मैंने संजीवन पांडे को डांटा - 'तुमको शर्म नहीं आती, जो अपने पिता-तुल्य पूज्य आचार्य को खबीस बूढ़ा कह रहे हो! अच्छा, मैं आठवां अनुच्छेद पढ़ता हूं - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे जगत्पति मिश्र राज-ज्योतिषी के कष्टों से भली-भांति परिचित हूं। इसके पास कोई बैठक नहीं है, इसलिए ग्राहक खुद इसके यहां नहीं फंसता, इसे घूम-फिरकर ग्राहकों को फंसाना पड़ता है। बावजूद अपने झूठ और आडंबर के यह अपना पेशा नहीं चला पा रहा है। अपने संकटमोचन के मकान का ऊपरी खंड मैं जगत्पति मिश्र को देता हूं, एक हजार रुपयों की रकम के साथ, जिससे यह अपना एक साइनबोर्ड बनवा ले, एक टेलीफोन लगवा ले और अपने पेशे योग्य पीतांम्बर आदि वस्त्र खरीद ले।'
जगत्पति मिश्र ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, 'हमारे लिए सिर्फ इतना ही?'
उत्तर नीलमणि दे दिया, 'पहले हैसियत बना लो, फिर लखनऊ आना। वहां ज्योतिषियों की बड़ी पूछ है, हम तुम्हें काफी रकम पैदा करा देंगे।'
मुझे डांटना पड़ा, 'यह सब बातें बाद में, अभी तो वसीयत का क्रम चल रहा है। हां तो नवां अनुच्छेद इस प्रकार है -'मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे श्रीपति मिश्र से अत्यंत संतुष्ट हूं। हाई स्कूल पास होने के बाद ही वह राजनीति में आ गया, और राजनीतिक नेताओं की चमचागीरी करके वह खाने-पीने भर के लिए झटक लेता है। लेकिन उसे केवल इतने से संतोष नहीं कर लेना चाहिए, उसे स्वयं एम.एल.ए. या मिनिस्टर बनना चाहिए। मैं जानता हूं कि चुनाव लड़ने के लिए पूंजी की आवश्यकता है, क्योंकि एक चुनाव में पचास-साठ हजार रुपयों का खर्च है। मैं श्रीपति मिश्र के लिए पचास हजार रुपयों की व्यवस्था करता हूं, ताकि वह अगला चुनाव लड़ सके। अपनी मक्कारी, छल-कपट और गुंडागर्दी के बल पर श्रीपति अपने प्रदेश का ही नहीं, भारतवर्ष का बहुत बड़ा नेता बन सकेगा।'
हर्षातिरेक से उमड़ते हुए अपने आंसुओं को पोंछते हुए श्रीपति ने कहा, 'चाचाजी, आपने मेरे चरित्र पर जो लांछन लगाया है, वह सरासर अपने भ्रम के कारण! लेकिन मैं आपके आदेशों का पालन करूंगा।'
मैंने अब दसवां अनुच्छेद पढ़ा - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे लोकपति मिश्र का आदर करता हूं। विन्रम, शिष्ट, अध्यवसायी और पंडित। अपने अथक परिश्रम और अपनी योग्यता के बल पर ही वह संस्कृत महाविद्यालय का प्राचार्य बन सका है। मैं अपनी समस्त पुस्तकें उसे देता हूं, जिसकी जिल्दें बनवाकर वह मेरे मकान के नीचे वाले खंड में एक अच्छा-सा पुस्तकालय स्थापित कर दे। इसी मकान में वह आकर रहे भी और जसोदा भी देखभाल करे। जसोदा की मृत्यु के बाद इस मकान के नीचे के खंड का स्वामी लोकपति मिश्र होगा। अगर जसोदा लोकपति के साथ न रहना चाहे, तो वह अपने पुत्रों-पुत्रियों के साथ या कहीं दूसरी जगह रह सकती है। ऐसी हालत में जसोदा के जीवनकाल में ही इस नीचे के खंड पर लोकपति का स्वामित्व हो जाएगा। पुस्तकों की जिल्दें बंधवाने के लिए तथा रैक खरीदने के लिए मैं दो हजार रुपयों की व्यवस्था करता हूं।'
