"कहो भाई मुलाकात हुई?" पांडे ने पूछा। "हुई भी और नहीं भी हुई।" छबीलदास ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचकर उत्तर दिया। "यह तो पहेली बुझा रहे हो।" सिंह हँस पड़ा।
"बात यह है कि जब मैंने उसके मकान में घंटी बजाई तो वह दरवाजे पर खुद आई। मुझे देखते ही चौंक उठी, बहुत धीमे स्वर में उसने कहा, "अभी जरा दो-एक आदमियों से कुछ जरूरी बातें हो रही हैं, शाम को पाँच-साढ़े पाँच बजे के बीच में चर्चगेट स्टेशन पर मिलना।"
शाम के समय छबीलदास चर्चगेट पहुँचा। सुशीला वहाँ पहले से ही मौजूद थी। उस समय वह बनारसी सिल्क की एक साड़ी पहने थी, शरीर पर गहने लदे थे, पर उसका चेहरा उतरा हुआ था और उसकी आँखें लाल थीं- मानो दिन-भर वह रोती रही हो। छबीलदास को देखते ही वह फूट पड़ी। उसन कहा, "छबील! मैं लुट गई।"
सुशीला के आँसू देखकर छबीलदास एकबारगी पिघल गया। उस समय वह यह भूल गया कि उसके सामने खड़ी स्त्री ने उसे धोखा दिया था। उसने कहा, "क्या बात है - इतना अधीर होने की कोई बात नहीं - मैं हूँ। बतलाओ तो क्या हुआ?"
"हीरालाल ने (उस सेठ का नाम था) मेरे जाली दस्तखत बनाकर बैंक से सब रुपए निकाल लिए - उसका दीवाला निकल गया है। मकान का किराया तीन महीने से नहीं दिया गया है, मकानवाले का नोटिस आया है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ।" "मकान का कितना किराया है?" छबीलदास ने पूछा। "डेढ़ सौ रूपया महीना - साढ़े चार सौ देने हैं। पास में एक पैसा नहीं।" यह कहकर सुशीला ने एक सोने की अँगूठी निकालकर छबीलदास को दी, "कल के लिए घर में अनाज नहीं है - इसे बेचकर कल कुछ रुपया ला देना।" छबीलदास के नेत्रों में करुणा छलछला पड़ी; उसने कहा, "सुशीला, मुझे अफसोस है कि मेरे पास रुपए नहीं है और तुम्हें यह दिन देखना पड़ा कि अपने गहने बेचो - भगवान की जैसी मरजी! कल सुबह मैं रुपये ले आऊँगा।"
छबीलदास सुशीला को एक पास के होटल में ले गया। वह कितना खुश था - एक साल बाद सुशीला उसके पास लौट आई। उस समय सुशीला के प्रति उसका क्रोध, उसके कर्मों के प्रति उसकी घृणा - वह सब लोप हो चुके थे। छबीलदास की जेब में जो ग्यारह आने पैसे थे उनका ईरानी होटल में जैसा-तैसा नाश्ता करके छबीलदास ने सुशीला को विदा दी। वह खुद बिना टिकट गाड़ी पर बैठकर घर आया। जिस समय छबीलदास घर लौटा वह प्रसन्न भी था, चिंतित भी था। उस समय कमरे में मिस्टर वर्मा बिस्तर पर लेटे हुए सुस्ता रहे थे और रामगोपाल एक उपन्यास पढ़कर समय काटने की कोशिश कर रहा था। सिंह और पांडे भोजन करने के लिए होटल चले गए थे।
सुशीला की अँगूठी बिके और वह भी छबीलदास के हाथों-छबीलदास का हृदय रो रहा था। आज उसे अपनी गरीबी, विवशता - यह सब बुरी तरह अखर रही थी। उसने वर्मा के चेहरे को देखा, शांत, गंभीर, निश्चिंत उसकी हिम्मत बढ़ी, "वर्मा - कुछ बिजनेस बढ़ा?"
वर्मा ने सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा, "बढ़ेगा क्यों नहीं। आज ही एक पार्टी फँसी है - एक सौदे में करीब दो हजार मिल जाएँगे।" छबीलदास के हृदय की गति थोड़ी-सी तेज हुई, "यार - पच्चीस रुपए की सख्त जरूरत है - अगले हफ्ते वापस कर दूँगा।"
वर्मा ने छबीलदास को गौर से देखा। वे मौन भाव से छबीलदास को उसी तरह कुछ देर तक देखते रहे। छबीलदास का हृदय अब जोरों के साथ धड़कने लगा था। वर्मा ने आखिर अपनी खामोशी तोड़ी, "पचीस रुपए! ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी?" छबीलदास की आशा और बढ़ी। "भाई जीवन-मरण का प्रश्न है। कल सुबह तक पचीस रुपए मुझे किसी तरह चाहिए ही।"