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भाग 8

10 अगस्त 2022

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उस दिन मिस्टर वर्मा ने पंजाब के एक बहुत बड़े व्यापारी को फाँसा था और उसे वे ताजमहल होटल में डिनर खिलाने को ले गए थे। रामगोपाल को एक स्त्री के साथ ताजमहल होटल में बैठा देखकर स्वाभाविक रूप से मिस्टर वर्मा को कौतूहल हुआ; लेकिन उस कौतूहल को उन्हें जबर्दस्ती दबाना पड़ा। पर मिस्टर वर्मा साधारण ही चीजों को छोड़ देनेवाले जीव नहीं थे। जब मिस्टर वर्मा अपने कमरे में पहुँचे तो वे काफी खुश थे - दो हजार के फायदे का काम उन्होंने तय कर लिया था।

सुशीला को उसके घर पहुँचाकर रामगोपाल उस समय तक अपने कमरे में लौट आया था और छबीलदास से वह सुशीला की तथा अपनी सफलता की बात बतला रहा था। लेकिन इस बातचीत में वह ताजमहल होटल जाने की बात तथा सुशीला से अपनी प्रेम-वार्ता को दबा गया था। पांडे और सिंह को रामगोपाल के सौभाग्य पर ईर्ष्या हो रही थी। उसी समय मिस्टर वर्मा ने "मार लिया मैदान बंदे - मार लिया मैदान," गाना गुनगुनाते हुए कमरे में प्रवेश किया। आते ही तपाक से उन्होंने रामगोपाल से पूछा, "वाह भाई - बड़े छुपे रूस्तम निकले! किस खूबसूरत बला को ताजमहल होटल में फाँस ले गए थे?"

रामगोपाल पकड़ा गया, फिर भी उसने बचने की कोशिश की, "मेरी क्लास-फेलो थी, बंबई घूमने आई है।" "क्यों बनते हो यार - शक्ल से तो ऐक्ट्रेस मालूम होती है - मैं भी ताजमहल होटल में मौजूद था - और तुम दोनों किसी फिल्म कंपनी की बात भी कर रहे थे।" सिंह की ईर्ष्या रामगोपाल के सौभाग्य से काफी भड़क चुकी थी, उसने छूटते ही कहा, "सुशीला रही होगी। आज इन्हें और सुशीला, दोनों को नौकरी मिली है न! जश्न मनाने गए थे।" छबीलदास के चेहरे से सारी खुशी गायब हो गई, उसने जरा गंभीर स्वर में कहा, "तुम इतने कमीने निकलोगे - यह मुझे न मालूम था।"

वर्मा हँस पड़े। "इसमें कमीनेपन की क्या बात - कहा है न रंडी किसकी बीवी और भँडुआ किसका यार।" वर्मा की इस हँसी ने आग में घी का काम किया। छबीलदास ने रामगोपाल से कड़क कर कहा, "क्या जवाब देते हो?" रामगोपाल भी तन गया, "तुम मुझसे जवाब माँगनेवाले कौन होते हो? जवाब माँगना है तो सुशीला से माँगो जाकर।" पांडे ने किसी तरह मामला शांत करवाया।

मिस्टर व्रती ने सुशीला से कहा, "यह आदमी रामगोपाल, इसके सामने मैंने पूरी बात कहना ठीक नहीं समझा। अब मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ - यह रामगोपाल कौन है और इससे आपका क्या रिश्ता है?"

सुशीला ने उत्तर दिया, "मैं इसे बिलकुल नहीं जानती। मेरे एक मुलाकाती ने कहा था कि ये आपकी फिल्म कंपनी में मुझे पहुँचा देंगे।" मिस्टर व्रती ने संतोष की एक गहरी साँस ली, " अगर मैं इसे अपनी कंपनी में न लूँ तो आपको कोई आपत्ति नहीं होगी , क्योंकि यह किसी काम का आदमी नहीं है।" "इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है।" सुशीला ने शांत भाव से उत्तर दिया। "एक बात और। मेरी कंपनी में रहकर आप बिना मेरी इजाजत किसी भी आदमी से नहीं मिल सकेंगी - मेरी कंपनी की यह पहली शर्त है।" "अच्छी बात है।" सुशीला ने कहा।

मिस्टर व्रती उठ खड़े हुए, "आज शाम को पूना चलना है - वहाँ सेठ जी से बातें करनी हैं। आप शाम तक तैयार हो जाइए, टिकट मँगवाए लेता हूँ।" मिस्टर व्रती ने उसी समय कंपनी के दरबान को आज्ञा दी कि रामगोपाल को आफिस में घुसने न दिया जाए और उससे कह दिया जाए कि उसे नौकरी नहीं मिली। जिस समय सुशीला अपना असबाब ठीक करने अपने घर पहुँची, छबीलदास फुटपाथ के चक्कर लगा रहा था। सुशीला ने छबीलदास को अंदर बुलाया। छबीलदास भरा हुआ था, उसने कहा, "मैं तुम्हारे सर्विस पा जाने पर बधाई देने आया हूँ।"

सुशीला मुस्कुराकर अपना असबाब ठीक करने लगी। "और इस बात पर भी कि तुम्हें एक नया मित्र मिल गया है जो तुम्हें ताजमहल होटल में खाना खिला सकता है, वहाँ तुमसे प्रेमालाप कर सकता है।" सुशीला ने सूटकेस में कपड़े रखते हुए कहा, "तो क्या तुम मुझसे कैफियत तलब करने आए हो?" छबीलदासहँस पड़ा, "मैं कैफियत तलब करनेवाला कौन होता हूँ। मैं तो वह साधन मात्र हूँ जो तुम्हारी मुसीबत पर काम आए।" छबीलदास के इस स्वर से सुशीला को बुरा लगा, "आपका वह फर्ज था क्योंकि आप ही मुझको बनारस से बहका लाए थे। आगे से मैं आपसे इस तरह की न कोई सहायता माँगूँगी न आपसे कोई वास्ता रखूँगी।"

छबीलदास उठ खड़ा हुआ - तैश में।आज उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी। उसने कहा, "बहुत अच्छा। लेकिन याद रखना तुम्हें फिर मेरी जरूरत पड़ेगी - और उस दिन मैं तुम्हारे ये शब्द याद रखूँगा - आगे चलकर मुझसे किसी तरह की उम्मीद न रखना।" और वह चला आया।

उस छोटे-से कमरे में पाँच बिस्तर पड़े थे और पाँच आदमी लेटे थे। पांडे एक फिल्म मैगजीन उलट-पुलट रहा था, सिंह एक फिल्मी गाना गुनगुना रहा था। वर्मा सिगरेट के कश-के-कश ले रहा था। छबीलदास एक कोने में पड़ा सिसकियाँ ले रहा था। वह अपने विगत पर सोच रहा था, और वर्तमान की उस विगत से तुलना कर रहा था। और रामगोपाल दूसरे कोने में मौन अपने भविष्य पर चिंता कर रहा था।

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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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