पुल के बीचोंबीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बाँके रुके। दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा। फिर दोनों बाँकों की लाठियाँ उठीं, और दाहिने हाथ से बाएँ हाथ में चली गईं।
इस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्ताद!"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्ताद!"
इस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया। और दोनों के पंजे गुँथ गए।
दोनों बाँकों के शागिर्दों ने नारा लगाया - "या अली !"
फिर क्या था! दोनों बाँके जोर लगा रहे हैं; पंजा टस-से-मस नहीं हो रहा है। दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे।
इतने में इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, गजब के कस हैं!"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, बला का जोर है !"
इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है।"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवाँ मर्द मिला!"
इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे बहादुर आदमी का खून करूँ!"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे शेरदिल आदमी की लाश गिराऊँ!"
थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए; पंजा गुँथा हुआ, टस-से-मस नहीं हो रहा है।
इस पारवाले बाँके ने कहा- "उस्ताद, झगड़ा किस बात का है?"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, यही सवाल मेरे सामने है!"
इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं!"
उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्ताद, पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं!"
और दोनों ने एक साथ कहा - "पुल की दूसरी तरफ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!"
दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े। छाती फुलाए हुए दोनों बाँके अपने शागिर्दों से आ मिले। बिजली की तरह यह खबर फैल गई कि दोनों बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई।
इक्केवाले को पैसे देकर मैं वहाँ से पैदल ही लौट पड़ा क्योंकि देर हो जाने के कारण नख्खास जाना बेकार था।
इस पारवाला बाँका अपने शागिर्दों से घिरा चल रहा था। शागिर्द कह रहे थे - "उस्ताद, इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं।" - "उस्ताद हम सब-के-सब अपनी-अपनी जान दे देते!" - "लेकिन उस्ताद, गजब के कस हैं।"
इतने में किसी ने बाँके से कहा - "मुला स्वाँग खूब भरयो!"
बाँके ने देखा कि एक लंबा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है।
उस वक्त बाँके खून का घूँट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा - भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?