लोग मुझे कवि कहते हैं, और गलती करते हैं; मैं अपने को कवि समझता था और गलती करता था। मुझे अपनी गलती मालूम हुई मियाँ राहत से मिलकर, और लोगों को उनकी गलती बतलाने के लिए मैंने मियाँ राहत को अपने यहाँ रख छोड़ा है।
मियाँ राहत वास्तव में कवि हैं। वह नामी आदमी नहीं हैं। उनका कोई दीवान अभी तक नहीं छपा, और शायद कभी छपेगा भी नहीं। मुशायरों में वह नहीं जाते, या यों कहिए कि मुशायरों में वह नहीं पढ़ते। एक बार मुशायरे में उन्होंने अपनी गजल पढ़ी, तो उनको इतनी दाद मिली कि बेचारे घबरा गए, और उस दिन से मुशायरों में न पढ़ने की कसम खा ली। और, दूर की नहीं हॉँकते, पर फिर भी वह कवि हैं, इतने बड़े कि आजकल के नामी-नामी शायर सब एक साथ उन पर न्यौछावर किए जा सकते हैं।
यदि आप चालीस-पचास साल के एक ऐसे आदमी को मेरे बंगले के बरामदे में देखें, जो लम्बा सा और किसी हद तक मोटा सा कहा जा सके, जिसका चेहरा गोल, भरा हुआ और उस पर चेचक के दाग, मूँछ नदारद, लेकिन दाढ़ी तोंद तक पहुँचती हुई, सिर पर पट्टे और बाल बीच से खिंचे हुए, आँखें बड़ी-बड़ी, ऊपर उभरी हुई और उनमें सुरमा लगा हुआ, चिकन का कुरता और लंकलाट का गरारेदार पाजामा पहने हुए हों तो आप समझ लें कि यही मियां राहत हैं। वह आपसे झुककर सलाम करेंगे, अदब के साथ आपका नाम पूछेंगे, आपको कुर्सी पर बिठालकर मुझे आपकी इत्तिला देंगे, और फिर धीरे से वहाँ से खिसक जाएँगे। आप उनको मेरा नौकर किसी हालत में नहीं समझ सकते, और मैं उनसे मालिक का बर्ताव करता भी नहीं हूँ। मैं उनकी इज्जत करता हूँ, बुजुर्ग की तरह उन्हें मानता हूँ।
मियाँ राहत से मेरी मुलाकात तीन साल पहले हुई थी। यों तो इसके पहले से मैं उन्हें देखता आता था, पर उस समय मुझे उनके नाम और उनकी खूबियों का पता न था। इलाहाबाद के स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर, खाकी वर्दी पहने और लाल पगड़ी बाँधे हुए मियाँ राहत को मैंने सवारियों को रास्ता बतलाते हुए देखा था। इक्केवाले झुककर मियाँ राहत को सलाम करते थे और उनकी कुशल-क्षेम पूछते थे, और मियाँ राहत मुस्कुराकर उन सबको जवाब देते थे। साथ ही इक्के और ताँगेवाले, उलटे-सीधे, दाएँ-बाएँ जहाँ से तबीयत होती थी, इक्का-ताँगा ले जाते थे।
मुझे शक था कि मियां राहत शायर अवश्य होंगे। कभी-कभी सवारियों को अपने भाग्य पर छोड़कर मियाँ राहत एक नोटबुक और एक पेंसिल लिये हुए चौराहे के एक कोने में नजर आते थे। कभी-कभी वह अपनी पेंसिल से नोटबुक में कुछ दर्ज भी कर लेते थे। पहले तो मैंने समझा, मियाँ राहत किसी का चालान कर रहे हैं, लेकिन जब मैंने उनका गुनगुनाना सुना, तो बात समझ में आ गई।
उस दिन मैं सिविल लाइंस में घूमने जा रहा था। शाम का समय था, इलाहाबाद के शौकीन रईस अपनी-अपनी मोटरें लेकर घूमने को निकल पड़े थे। स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर जब मैं पहुँचा, तब पैर आप-ही-आप रुक गए। आँखों ने मियाँ राहत को ढूँढ़ ही तो निकाला। एक किनारे खड़े हुए मियाँ राहत कागज पर अपनी पेंसिल चला रहे थे। रुककर मैं मियाँ राहत को देखने लगा। इसी समय चौक की तरफ से एक कार तेजी के साथ आई और अपनी दाहिनी ओर आई मियाँ राहत पर चढ़ती हुई। कार की स्पीड साठ मील प्रति घंटे से कम न रही होगी।
मियाँ राहत अपनी नोटबुक और पेंसिल के साथ इतने मशगूल थे कि उन्हें कार के आने की जरा भी ख़बर न थी। मैंने खतरे को देखा और जोर से चिल्ला उठा-मियाँ भागो, नहीं तो जान गई।
मियाँ राहत उछले लेकिन कार इस तेजी के साथ चल रही थी कि उनके हटते-हटते उसके अगले मडगार्ड का झोंका मियाँ राहत के लग ही तो गया, और राहत 'लाहौल विलाकूबत' कहते हुए जमीन पर आ गए। मैं दौड़ा और कार भी थोड़ी दूर चलकर रुक गई। मैंने मिया राहत को उठाया, चोट न आई थी, सिर्फ घुटने और कोहनी कुछ छिल गए थे। उठते ही मियाँ राहत ने अपनी पगड़ी दुरुस्त की और वर्दी से धूल झाड़ी। उस समय कार से एक चौबीस-पच्चीस वर्ष की युवती उतरकर मियाँ राहत के पास आई। बहुत सुन्दर, गोरी और यौवन-भार से लदी हुई। मुस्कुराते हुए उसने मियाँ राहत से पूछा-“चोट तो नहीं लगी ?”
मियाँ राहत ने प्रायः दस सेकेंड तक बड़ी गम्भीरतापूर्वक उस युवती को देखा, इसके बाद वह भी मुस्कुराए-“'नहीं, चोट तो कोई ऐसी नहीं लगी, लेकिन जरा देख-भालकर मोटर चलाया कीजिए।”