लोकपति ने भूमि पर अपना मस्तक नवाकर कहा, 'चाचाजी का आदेश शिरोधार्य है। लेकिन जिल्द-बंधाई और रैकों के खरीदने के लिए यह रकम बहुत कम है।'
तभी मुझे लालमणि की आवाज सुनाई दी, 'इसमें हजार-दो हजार और जो लगे, मुझसे ले लेना।'
ग्यारहा अनुच्छेद इस प्रकार था - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपने सेवक बुधई से बहुत संतुष्ट हूं, जो गत बीस वर्षों से मेरे अंत समय तक बड़ी लगन और बड़ी भक्ति के साथ मेरा सेवा करता रहा। भोजन यह मेरे यहां करता था, वस्त्र यह मेरे पहनता था, अपनी तनख्वाह यह पूरी-की-पूरी अपने घर भेज देता था। तो मैं आदेश देता हूं कि मेरे समस्त वस्त्र, सूती, रेशमी और ऊनी बुधई को दिए जाएं। भंडारघर में जितना भी अनाज, घी, चीनी है, वह सब भी बुधई को दे दिया जाए और मेरी ओर से सौ रुपए देकर इसे भी विदा कर दिया जाय। यदि मेरे कुटुंब का कोई व्यक्ति बुधई को अपने यहां नौकर रखना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।'
जसोदा देवी ने कड़ककर बुधई से पूछा, 'कितना सामान है भंडार में?'
बुधई ने हाथ जोड़कर कहा, 'एक बोरा चावल, एक बोरा गेहूं, पांच किलो चीनी, एक मन गुड़, एक टीन घी और दो कनस्तर सत्तू है, दालें भी थोड़ी-थोड़ी हैं।
जसोदा देवी ने कहा, 'तेरही के दिन जो भोज होगा, यह अनाज उसमें काम आएगा। बुधई को कैसे दिया जा सकता है?'
मुझे बोलना पड़ा, 'भोज का प्रबंध लालमणि को करना पड़ेगा, जिन्हें इस सबके लिए पचास हजार की रकम मिली है। लालमणि अगर चाहें, तो यह अनाज बुधई से बाजार के भाव पर खरीद लें।'
लालमणि ने कहा, 'यह सब बाद में देखा जाएगा। अब आप वसीयत का शेषांश पढ़िए।'
बारहवें अनुच्छेद की प्रतीक्षा में सभी लोग थे, जो इस प्रकार था - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपने मकान के रूप में अचल संपत्ति तथा बैंक में जमा ग्यारह लाख रुपयों की चल संपत्ति का स्वामी हूं। यह ग्यारह लाख की रकम पिछले अप्रैल में मेरे नाम थी, ब्याज लगाकर यह रकम अब और बढ़ गई होगी। संभवत: इस राशि पर मृत्यु कर भी देना होगा। तो मृत्यु कर देने के बाद जो रुपया बचे, उसमें से इस वसीयत में निर्धारित राशियां बांट दी जाएं, और जो बचे, वह बराबर-बराबर भागों में लालमणि और नीलमणि में वितरित हो जाए।'
मैंने कुछ रुककर कहा, 'वसीयत समाप्त हो गई है, केवल एक फुटनोट है मेरे लिए अलग से। अगर आप कहें, तो उसे भी पढ़ दूं।'
एक स्वर से सब लोगों ने कहा, 'हां-हां, उसे भी पढ़ दीजिए।'
