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भाग 2

10 अगस्त 2022

19 बार देखा गया 19

"क्या कहीं से कुछ फरमाइश तो नहीं हुई है... ?" मैंने भेदभरी दृष्टि डालते हुए पूछा।

"नहीं, फरमाइश नहीं हुई है, इसका मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ।" सकपकाते हुए चौधरी साहब ने कहा।

मैं ताड़ गया कि दाल में काला है। "देखो चोधरी साहब, बनो मत, ठीक-ठीक बतला दो। रुपया मुझसे ही लेना है।" हँसते हुए मैंने कहा।

"भाई, कल कार का 'इन्स्टालमेंट' देना है, बस इतनी-सी बात है।''

"आखिर तुम्हें यह क्या सूझी जो कार खरीद बैठे, जब तुम्हारे रोज के खर्च भी मुश्किल से चलाये चलते हैं?" - मैंने पूछा।

"यार, उस दिन फँस ही गये - अब क्या किया जाय।"

"किस दिन?"

"अच्छा, तो जो बात अभी तक किसी को नहीं बतलायी, वह तुम्हें बतलानी ही पड़ गयी। तो सुनो! अभी तीन महीने की बात है। भुवन के बड़े भाई आये थे, उनसे मिलने के लिए मैं सुबह उनके बँगले पर पहुँचा। ताँगा मैंने बँगले पर पहुँचते ही छोड़ दिया, क्योंकि काफी लोग इकठ्ठा थे और मेरा खयाल था कि जल्दी छुट्टी न मिलेगी। मेरा अनुमान गलत भी न था। खा-पीकर करीब बारह बजे फुर्सत मिली!

"मुझे एक काम से चौक जाना था। मैंने भुवन से ताँगा मँगवाने को कहा तो मालूम हुआ कि नौकर बीमार है। यह सोचकर कि बाहर निकल कर कोई सवारी ले लूँगा, मैं भुवन के बँगले से चल पड़ा। भाई सुरेश, जानते ही हो कि बरसात की धूप कितनी कड़ी होती है। ठीक दोपहर - जमीन जल रही थी और खोपड़ी चटकी जा रही थी। फाटक के बाहर आकर मैं एक पेड़ की छाया में खड़ा हो गया और सवारी की प्रतीक्षा करने लगा।"

"मैं करीब आध घण्टे वहाँ खड़ा रहा, लेकिन कोई खाली ताँगा न निकला। तबीयत परेशान हो गई। मेरा बँगला वहाँ से करीब दो मील की दूरी पर था। पैदल चलने के खयाल से ही आँखों के आगे अँधेरा छा जाता था। कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या करूँ। अन्त में मैंने यह तय किया कि यदि दस मिनट में कोई सवारी नहीं आती, तो जान पर खेलकर घर तक का रास्ता पैदल ही नापूँगा।

"दस मिनट भी हो गये; पर सवारी का पता नहीं। अब मैंने चलने के लिए कमर बाँधी। पैर उठाया ही था कि इक्के की घड़घड़ाहट मुझे सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा, तो एक खाली इक्का चला आ रहा था।

"मैं रुक गया। सुरेश, सच कहता हूँ कि उस इक्के को देखकर जान में जान आयी। लेकिन उस इक्के की बाबत यहाँ कुछ बतला देना आवश्यक होगा। मेरा यह खयाल है कि वह इक्का गदर के पहले बना होगा, क्योंकि इतनी पुरानी लकड़ी की चीज मैंने कभी न देखी थी। पहिये छोटे-छोटे, जिन पर लोहे का हाल चढ़ा हुआ था, धुरे से निकलने की लगातार कोशिश कर रहे थे, लेकिन निकल न पाते थे: क्योंकि लोहे की एक-एक कील उनको रोक रही थी। इसलिए शायद उन कीलों से लड़ने के समय कभी-कभी एक कर्कश आवाज कर देते थे। इक्के की छत बेर-बेर चारों तरफ हिल-डुलकर अपने बुढ़ापे को प्रकट कर रही थी। छत के तीन डण्डे तो मौजूद थे, लेकिन चौथे के जवाब दे देने के कारण बाँस का डण्डा लगाया गया था। बाकी तीन डण्डों में भी काफी मरहम-पट्टी हो चुकी थी। उस इक्के पर एक गद्दा बिछा था, जिसके ऊपर का कपड़ा फट गया था और रुई हवा में उड़कर दुनिया में घूमने-फिरने की सोच रही थी।

"उस इक्के में जो घोड़ी जुती हुई थी, वह करीब साढ़े तीन फीट ऊँची, पाँच फीट लम्बी, एक फीट चौड़ी होगी। उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। वह कभी-कभी रुककर सुस्ताने का प्रयत्न भी कर लेती थी। इक्केवान करीब सत्तर वर्ष के बुजुर्गवार थे, जिनकी दाढ़ी काफी लम्बी थी और सन की तरह सफेद। कमर झुकी हुई और दाँत नदारद। उनके एक हाथ में चाबुक था और एक हाथ में घोड़ी की रास। वह उस समय शायद अफीम की पिनक में ऊँच रहे थे।

