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भाग 9

10 अगस्त 2022

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रामगोपाल को एक दिन नौकरी मिली, दूसरे दिन उसकी नौकरी छूट गई। कल एक हीरोइन मिली जिसके साथ में रहकर उसने लखपती होने के सपने बनाए थे, आज वह हीरोइन हाथ से निकल गई। उसने जेब से अपना पर्स निकाला - अब उसमें कुल जमा-पूँजी पैंतीस रुपए रह गई थी।

पांडे ने मैगजीन रख दी। उसने रामगोपाल से पूछा, "क्यों, बड़े चुप हो? क्या बात है?" सिंह ने उत्तर दिया, "आज इनकी नौकरी छूट गई।" छबीलदास, जो अभी तक सिसकियाँ भर रहा था, चौंककर बैठ गया, "अच्छा हुआ। इन साले दगाबाजों के साथ होगा ही क्या? इस हाथ ले, उस हाथ दे।" और यकीनी तौर से छबीलदास का क्रोध और दु:ख ७५ प्रतिशत गायब हो गया था।

रामगोपाल से अब न रहा गया, वह उठ बैठा और उसने कहा, "अब जो किसी साले ने गाली दी तो मैं उसका मुँह तोड़ दूँगा।" मामला संगीन हो रहा था - वर्मा ने यह देखा और उठ बैठा। "आखिर मामला क्या है?" सिंह ने कहा, "आज रामगोपाल को सेवा फिल्म कंपनी से जवाब मिल गया - सो ये झल्लाए हुए हैं। लेकिन छबीलदास आज क्यों इतने क्रोधित हो गए - यह समझ में नहीं आता।" "वह मैं बतला दूँ।" वर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, "वह औरत - वही - क्या नाम है उसका - वह आज एक आदमी के साथ - शायद उसका नाम व्रती है - पूना गई है, साथ में मेरे पंजाबवाले सेठ भी थे जो उस कंपनी में रुपया लगा रहे हैं।" अब वर्मा से न रहा गया, वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। "पंजाबवाले सेठ के पास पैसा है - वह पैसा खर्च तो होना ही चाहिए।"

पांडे उठा - उसने छबीलदास से कहा, "इसी बात पर नाराज हो गए? अरे भाई, एक दफा तुम्हें छोड़कर चली गई तो फिर अब वह फिर से तुम्हारी कैसे हो सकती थी - भूल जाओ उसे।" उधर सिंह रामगोपाल से कह रहा था, "ऐसी नौकरियाँ मिलेंगी और छूटेंगी - इस पर अफसोस करने की क्या बात है?" और पांडे और सिंह ने मिलकर छबीलदास और रामगोपाल से हाथ मिलवा दिया।

वर्मा ने एक-एक सिगरेट उन लोगों को दी - कमरे में सिगरेट का धुआँ भर गया। उस एक छोटे-से कमरे में भेड़ों की तरह रहनेवाले वे पाँचों युवक लेटे थे और सिगरेट पी रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। भावना और चेतना से शून्य। और धीरे-धीरे वह पाँचो युवक सो गए सुबह उठकर फिर नित्य की तरह बेकारी, गैर-जिम्मेदारी की जिंदगी बिताने के लिए।

पुल के बीचोंबीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बाँके रुके। दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा। फिर दोनों बाँकों की लाठियाँ उठीं, और दाहिने हाथ से बाएँ हाथ में चली गईं।

इस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्‍ताद!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्‍ताद!"

इस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया। और दोनों के पंजे गुँथ गए।

दोनों बाँकों के शागिर्दों ने नारा लगाया - "या अली !"

फिर क्‍या था! दोनों बाँके जोर लगा रहे हैं; पंजा टस-से-मस नहीं हो रहा है। दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे।

इतने में इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, गजब के कस हैं!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, बला का जोर है !"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है।"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवाँ मर्द मिला!"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्‍हारे जैसे बहादुर आदमी का खून करूँ!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्‍हारे जैसे शेरदिल आदमी की लाश गिराऊँ!"

थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए; पंजा गुँथा हुआ, टस-से-मस नहीं हो रहा है।

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, झगड़ा किस बात का है?"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, यही सवाल मेरे सामने है!"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, पुल के इस तरफ के हिस्‍से का मालिक मैं!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, पुल के इस तरफ के हिस्‍से का मालिक मैं!"

और दोनों ने एक साथ कहा - "पुल की दूसरी तरफ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!"

दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े। छाती फुलाए हुए दोनों बाँके अपने शागिर्दों से आ मिले। बिजली की तरह यह खबर फैल गई कि दोनों बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई।

इक्‍केवाले को पैसे देकर मैं वहाँ से पैदल ही लौट पड़ा क्‍योंकि देर हो जाने के कारण नख्‍खास जाना बेकार था।

इस पारवाला बाँका अपने शागिर्दों से घिरा चल रहा था। शागिर्द कह रहे थे - "उस्‍ताद, इस वक्‍त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं।" - "उस्‍ताद हम सब-के-सब अपनी-अपनी जान दे देते!" - "लेकिन उस्‍ताद, गजब के कस हैं।"

इतने में किसी ने बाँके से कहा - "मुला स्‍वाँग खूब भरयो!"

बाँके ने देखा कि एक लंबा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्‍कुरा रहा है।

उस वक्‍त बाँके खून का घूँट पीकर रह गए। उन्‍होंने सोचा - भला उस्‍ताद की मौजूदगी में उन्‍हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?

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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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