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भाग 2

10 अगस्त 2022

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युवती ने पाँच रुपए का नोट मियाँ राहत को देते हुए कहा-“हाँ, अभी हाल में ही मोटर चलानी सीखी है। लो, अपने बचने की खैरात बॉँट देना।”

अपने हाथ हटाकर जेब में डालते हुए मियाँ राहत ने अपना मुँह फेर लिया--“मिस साहब, मेरी क्या ? मैं तो आप लोगों का गुलाम हूँ, आप लोगों पर अपनी जान न्यौछावर करने में भी मैं फख्र समझूँगा। आप ही, अपनी इस ख़ुशकिस्मती पर कि इस चौराहे पर मैं था, यह खैरात बाँट दीजिएगा।”

वह युवती मुस्कुराती हुई चल दी। मियाँ राहत ने उसे झुककर सलाम किया, इसके बाद उन्होंने अपनी नोटबुक और पेंसिल उठाई। मैंने पूछा-“मियाँ, तुमने इनका चालान क्‍यों नहीं किया ?”

मियां राहत बोले-“क्या करूँ बाबू साहब, दिल गवाही नहीं देता। इन परीजादों की तो परस्तिश करनी चाहिए, और आप चालान करने की बात कहते हैं,” इतना कहकर मियाँ राहत और कोने में खिसल गए, और नोट-बुक तथा पेंसिल का झगड़ा सुलझाने लगे। मैं वहाँ से चल दिया, पर चलते-चलते मुझे ये दो पंक्तियाँ सुनाई पड़ीं, जो शायद मियाँ राहत ने उसी समय बनाकर नोटबुक में दर्ज की थी :

किसी हसीन की मोटर से दब के मर जाना

ये लुत्फ यार, हमारे नसीब ही में न था।

न जाने क्‍यों उस दिन के बाद से मेरे हृदय में मियाँ राहत के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई। मियाँ राहत मेरे यहाँ प्रायः आया करते थे और घंटों मुझे अपनी कविता सुनाते थे। मैं उनकी कविता समझता भी था, और उनकी काफी दाद देता था।

इस घटना को हुए दो मास हो गए थे। सत्याग्रह-संग्राम जोर से चल रहा था। कई दिनों से मियाँ राहत मेरे यहाँ न आए थे। एक दिन शाम के वक्‍त मैं बरामदे में बैठा हुआ एक किताब पढ़ रहा था कि मियाँ राहत आए। उनकी मुद्रा देखकर मैं घबरा गया-आँखें डबडबाई हुईं, चेहरा पीला और पैर लड़खड़ा रहे थे। मैंने पूछा-“मियाँ राहत ! खैरियत तो है ? यह तुम्हारी क्या हालत, कया बीमार तो नहीं रहे ?”

कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा-“बाबू साहब ! उफ्‌ बाबू साहब !” इसके बाद वह लगातार ठंडी सांस भरने लगे।

मैं वास्तव में घबरा गया। मैंने पूछा-“क्या कुछ तबीयत खराब है ?”

“नहीं,” मियाँ राहत ने एक ठंडी साँस ली।

“तुम्हारे बीवी-बच्चे तो अच्छी तरह हैं ?”

“हाँ,” मियाँ राहत ने फिर एक ठंडी साँस ली।

“अरे भाई, बतलाते क्यों नहीं कि क्या हुआ ?”

मियाँ राहत ने बहुत करुण स्वर में आरम्भ किया-“बाबू साहब, उस दिन की बात तो आपको याद है, जिस दिन मैं मोटर से दबते-दबते बचा था।”

“हाँ-हाँ। भला, उस दिन की बात मैं भूल सकता हूँ !”

“बाबू साहब, उस दिन जो मिस साहब मोटर चला रही थीं, वह कांग्रेस में काम करती हैं !”

“हाँ, यह तो मैं जानता हूँ। उनका नाम सुशीलादेवी है न ?”

"हैं बाबू साहब ! यही नाम है। आज वह गिरफ्तार हो गईं।”

“तो फिर इससे क्‍या ?”

“क्या बतलाऊँ बाबू साहब ! मुझे भी दारोगा साहब के साथ उन्हें गिरफ्तार करने के लिए जाना पड़ा था,” मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि मियाँ राहत रोनेवाले हैं।

थोड़ी देर तक चुप रहने के याद मियौँ राहत ने फिर कहा-“बाबू साहब ! यह सरकारी नौकरी बड़ी खराब है। इसमें अपनी रूह को चाँदी के चन्द टुकड़ों पर बेच देना पड़ता है। जानते हैं बाबू साहब, आज मैंने अपनी रूह का गला घोंटकर कितना बड़ा गुनाह किया ?”

मैंने कहा-“मियाँ राहत ! इस सोच-विचार से कुछ फायदा नहीं। तुम नौकर हो, तुमने अपना फर्ज अदा किया। इसी के लिए तो तुम तनख्वाह पाते हो !”

मियाँ राहत चिल्ला उठे-“मैं यह तनख्वाह नहीं चाहता, इस गुलामी से मैं आजिज आ गया हूँ।”

मैंने देखा, मियाँ राहत की भावुकता जोरों के साथ उमड़ी हुई है, और रंग बिगड़ा हुआ है।

मैंने कहा-'“मियाँ, तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं। उनका पेट भरना तुम्हारा फर्ज है। उनसे भी कभी पूछा है कि वे तनख्वाह चाहते हैं या नहीं। जाओ, अपना काम करो ।”

बीवी और बच्चों का नाम सुनते ही मियाँ राहत की उमड़ती हुई भावुकता पर ब्रेक लग गया। “क्या करूँ बाबू साहब, कुछ समझ में नहीं आता।” इस बार उन्होंने एक बहुत गहरी साँस ली, और उनकी आँख से दो आँसू टपक पड़े।

दूसरे दिन शाम के समय जब मैं काम से लौट रहा था, तो मियां राहत के मकान के सामने से निकला। वहाँ जो दृश्य देखा वह जीवन-भर कभी न भूलूँगा। मियाँ राहत जमीन पर सिर झुकाए बैठे थे और उनकी बीवी उनके सिर पर बिना गिने हुए तड़ातड़ चप्पलें लगा रही थी। बीवी रो-रोकर कह रही थी-“निगोड़ा, कलमुँहा कहीं का। नौकरी छोड़ आया, हम लोगों को भूखा मारने के लिए। ले, नौकरी छोड़ने का मजा ले !”

मियाँ राहत की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे, और वह यह शेर बेर-बेर गा-गाकर पढ़ रहे थे :

इश्क ने हमको निकम्मा कर दिया;

वरना हम भी आदमी थे काम के।

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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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