फुटनोट इस प्रकार था - 'मेरे परम शिष्य जनार्दन जोशी! तुम्हारा उत्तरदायित्व केवल इस वसीयत को मेरे परिवार वालों को सुनाना होगा। इस वसीयत की रजिस्ट्री हो चुकी है जो अदालत में मौजूद है। तो जनार्दन, तुम इस वसीयत पर परिवार वालों के हस्ताक्षर लेकर अदालत में तत्काल जमा कर देना। जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम हमेशा भावानात्मक प्राणी रहे हो। तुम्हें भौतिक दर्शन पर विश्वास नहीं रहा है। न तुमने सॉरल पढ़ा, न चार्वाक का दर्शन पढ़ा है। एकमात्र वेदांत के तुम पंडित रहे हो। मुझे तुमसे कभी-कभी ईर्ष्या होने लगती है कि कितना संतोष है तुम्हें, तुम्हारे मन में कितनी शांति है। मैं निःसंकोच कहता हूं कि तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्थ हो। मैं तुम्हें अंतिम उपहार के रूप में अपना परम प्रिय तोता गंगाराम भेंट करता हूं, जिसे मैंने अपने प्राणों की तरह पाला है। जब तुम अदालत से इस वसीयत को जमा करके लौटना, तब बुधई से गंगाराम को ले लेना।'
मैंने घड़ी देखी, दस बज चुके थे, मैं उठ खड़ा हुआ, 'अदालत खुल गई होगी, मैं पूज्य गुरुदेव की आज्ञानुसार यह वसीयत वहां जमा करके वापस लौटता हूं।'
अदालत में अधिक समय नहीं लगा, बारह बजे ही मैं लौट आया। बुधई ने तोते का पिंजरा मुझे थमा दिया।
लंका से अस्सीघाट अधिक दूर नहीं है, जहां मेरा मकान है। पिंजरा हाथ में लेकर मैं पैदल ही चल पड़ा। उस समय मेरे मन में परम संतोष था। आचार्य इतने संपन्न और इतनी स्थिर बुद्धि के आदमी होंगे, मैंने पहले कभी कल्पना न की थी। मैं इस पर सोचता मगन भाव में चल रहा था कि मुझे सुनाई पड़ा, 'तुम बुद्धू हो।'
मैं चौंक पड़ा। बिल्कुल साफ आवाज। और मैंने अनुभव किया कि यह आवाज तोते के पिंजरे से आई थी। इस आवाज को सुनकर मेरे विचारों ने पलटा खाया। आचार्य ने लाखों रुपए उन लोगो को बांट दिए, जिनसे वे बेहद नाराज थे, जिन्हें वे गालियां देते थे, लेकिन मेरे लिए उन्होंने एक पैसे की भी व्यवस्था न की। आज मुझे आचार्य चूड़ामणि पर कुछ झुंझलाहट होने लगी। इस झुंझलाहट के मूड में मैं तेजी से डग बढ़ाकर चलने लगा। तभी मुझे पिंजरे से सुनाई पड़ा, 'मैं पंडित हूं!'
बड़ी साफ आवाज, जैसे आचार्य चूड़ामणि स्वयं बोल रहे हों। तो आचार्य एक मूल्यवान उपहार मुझे दे गए हैं। अस्सी घाट सामने दीख रहा था कि मुझे फिर सुनाई पड़ा, 'तुम बुद्धू हो!'
आसपास के लोग मुझे और मेरे हाथ वाले पिंजरे को देख रहे थे और मुझे लगा कि आचार्य चूड़ामणि अपनी वसीयत में मुझे ठेंगा दिखाकर मेरा उपहास कर रहे हैं। मेरा अंदर वाला वेदांती न जाने कहां गायब हो गया। मैं तेजी से अपनी घर की ओर न मुड़कर गंगाजी की ओर चलने लगा, तभी पिंजरे से सुनाई पड़ा, 'मैं पंडित हूं!'
सामने गंगाजी लहरा रही थीं। मैंने आचमन करते हुए कहा, 'आचार्य, तुम पंडित थे इससे कोई इंकार नहीं कर सकता, तुम्हारी आत्मा को शांति मिले!' और मैं अपने घर की ओर चलने को उद्यत ही हुआ कि गंगाराम बोल उठा, 'तुम बुद्धू हो!'
जैसे सिर से पैर तक आग लग गई हो मेरे, मैंने पिंजरे की खिड़की खोलते हुए कहा, 'मैं बुद्धू हूं, यह मानने से मैं इंकार करता हूं। हे गंगाराम, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं!' मेरे कहने के साथ ही गंगाराम पिंजरे से उड़ गया।
और मैं घाट पर खाली पिंजरा छोड़कर घर की ओर चल दिया।