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प्रेजेंट्स भाग 1

10 अगस्त 2022

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हम लोगों का ध्यान अपनी सोने की अँगूठी की ओर, जिस पर मीने के काम में 'श्याम' लिखा था, आकर्षित करते हुए देवेन्द्र ने कहा-“मेरे मित्र श्यामनाथ ने यह आँगूठी मुझे प्रेजेंट की। जिस समय उसने यह अँगूठी प्रेजेंट की थी उसने कहा था कि मैं इसे सदा पहने रहूँ, जिससे कि वह सदा मेरे ध्यान में रहे।”

परमेश्वरी ने कुछ देर तक उस अँगूठी की ओर देखा, इसके बाद वह मुस्कुराया, “प्रेजेंट्स की बात उठी है तो मैं आप लोगों को एक विचित्र मजेदार और सच्ची कहानी सुना सकता हूँ। यकीन करना या न करना आप लोगों का काम है, मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं तो केवल यह जानता हूँ कि यह बात सच है क्योंकि इस कहानी में मेरा भी हाथ है। अगर आप लोगों को कोई जल्दी न हो तो सुनाऊँ।”

चाय तैयार हो रही थी, हम सब लोगों ने एक स्वर में कहा, “जल्दी कैसी ? सुनाओ।”

परमेश्वर ने आरम्भ किया:

दो साल पहले की बात है। अपनी कम्पनी का ब्रांच-मैनेजर होकर मैं दिल्ली गया था। मेरे बँगले के बगल में एक कॉटेज थी, जिसमें एक महिला रहती थीं: उनका नाम श्रीमती शशिबाला देवी था। वे ग्रेजुएट थीं और किसी गर्ल्स-स्कूल में प्रधान अध्यापिका थीं। सन्ध्या के समय जब मैं टहलने के लिए जाया करता था तो श्रीमती शशिबाला देवी प्रायः टहलती हुई दिखाई देती थीं। हम लोग एक-दूसरे को देखते थे, पर परिचय न होने के कारण बातचीत न हो पाती थी।

एक दिन मैं टहलने के लिए नजदीक के पार्क में गया । वहाँ जाकर देखा कि श्रीमती शशिबाला देवी एक फव्वारे के पास खड़ी हैं। उन्होंने भी मुझे देखा और वैसे ही वे वहाँ से चल दीं। श्रीमती शशिबाला देवी मन्थर गति से टहलती हुई आगे-आगे चल रही थीं और मैं उनके पीछे करीब दस गज के फासले पर। वे बीच-बीच में मुड़कर पीछे भी देख लिया करती थीं। एकाएक उनका रूमाल गिर पड़ा, या यों कहिए कि एकाएक उन्होंने अपना रूमाल गिरा दिया, तो अनुचित न होगा क्‍योंकि मैंने उन्हें रूमाल गिराते स्पष्ट देखा था। रूमाल गिराकर वे आगे बढ़ गईं।

जनाब ! मेरा कर्त्तव्य था कि मैं रूमाल उठाकर उन्हें वापस दूँ। और मैंने किया भी ऐसा ही। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा-“इस कृपा के लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूँ।”

मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा-“धन्यवाद की क्या आवश्यकता ? यह तो मेरा कर्त्तव्य था।”

शशिबाला देवी ने मेरी ओर तीव्र दृष्टि से देखा-“क्या आप यहीं कहीं रहते हैं? देखा तो मैंने आपको कई बार है।”

“जी हाँ, आपके बराबरवाले बँगले में ठहरा हुआ हूँ। अभी हाल में ही आया हूँ।”

“अच्छा ! तो आप मेरे पड़ोसी हैं, और यों कहना चाहिए कि निकटतम पड़ोसी हैं।” कुछ चुप रहकर उन्होंने कहा-“यह तो बड़े मजे की बात है। इतना निकट रहते हुए भी हम लोगों में अभी तक परिचय नहीं हुआ ?”

मैंने जरा लज्जित होते हुए कहा, “एक-आध बार इरादा तो हुआ कि अपने पड़ोसियों के परिचय प्राप्त कर लूँ, और परिचय प्राप्त भी किए, पर आप स्त्री हैं इसलिए आपके यहाँ आने का साहस न हुआ।”

शशिबाला देवी खिलखिलाकर हँस पड़ीं-“अच्छा तो आप स्त्रियों से इतना अधिक डरते हैं ! लेकिन स्त्रियों से डरने का कारण तो मेरी समझ में नहीं आता। अब अगर आप अपने भय के भूत को भगा सकें तो कभी मेरे यहाँ आइए। आप से सच कहती हूँ कि स्त्री बड़ी निर्बल होती है और साथ ही बड़ा कोमल। उससे डरना तो बड़ी भारी भूल है !”

शशिबाला की मीठी हँसी और उसकी वाक्‌पटुता पर मैं मुग्ध हो गया। वह सुन्दरी न थी, पर वह कुरूपा भी नहीं कही जा सकती थी। उसकी अवस्था लगभग तीस वर्ष की रही होगी। गठा हुआ दोहरा बदन, बड़ी-बड़ी आँखें और गोल चेहरा । मुख कुछ चौड़ा था, माथा नीचा और बाल घने तथा काले और लापरवाही के साथ खींचे गए थे क्योंकि दो-चार अलकें मुख पर झेल रही थीं, जिन्हें वह बराबर सँभाल देती थीं। रंग गेहुँआ और कद मझोला। छपी हुई मलमल की धोती पहने हुए थीं: पैरों में गोटे के काम की चट्टियाँ थीं।

मैंने शशिबाला की ओर प्रथम बार पूरी दृष्टि से देखा, शशिबाला को मेरी दृष्टि का पता था। वह जरा सिमट सी गई, फिर भी मुस्कुराते हुए उसने कहा-“आप विचित्र मनुष्य दिखाई देते हैं। फिर अब कब आइएगा ?”

“कल शाम को आप घर पर ही रहेंगी ?”

“अगर आप आइएगा। नहीं तो नित्य के अनुसार घूमने चली जाऊँगी।”

“तो कल शाम को पांच बजे मैं आऊँगा।”

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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चाय का प्याला मैंने होंठों से लगाया ही था कि मुझे मोटर का हार्न सुनाई पड़ा। बरामदे में निकल कर मैंने देखा, चौधरी विश्वम्भरसहाय अपनी नई शेवरले सिक्स पर बैठे हुए बड़ी निर्दयता से एलेक्ट्रिक हार्न बजा रह

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"क्या कहीं से कुछ फरमाइश तो नहीं हुई है... ?" मैंने भेदभरी दृष्टि डालते हुए पूछा। "नहीं, फरमाइश नहीं हुई है, इसका मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ।" सकपकाते हुए चौधरी साहब ने कहा। मैं ताड़ गया कि दाल में

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जिस समय मैंने कमरे में प्रवेश किया, आचार्य चूड़ामणि मिश्र आंखें बंद किए हुए लेटे थे और उनके मुख पर एक तरह की ऐंठन थी, जो मेरे लिए नितांत परिचित-सी थी, क्‍योंकि क्रोध और पीड़ा के मिश्रण से वैसी ऐंठन उन

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