अब मुझे आचार्य चूड़ामणि मिश्र की वसीयत में दिलचस्पी आने लगी थी, लेकिन आचार्य की आज्ञा मुझे शिरोधार्य करनी थी, इसलिए वसीयत को तहकर मैंने अपनी जेब के हवाले किया। आचार्य प्रवर का भौतिक शरीर अगले चौबीस घंटों में बिगड़ने न पाए, मुझे इस बात की चिंता थी। सौभाग्य से लालमणि वाराणसी आ गया था और करीब आधे घंटे बाद वह चौथाई इंच लंबी चोटी धारण किए हुए नाई की दुकान से घर वापस आ गया। इस समय उसके कंधे पर एक मोटा-सा जनेऊ भी लहरा रहा था। मैंने वसीयत का दूसरा अनुच्छेद उसे सुनाकर आदेश दिया कि वसीयत में बताए लोगों को तार या टेलीफोन से खबर कर दे, अपने चचेरे भाइयों के परिवार को बुला ले और एक सिल्ली बर्फ भी मंगवाकर आचार्य प्रवर का शरीर उस पर रखवा दे। दूसरे दिन सुबह नौ बजे आचार्य जी की शव यात्रा मणिकर्णिका घाट के लिए रवाना होगी। मैं सुबह सात-साढ़े सात बजे पहुंच जाऊंगा।
कितनी शानदार शव-यात्रा थी आचार्य चूड़ामणि की! मैं तो दंग रह गया था। वाराणसी के सभी धर्माध्यक्ष और पंडित सम्मिलित थे उसमें। शर्मा-शर्मो कुछ नेता भी आ गए थे। जगत्पति की आपत्तियों के बावजूद आचार्य की कपाल-क्रिया उनके ज्येष्ठ पुत्र लालमणि ने की अपनी चोटी और यज्ञोपवीत के बल पर।
दसवें के दिन जब घर शुद्ध हो गया, मैं आचार्य की वसीयत लेकर उनके घर पहुंचा। उनके सब परिवार वाले तथा सगे-संबंधी आ गए थे। नीचे वाले कमरे में लोग एकत्र हुए। एक ओर स्त्रियां थीं, आचार्य की पत्नी जसोदा देवी, लालमणि की पत्नी नीरजा मिश्र, नीलमणि की पत्नी मधुरिमा मिश्र, दोनों के ही बाल बाब्ड, दोनों ही अंग्रेजी-मिश्रित हिंदी में बात करने वाली। आचार्य की पुत्रियां सरस्वती और सावित्री, भारतीयता की प्रतिमूर्ति लेकर सौदामिनी अपनी भाविजों से इक्कीस निकलती हुई। दूसरी ओर पुरुष थे, आचार्य के पुत्र लालमणि और नीलमणि, आचार्य के दामाद ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक, जयनारायण तिवारी तथा संजीवन पांडे, आचार्य के भतीजे जगत्पति मिश्र, श्रीपति मिश्र और लोकपति मिश्र! बुधई सब लोगों के पान-पानी की व्यवस्था कर रहा था।
मैं उस समय तक अत्यधिक गंभीर था! आचार्य चूड़ामणि के आदेश का पालन करते हुए मैंने उनकी वसीयत का शेषांश अपने घर पर नहीं पढ़ा था, यद्यपि उसे पढ़ने की इच्छा बहुत हुई थी।
मैंने वसीयत पढ़ना आरंभ किया। दो अनुच्छेदों में लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह तो सब हो चुका था। अब मैं तीसरे अनुच्छेद पर आया, जो इस प्रकार था - 'मैं चूड़ामणि मिश्र आदेश देता हूं कि मेरा दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति की पत्नी सूतक हट जाने के बाद छह महीने तक नित्यप्रति सुबह स्नान करके ग्यारह ब्राह्मणों की रसोई अपने हाथ से बनाकर उन्हें भोजन कराएगी।...'
उसी समय लालमणि की पत्नी नीरजा मिश्र ने तमककर कहा, 'जाड़े में सुबह स्नान करके ग्यारह ब्राह्मणों की रसोई बनावे मेरी बला! बूढ़े की सनक पर मैं अपनी जान नहीं दे सकती!'
