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आवारे भाग 1

10 अगस्त 2022

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कुछ लोग दार्शनिक होते हैं, कुछ लोग दार्शनिक दिखते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो दार्शनिक हो वह दार्शनिक न दिखे, या जो दार्शनिक दिखे वह दार्शनिक न हो, लेकिन आमतौर से होता यही है कि जो दार्शनिक होता है वह दार्शनिक दिखता नहीं है, और जो दार्शनिक दिखता है वह दार्शनिक होता नहीं हैं। रामगोपाल जिस समय बंबई नगर के दादर मुहल्ले के एक ईरानी होटल में गरमी की दोपहरी में बिजली के पंखे के नीचे एक प्याला चाय के साथ पावरोटी का टुकड़ा गले के नीचे उतारकर अपनी भूख शांत करने की कोशिश कर रहा था उस समय एक अच्छा-खासा दार्शनिक दिख रहा था।

बाल बिखरे हुए मत्थे पर शिकन, आँखों में चिंता की झलक, और बैठने के ढंग में एक विवशता से भरी लापरवाही। लेकिन अगर कोई उस समय रामगोपाल से कह देता कि वह दार्शनिक है तो यकीनी तौर से झुँझलाहट के साथ यही कहता, "आपकी बला से!" और फिर वह बिना दूसरा शब्द कहे अपने काम पर जुट जाता।

पावरोटी को गले के नीचे उतारने में रामगोपाल को मेहनत पड़ रही थी, और शायद सुस्ताने के खयाल से उसने अपना पर्स निकाला। दस-दस रुपए के पंद्रह नोट, गिलट के सात रुपए और एक अठन्नी और तीन इकन्नियाँ - इतनी जमा-पूँजी अभी उस पर्स में मौजूद थी।

इसके अलावा कुछ सिफारिशी चिठि्ठयाँ जिन्हें निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचाने के लिए उसने बंबई के कई फिल्म स्टूडियो के दर्जनों चक्कर लगाए लेकिन फाटक के पठान दरबानों ने उसे किसी हालत में अंदर न घुसने दिया और इसलिए अभी तक वे चिठि्ठयाँ उन स्थानों में न पहुँच सकीं, कुछ पते जो उसने रास्ते चलते हुए कुछ खास महत्वपूर्ण आदमियों की मुलाकात की यादगार में दर्ज कर लिए थे और छपे हुए करीब दस-बारह विजिटिंग कार्ड। रामगोपाल ने अपने पर्स की हरएक चीज को निकाला। जो गिनने की थीं उन्हें गिना, जो देखने की थीं, उन्हें देखा और जिन पर उसे सोचना था उन पर सोचना भी आरंभ कर दिया। लेकिन सोचने का अभ्यास न होने के कारण उसने पर्स अपनी जेब के हवाले करके फिर पावरोटी को गले के नीचे उतारने की कोशिश आरंभ कर दी।

"अरे, यह तो रामगोपाल मालूम होते हैं।" "हम लोगों को क्यों देखेंगे - अकेले -अकेले चाय पी रहे हैं।" रामगोपाल ने घूमकर देखा, सिंह और पांडे रामगोपाल की मेज की ही तरफ बढ़ रहे थे। रामगोपाल को मुस्कुराना पड़ा, "आओ भाई!" और यह कहकर उसने होटल ब्वॉय को आवाज दी, "दो प्याले चाय!" "कहो भाई, बहुत दिनों से दिखे नहीं, कहो कोई काम-वाम मिल गया है क्या?" बैठते हुए सिंह ने पूछा। "नहीं यार - अभी तक तो नहीं मिला, लेकिन उम्मीद पूरी है!" रामगोपाल ने जरा रूककर कहा, "वहाशमा कंपनी के डाइरेक्टर को तो जानते हो - अरे वही मिस्टर कमानी! कल शाम को उनसे मुलाकात हो गई थी - बड़ी तपाक के साथ मिले, गले में हाथ डाल दिया, बोले, "तुम्हें अगली पिक्चर में विलेन का काम दूँगा। वादा कर लिया है!"

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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10 अगस्त 2022
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रामगोपाल को एक दिन नौकरी मिली, दूसरे दिन उसकी नौकरी छूट गई। कल एक हीरोइन मिली जिसके साथ में रहकर उसने लखपती होने के सपने बनाए थे, आज वह हीरोइन हाथ से निकल गई। उसने जेब से अपना पर्स निकाला - अब उसमें क

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चाय का प्याला मैंने होंठों से लगाया ही था कि मुझे मोटर का हार्न सुनाई पड़ा। बरामदे में निकल कर मैंने देखा, चौधरी विश्वम्भरसहाय अपनी नई शेवरले सिक्स पर बैठे हुए बड़ी निर्दयता से एलेक्ट्रिक हार्न बजा रह

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जिस समय मैंने कमरे में प्रवेश किया, आचार्य चूड़ामणि मिश्र आंखें बंद किए हुए लेटे थे और उनके मुख पर एक तरह की ऐंठन थी, जो मेरे लिए नितांत परिचित-सी थी, क्‍योंकि क्रोध और पीड़ा के मिश्रण से वैसी ऐंठन उन

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