"सुरेश! तबीयत तो न हुई कि उस पर बैठूँ, लेकिन मरता क्या न करता! मैं चलते इक्के पर ही उचककर बैठ गया। घोड़ी ने अन्दाज लिया कि इक्के पर बोझ अधिक हो गया और वह विरोध-रूप में खड़ी हो गई। इक्के के खड़े होने के साथ ही जो झटका लगा, तो बड़े मियाँ ने आँखें खोल दीं। एक ही साँस में घोड़ी को माँ-बहिन की गालियाँ देते हुए चार-पाँच चाबुक फटकार गए। घोड़ी को चलना पड़ा। इसके बाद उन्होंने मुझे देखा।

" 'बाबूजी सलाम! - कहाँ चलना होगा!' "

" 'बस सीधे चलो।' - मैंने कहा, क्योंकि मेरा बँगला उसी सड़क पर था।

"थोड़ी दूर चलने के बाद एक ताँगा मेरी दाहिनी ओर से आगे बढ़ा। मैंने देखा कि उस ताँगे पर दो स्त्रियाँ बैठी थीं। उन दोनों को तुम भी जानते हो - प्रभा और कमला। ये दोनों जब मैं युनिवर्सिटी में था, मेरे साथ पढ़ती थीं। इधर इन दिनों इन दोनों से मेरी दोस्ती कुछ थोड़ी-सी गहरी हो रही थी। सुरेश, क्या कहूँ, इनको देखते ही मेरा चेहरा पीला पड़ गया, कलेजा धक् से हो गया। अगर इन्होंने मुझे इस इक्के पर देख लिया तो ?... एकदम मैंने अपना मुँह उधर से फेर लिया।

"लेकिन बदकिस्मती से मैं ही अकेला उस इक्के पर था। अगर और सवारियाँ होतीं, तो शायद मैं छिप भी जाता। ताँगा तेजी के साथ बढ़ा जा रहा था, लेकिन एकाएक धीमा हो गया। मैं उस समय पीछे देख रहा था। मैंने सोचा कि ताँगा चाहे लाख धीमा किया जाय, मेरे इक्के को नहीं पा सकता। यह सोचकर मैंने संतोष की गहरी साँस ली। लेकिन एकाएक ताँगा रुक गया और प्रभा तथा कमला दोनों ही जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

"सुरेश, तुम नहीं जान सकते, उस वक्त मेरी क्या हालत थी। लज्जा और क्रोध से मेरे मुख का रंग बेर-बेर बदल रहा था। दिल में तरह-तरह के खयाल आ रहे थे, कभी तबीयत होती थी कि इस इक्केवाले की जान ले लूँ, कभी अपनी ही जान लेने की सोचता था। फिर कभी उन दोनों का गला घोंट देने की तबीयत होती थी। लेकिन मैंने अपना मुँह सामने न किया, न किया। मैंने भी इक्के वाले से कहा - इक्का रोक दो। लेकिन काफी देर तक ताँगे ने चलने का नाम न लिया, तो मुझे मजबूरन इक्केवाले से कहना पड़ा - 'इक्का मोड़ लो।' और मैं जहाँ से चला था, वहीं लौट आया।

"इतना अपमानित मैं जीवन में कभी न हुआ था। मैंने तय कर लिया कि मैं इन दोनों को दिखला दूँगा कि मेरे पास कार है और इस प्रकार मैं अपने आत्म-सम्मान पर लगे हुए धब्बे को धो दूँगा। उसी दिन शाम को मैंने यह कार ले ली। पास में रुपया न था, इसलिए, 'इन्स्टालमेंट सिस्टम' पर यह कार लेनी पड़ी।"

मैं हँस पड़ा - "अच्छा! इस तरह से कार आयी। खैर, कार तो आ गई।"

चौधरी विश्वम्भर सहाय ने चाय का दूसरा प्याला बनाते हुए कहा - "यार सुरेश! यह कार मैं नहीं रख सकता! अपना खर्च चलाना ही मुश्किल पड़ रहा है, कार तो एक बला पीछे लगी। लेकिन क्या करूँ मजबूर हूँ। जिस दिन से कार ली है, उस दिन से उन दोनों की शक्ल ही नहीं दिखलाई दी। आज दो महीने से दिन-रात कार पर चक्कर लगा रहा हूँ। शहर की हर एक सड़क छान डाली और उनके मकान के तो न जाने कितने चक्कर लगा डाले, सिर्फ इसलिए कि वे मुझे कार पर कहीं देख लें लेकिन न जाने कहाँ गायब हो गईं कि उनका पता ही नहीं लगता। जिस दिन उन्होंने यह कार देखी, उसके दो-चार दिन बाद ही मैं यह कार बेच दूँगा। बाबा, मैं कार से बाज आया। अच्छा, अब 'इन्स्टालमेण्ट' के लिए रुपया तो निकालो।"

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