मैंने नीरजा मिश्र की बात अनसुनी करते हुए तीसरे अनुच्छेद का शेषांश पढा - 'यदि वह स्त्री इससे इंकार करती है, तो क्रमानुसार यह काम मैं दूसरी वधू, और इसके बाद अपनी तीन लड़कियों के हाथ में सौंपता हूं। इसके लिए उस स्त्री के लिए पचीस हजार रुपए की रकम निश्चित करता हूं।'
एकाएक मुझे मधुरिमा मिश्र की भारी और मोटी आवाज सुनाई दी, 'पिताजी का आदेश वेदवाक्य है मेरे लिए! जीजी नहीं करती हैं तो न करें, मैं उनकी इच्छा की पूर्ति करूंगी।'
नीरजा एकाएक तड़प उठी, 'बड़ी इच्छा की पूर्ति करने वाली होती हो! जिंदगी में कभी रसोई बनाई है या अब बनाओगी। लखनऊ में बैरों से खाना बनवाकर खाती हो! मैं तो अक्सर अपने घर में रसोई खुद ही बना लिया करती हूं। जहां छह-सात आदमियों की रसोई बनाती हूं, वहां ग्यारह आदमियों की रसोई बना लिया करूँगी, कुल छह महीने की तो बात है!' और नीरजा ने मुझसे पूछा, 'यह तो नहीं लिखा है कि गरम पानी से स्नान न किया जाए?'
मुझे कहना पड़ा, 'यह शर्त लगाना वह भूल गए।'
नीरजा ने ताली बजाते हुए कहा, 'तो फिर मुझे यह स्वीकार है! अब आगे पढिए।'
मधुरिमा मिश्र अपनी जेठानी को कोई कड़ा उत्तर देना चाहती थी कि नीलमणि बोल उठा, 'ठीक है, यह अधिकार भाभी जी का है। वैसे भाभी जी का मधुरिमा पर आक्षेप अनुचित है। मधुरिमा ने पचास-पचास आदमियों का भोजन अकेले अपने हाथ से बनाया है। भाभी जी को अपने शब्द वापस लेने चाहिए।'
'मैं अपने शब्द किसी हालत में वापस नहीं ले सकती!' नीरजा ने चीखकर कहा।
लेकिन वाह रे लालमणि! उसने उठकर कहा, 'मैं नीरजा के शब्द वापस लेता हूं। अब आप आगे पढ़िए।'
बात और आगे न बढ़े, मैंने वसीयत पढ़ना आरंभ किया - अनुच्छेद चार इस प्रकार है - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी पत्नी जसोदा देवी से जीवन भर परेशान रहा। अत्यंत आलसी, चटोरी और लापरवाह स्त्री है यह। मैंने तो दाल-भात और सत्तू खाकर जीवन बिता दिया, लेकिन यह हरामजादी मुझसे छिपाकर प्राय: नित्य ही रबड़ी, मलाई और मिठाई खाती है।...'
तभी जसोदा देवी ने चिल्लाकर कहा, 'हाय राम! यह सब लिखा है इस बुढ़वे ने! ऐसे खबोस आदमी के पल्ले मैं पड़ गई, इसे नरक में जगह न मिलेगी! घरवालों को सताकर जमाजथा इकट्ठी करता रहा... नाश हो इसका!'
इसी समय लालमणि और नीलमणि ने एक साथ अपनी माता को डांटा, 'अम्मा! पिताजी को गाली मत दो! हां जोशी जी, आप आगे पढिए।'
मैंने चौथे अनुच्छेद का शेषांश पढ़ा - 'मेरी मृत्यु के बाद इस रांड को मेरे पुत्रों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जो अपनी जोरुओं के गुलाम हैं। ये मेरी पुत्रवधुएं इसे भूखों मार देंगी, और इसकी बिगड़ी हुई आदतों के कारण इसे भयानक कष्ट होगा। इसलिए मैं जसोदा के नाम दो लाख रुपया छोड़ता हूं, जिसके ब्याज पर यह मजे में जिंदा रह सकती है।'
मैंने चौथा अनुच्छेद समाप्त ही किया था कि स्त्रियों के कक्ष में एक हंगामा-सा खड़ा हो गया। जसोदा देवी 'हाय लालमन के पिता!' कहकर धड़ाम से जमीन पर लेट गईं और अन्य स्त्रियों ने उन्हें घेर लिया। दस सेकेंड बाद ही उन्होंने रोना प्रारंभ कर दिया, 'तुम तो स्वर्ग चले गए, लालमन के पिता हमें इस नरक में छोड़ गए। हमें क्षमा करो! जो हमारे अनजाने में हमसे अपराध हो गया है! हाय लालमन के पिता! और उन्होंने अपनी छाती पीटना आरंभ कर दिया।
मैंने समस्त साहस बटोरकर कड़े स्वर में कहा, 'यह सब कारन बाद में कीजिएगा, अभी तो वसीयत पढ़ी जा रही है!' और जसोदा देवी की पुत्रियों ने उन्हें जबरदस्ती चुप कराया।
मैंने अब पांचवां अनुच्छेद पढ़ना आरंभ किया - 'मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी पुत्री सरस्वती के पति ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक से अत्यधिक खिन्न हूं। एक हफ्ता पहले मैंने यह खबर पढ़ी थी कि ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक के विरुद्ध पांच लाख रुपए गबन की इन्क्वायरी की मांग उठाई गई हैं एसेंबली में। इसके अर्थ यह हैं कि यह ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक बेईमान और रिश्वतखोर है।...'