रामगोपाल को साथ लेकर जब पांडे और सिंह कमरे में पहुँचे, उस समय मिस्टर परमेश्वरीदयाल वर्मा अपनी हजामत बना रहे थे। एक ट्रंक और एक बिस्तर के साथ एक नए आदमी का कमरे में प्रवेश देखकर मिस्टर वर्मा चौंके, घूरकर उन्होंने रामगोपाल को देखा। पांडे ने उसी समय मिस्टर वर्मा से रामगोपाल का परिचय कराया, "यह हैं मिस्टर रामगोपाल - आज से हम लोगों के साथ रहेंगे। आपके किराए का हिस्सा साढ़े बारह रुपए से घटकर दस रुपए रह गए।" लेकिन ढाई रुपए की बचत से मिस्टर वर्मा को कोई खास प्रसन्नता न हुई। उनका खयाल था कि एक कमरे में सिर्फ एक आदमी रहना चाहिए, जरूरत के वक्त दो रह सकते हैं, मजबूरी से तीन और जब गले आ पड़े तब चार।
उन्होंने गंभीरतापूर्वक कहा, "एक कमरे में पाँच आदमी - नान्सेंस - मैं किसी हालत में बर्दाश्त नहीं कर सकता।" "तो फिर आप यह कमरा छोड़ सकते हैं।" सिंह ने जरा रूखाई से कहा। "आप कौन होते हैं हमारे बीच में बोलनेवाले - कमरा पांडे का है। इन्हें जो कुछ कहना हो कहें।" "मैं बोलनेवाला इसलिए होता हूँ कि मैं भी कमरे का किराया देता हूँ हर महीना। आपकी तरह नहीं कि तीन महीने से आजकल में टरका रहे हैं।" "तो इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है? नहीं है इसलिए नहीं देता, होगा तो एक-एक पैसा पांडे के पास पहुँच जाएगा।"
इस बातचीत में बाप का घसीटा जाना सिंह को अच्छा नहीं लगा, उसने अपनी चप्पल उतारी, "क्या कहा बे - सुअर कहीं का, मेरे बाप का फिर से तो नाम ले -" पांडे ने सिंह का हाथ पकड़कर बीच-बचाव किया। मिस्टर वर्मा शांत भाव से दाढ़ी बनाते रहे। मिस्टर वर्मा तीस साल के कद्दावर से आदमी थे। करीब पाँच साल पहले बंबई आए थे एक अंग्रेजी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर होकर। यारबास आदमी थे - किसी कदर दबंग थे। एक दिन उन्होंने और उनके अंगे्रज मैनेजर ने साथ-साथ पी और जी खोलकर पी। पीने के बाद इनमें और इनके मैनेजर में बातचीत आरंभ हुई, बातचीत ने वाद-विवाद का रूप धारण किया और वाद-विवाद ने जूते-लात का। मिस्टर वर्मा हाथ-पैर में अपने मैनेजर से तगड़े थे, उन्होंने मैनेजर को अधमरा कर दिया। दूसरे दिन वे नौकरी से बर्खास्त कर दिए गए।
नौकरी से निकाले जाने के बाद मिस्टर वर्मा को यह अनुभव हुआ कि नौकरी के माने होते हैं गुलामी - और उसमें कुछ राजनीतिक चेतना भी जाग्रत हुई। जो कुछ रकम उनके पास थी उसे बीवी-बच्चों को देकर उन्होंने उन्हें अपने देश रवाना किया, अकेले वे व्यापार करने के लिए बंबई में रह गए। फोर्ट एरिया में अपने एक मुलाकाती के दफ्तर में उन्होंने एक मेज अपनी डलवा ली और कमीशन एजेंसी का कारोबार शुरू कर दिया। पास की सारी रकम उन्होंने बीवी के हवाले कर दी थी, अपनी हैसियत बनाए रखकर ही वे कारोबार चला सकते थे और हैसियत के माने होते हैं अच्छे सूट, कीमती सिगरेट और मौके-बेमौके टैक्सी की सवारी। लिहाजा हैसियत बनाए रखने के लिए उन्हें खाने और रहने में किफायत करनी पड़ी। पांडे को मिस्टर वर्मा लखनऊ से ही जानते थे, इसलिए वे पांडे के साथ रहने लगे। कारोबर शूरू किए हुए उन्हें अभी कुल छह महीने हुए थे- और अब जाकर कहीं उन्हें इतना मिलने लगा था कि कर्ज लेकर काम न चलाना पड़े।
शेव करके मिस्टर वर्मा ने एक अच्छा-सा रेशमी सूट निकाला। सूट पहनते हुए उन्होंने कहा, "सिंह, कल, जो मेरी टाई ले गए थे वह कहाँ हैं?" "वहीं तुम्हारी खूँटी पर टाँग दी थी।" सिंह ने, जो उस समय एक जासूसी उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो गया था, बिना मिस्टर वर्मा की ओर देखे उत्तर दिया। "तुमने मुझे क्यों नहीं वापस की? जरूरत के वक्त तो गिड़गिड़ाकर माँग ले जाते हैं और फिर नवाब साहब की तरह चीज फेंके देते हैं - कमीने कहीं के।" सिंह पढ़ने में इतना व्यस्त था कि उसने मिस्टर वर्मा को उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं समझी।
सिंह के मौन से मिस्टर वर्मा का पारा और भी चढ़ गया, "इन सालों से इतना कहा कि अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मत पहनो, लेकिन जब शराफत हो तब मानें। माँगेंगे - नहीं दोगे तो आँख बचाकर उठा ले जाएँगे - अगर अबकी दफे यह हरकत हुई तो मैं कहे देता हूँ ठीक न होगा।" "क्या ठीक नहीं होगा?" एक कर्कश आवाज ने कहा। मिस्टर वर्मा ने घूमकर देखा कि छबीलदास गुप्ता कमरे के दरवाजे पर तने खड़े हैं- सिंह का सूट और वर्मा की टाई डाले हुए। "मुझसे बिना पूछे मेरी टाई क्यों ली?" कड़ककर वर्मा ने कहा। "तबीयत -" मुँह बनाते हुए गुप्ता ने जवाब दिया।
हद हो गई। अब मिस्टर वर्मा से न रहा गया। लपककर उन्होंने छबीलदास का गला पकड़ा- "तो फिर मेरी तबीयत यह है कि आज तुम्हारी अच्छी तरह मरम्मत कर दूँ।" "हाँ-हाँ। यह गजब मत करना।" सिंह डिटेक्टिव नावेल छोड़कर बीचबचाव करने दौड़ा, इस डर से कि कहीं इस हाथपाई में उसका सूट न फट जाए।