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भाग 2

10 अगस्त 2022

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शशिबाला की और मेरी दोस्ती आशा से अधिक बढ़ गई। मैं विवाहित हूँ, यह तो आप लोग जानते ही हैं; और साथ ही मेरी पत्नी सुन्दरी भी है। इसलिए यह भी कह सकता हूँ कि मेरी दोस्ती आवश्यकता से भी अधिक बढ़ गई। शशिबाला में एक विचित्र प्रकार का आकर्षण था, जो गृहिणी में नहीं मिल सकता। शशिबाला की शिक्षा और उसकी संस्कृति ! मैं नित्य ही उसके यहाँ आने लगा । कभी-कभी रात-रात-भर मैं घर नहीं लौटा ।

एक दिन जब सुबह मेरी आँख खुली तो सर में कुछ हल्का-हल्का दर्द हो रहा था। मैं उठकर पलंग पर बैठ गया। वह कमरा शशिबाला का था। पर शशिबाला उस समय कमरे में न थीं, वह बाथरूम में स्नान कर रही थीं। घड़ी देखी, आठ बज रहे थे। अँगड़ाई लेकर उठा, खिड़की खोली। सूर्य का प्रकाश कमरे में आया। रात को जरा अधिक देर तक जगा था-सर में शायद उसी से दर्द हो रहा था। ड्रेसिंग-टेबल में लगे हुए आईने में मैंने अपना मुख देखा, सिर्फ आँखें लाल थीं और चेहरा कुछ उतरा हुआ | एकाएक मेरी दृष्टि ड्रेसिंग-टेबल के कोने में चिपके हुए कागज के टुकड़े पर पड़ गई। उसमें कुछ लिखा हुआ था। उसे पढ़ा, अँगरेजी में लिखा था, 'प्रकाशचन्द्र' यह प्रकाशचन्द्र कौन है ? मैं इसी पर कुछ सोच रहा था कि मैंने शशिवाला देवी का वेनिटी-बाक्स देखा। वैसे तो वेनिटी-बाक्स कई बार ऊपर से देखा है, उस दिन उसे अन्दर से देखने की इच्छा हुई। पाउडर, क्रीम लिपस्टिक, ब्राउ-पेंसिसल आदि कई चीजें सजी हुई रखी थीं। सबको उलटा-पुलटा। एकाएक वेनिटी-बाक्स की तह में एक कागज चिपका हुआ दिखलाई दिया जिसमें लिखा था, 'सत्यनारायण' । वेनिटी-बाक्स बन्द किया लेकिन प्रकाशचन्द्र और सत्यनारायण-इन दोनों ने मुझे एक अजीब चक्कर में डाल रखा था। एकाएक मेरी दृष्टि कोने में रखे हुए ग्रामोफोन पर पड़ी। सोचा, एक-आध रिकॉर्ड बजाऊँ तो समय कटे। ग्रामोफोन खोला और खोलने के साथ ही चौंककर पीछे हटा।

अन्दर, ऊपरवाले ढकने के कोने में एक कागज चिपका हुआ था जिस पर लिखा था, 'ख्यालीराम' । वहाँ से हटा, हारमोनियम बजाने की इच्छा हुई। धौंकनी में एक कागज था, जिस पर लिखा था-'भूटासिंह ।' चुपके से लौटा, कपड़े पहने; लेकिन जूता पलंग के नीचे चला गया था। उसे उठाने के लिए नीचे झुका-उफ् ! पाए में पीछे की ओर एक कागज चिपका हुआ था, “मुहम्मद सिद्दीक ।'

अब तो मैंने कमरे की चीजों को गौर से देखना आरम्भ किया। सबमें एक-एक कागज चिपका हुआ और उस कागज पर एक-एक नाम-जैसे, 'विलियम डर्बी, 'पेस्टनजी सोराबजी बागलीवाला,' 'रामेन्द्रनाथ चक्रवर्ती', 'श्रीकृष्ण रामकृष्ण मेहता', 'रामायण टंडन', 'रामेश्वर सिंह' आदि-आदि।

उस निरीक्षण से थककर मैं बैठा ही था कि शशिबाला देवी बाथरूम से निकलीं। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा-“परमेश्वरी बाबू ! आज बड़ी देर से सोकर उठे।”

मैंने सर झुकाए उत्तर दिया-“सोकर उठे हुए तो बड़ी देर हो गई। इस बीच में मैंने एक अनुचित काम कर डाला, मुझे क्षमा करोगी ?”

मेरे पास आकर और मेरा हाथ पकड़ते हुए उन्होंने कहा-“मैं तुम्हारी हूँ, मुझसे क्यों क्षमा माँगते हो।”

“फिर भी क्षमा माँगना मैं आवश्यक समझता हूँ। एक बात पूछूँ, सच-सच बतलाओगी ?”

“तुमसे झूठ बोलने की मैंने कल्पना तक नहीं की है !”

“नहीं, वचन दो कि सच-सच बतलाओगी !”

मेरे गले में हाथ डालते हुए शशिबाला ने कहा-“मैं वचन देती हूँ।”

मैंने कहा-“मैंने तुम्हारे कमरे को प्रथम बार, आज पूरी तरह से देखा है, और वह भी तुम्हारी अनुपस्थिति में। मैं जानता हूँ कि मुझे ऐसा न करना चाहिए था, पर उत्सुकता ने मुझ पर विजय पाई। उसने मुझे नीचे गिराया। हाँ, मैंने तुम्हारे कमरे की सब चीजों को देखा, बड़े ध्यान से। पर एक विचित्र बात है, हरएक चीज पर एक कागज चिपका हुआ है जिस पर एक पुरुष का नाम लिखा है। अलग-अलग चीजों पर अलग-अलग पुरुषों के नाम लगे हैं। इस रहस्य को लाख प्रयत्न करने पर भी मैं नहीं समझ सका। अब मैं तुमसे ही इस रहस्य को समझना चाहता हूँ।”

शशिबाला देवी मुस्कुरा रही थीं, उन्होंने धीरे से कोमल स्वर में कहा-“परमेश्वरी बाबू, यह रहस्य जैसा है वैसा ही रहने दो-उस रहस्य का चुप मुझसे न समझो। तुम इस रहस्य को समझकर दुखी हो जाओगे और बहुत सम्भव है इसे जानकर तुम नाराज भी हो जाओ।”

“नहीं, मैं दुखी न होऊँगा और न नाराज ही होऊँगा।”

“अच्छा, तुम मुझे वचन दो ।”

“मैं वचन देता हूँ।"

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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