसे कागज हैं, जोशी जी?'

'यह तुम्‍हारे पिता की वसीयत है, और तुम्‍हारे पिता के कथनानुसार इसी समय से लागू हो जाती है। तो इसे पढ़ना आवश्‍यक है।'

'हां, बुधई ने बताया था कि सब-रजिस्‍ट्रार साहब को पिताजी ने बुलाया था।' लालमणि बोला।

एक छोटी-सी भूमिका अपने संबंध में, फिर वसीयत में कार्यान्‍वयन के अनुच्‍छेद आरंभ हो गए थे। पहला अनुच्‍छेद इस प्रकार था - 'मैं चूड़ामणि मिश्र आदेश देता हूं कि मेरा अंत्‍येष्टि-संस्‍कार सनातन धर्म की प्रथा से हो, और अपने अंत्‍येष्टि-संस्‍कार के लिए मैंने पचास हजार की रकम अपनी आलमारी में अलग निकाल रखी है, जो क्रिया-कर्म का व्‍यय काटकर मेरा अंत्‍येष्टि-संस्‍कार करने वाले को मिलेगी। मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि मेरे दोनों पुत्र अधर्मी और नास्तिक हैं। वैसे मेरा अंत्‍येष्टि-संस्‍कार करने का उत्तरदायित्‍व मेरे ज्‍येष्‍ठ पुत्र लालमणि पर है, लेकिन मेरा आदेश है कि मेरा अंत्‍येष्टि-संस्‍कार वही कर सकता है, जो यज्ञोप‍वीत धारण किए हो और जिसके सिर पर शिखा हो। यदि मेरे ज्‍येष्‍ठ पुत्र में यह शर्त नहीं होती, तो नीचे लिखी नामों की तालिका के अनुसार प्राथमिकता के क्रम से यज्ञोपवीत और शिखा धारण करने वाला ही मेरा अंत्‍येष्टि-संस्‍कार कर सकेगा...' मैं पढ़ते-पढ़ते रुक गया। लालमणि की ओर देखकर मैंने पूछा, 'क्‍यों चिरंजीव लालमणि, तुम्‍हारी चोटी-बोटी है कि नहीं? और यज्ञोपवीत पहनते हो या नहीं?'

कुछ उलझन के भाव से उसने कहा, 'चुटइया रख के कहीं स्‍टेट बैंक की मैनेजरी होती है? और जनेऊ हर दूसरे-तीसरे दिन मैला हो जाता है, तो हमने पहनना ही छोड़ दिया।'

'तब तो पचास हजार गए हाथ से, तुम अंत्‍येष्टि-संस्‍कार के योग्‍य नहीं हो। तुम्‍हारे बाद नीलमणि का नंबर है।'

'उसके भी न चोटी है, न जनेऊ है। यह जो तीसरे नंबर पर हमारा चचेरा भाई है जगत्‍पति मिश्र, राज-ज्‍योतिषी, यह निहायत झूठा और आवारा है! ग्राहकों को फंसाने के लिए इसकी एक बलिश्‍त की चोटी लहराती है और झूठी कसमें खाने के लिए मोटा-सा जनेऊ पहने है।''

जगत्‍पति मुझसे भी एक बार पांच रुपए ऐंठ ले गया था, तो मैंने कुछ सोचकर कहा, 'लालमणि, हमारी सलाह मानो, तो तुम किसी नाई की दुकान पर तत्‍काल मशीन से अपने बाल छंटा लो, तो चौथाई या आधी इंच की चोटी निकल ही आएगी। और वहां से लौटते हुए एक जनेऊ भी लेते आना।'

मेरी बात सुनते ही लाल‍मणि तीर की तरह बाहर निकला। लालमणि के जाने के बाद मैंने वसीयत का दूसरा अनुच्‍छेद पढ़ा - 'मैं चूड़ामणि मिश्र चाहता हूं कि मेरी मृत्‍यु की सूचना तार या टेलीफोन द्वारा मेरी पत्‍नी जसोदा देवी, मेरे पुत्र लालमणि तथा नीलमणि, मेरी पुत्रियां सरस्‍वती, सावित्री और सौदामिनी तथा मेरे भतीजे जगत्‍पति, श्रीपति और लोकपति को दे दी जाए। अन्‍य संगे-संबंधियों को सूचना देने की कोई आवश्‍यकता नहीं। इन समस्‍त कुटुंब वालों की प्रतीक्षा बारह घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की जाए, इसके बाद मणिकर्णिका घाट पर मेरे शरीर का दाह-संस्‍कार हो। मेरे दसवें के दिन समस्‍त संगे-सं‍बंधियों की उपस्थिति में मेरी वसीयत का शेषांश पढ़ा जाए।'

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