आवाज जो हुई तो महरी झाड़ू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्थल पर उपस्थित हो गईं। रामू की बहू सर झुकाए हुए अपराधिनी की भाँति बातें सुन रही है।
महरी बोली - "अरे राम! बिल्ली तो मर गई, माँजी, बिल्ली की हत्या बहू से हो गई, यह तो बुरा हुआ।"
मिसरानी बोली - "माँजी, बिल्ली की हत्या और आदमी की हत्या बराबर है, हम तो रसोई न बनावेंगी, जब तक बहू के सिर हत्या रहेगी।"
सासजी बोलीं - "हाँ, ठीक तो कहती हो, अब जब तक बहू के सर से हत्या न उतर जाए, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू, यह क्या कर डाला?"
महरी ने कहा - "फिर क्या हो, कहो तो पंडितजी को बुलाय लाई।"
सास की जान-में-जान आई - "अरे हाँ, जल्दी दौड़ के पंडितजी को बुला लो।"
बिल्ली की हत्या की खबर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गई - पड़ोस की औरतों का रामू के घर ताँता बँध गया। चारों तरफ से प्रश्नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाए बैठी।
पंडित परमसुख को जब यह खबर मिली, उस समय वे पूजा कर रहे थे। खबर पाते ही वे उठ पड़े - पंडिताइन से मुस्कुराते हुए बोले - "भोजन न बनाना, लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्ली मार डाली, प्रायश्चित होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।"
पंडित परमसुख चौबे छोटे और मोटे से आदमी थे। लंबाई चार फीट दस इंच और तोंद का घेरा अट्ठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूँछ बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुँचती हुई।
कहा जाता है कि मथुरा में जब पंसेरी खुराकवाले पंडितों को ढूँढ़ा जाता था, तो पंडित परमसुखजी को उस लिस्ट में प्रथम स्थान दिया जाता था।
पंडित परमसुख पहुँचे और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी - सासजी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्नू की दादी और पंडित परमसुख। बाकी स्त्रियाँ बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं।
किसनू की माँ ने कहा - "पंडितजी, बिल्ली की हत्या करने से कौन नरक मिलता है?"
पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा - "बिल्ली की हत्या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महूरत भी मालूम हो, जब बिल्ली की हत्या हुई, तब नरक का पता लग सकता है।"
"यही कोई सात बजे सुबह" - मिसरानीजी ने कहा।
पंडित परमसुख ने पत्रे के पन्ने उलटे, अक्षरों पर उँगलियाँ चलाईं, माथे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुँधलापन आया, माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्वर गंभीर हो गया - "हरे कृष्ण! हे कृष्ण! बड़ा बुरा हुआ, प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में बिल्ली की हत्या! घोर कुंभीपाक नरक का विधान है! रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ।"
रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गए - "तो फिर पंडितजी, अब क्या होगा, आप ही बतलाएँ!"
पंडित परमसुख मुस्कुराए - "रामू की माँ, चिंता की कौन सी बात है, हम पुरोहित फिर कौन दिन के लिए हैं? शास्त्रों में प्रायश्चित का विधान है, सो प्रायश्चित से सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
रामू की माँ ने कहा - पंडितजी, इसीलिए तो आपको बुलवाया था, अब आगे बतलाओ कि क्या किया जाए!"
"किया क्या जाए, यही एक सोने की बिल्ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाय। जब तक बिल्ली न दे दी जाएगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा। बिल्ली दान देने के बाद इक्कीस दिन का पाठ हो जाए।"
छन्नू की दादी बोली - "हाँ और क्या, पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्ली अभी दान दे दी जाय और पाठ फिर हो जाय।"
रामू की माँ ने कहा - "तो पंडितजी, कितने तोले की बिल्ली बनवाई जाए?"
पंडित परमसुख मुस्कुराए, अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा - "बिल्ली कितने तोले की बनवाई जाए? अरे रामू की माँ, शास्त्रों में तो लिखा है कि बिल्ली के वजन-भर सोने की बिल्ली बनवाई जाय; लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म-कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सो रामू की माँ, बिल्ली के तौल-भर की बिल्ली तो क्या बनेगी, क्योंकि बिल्ली बीस-इक्कीस सेर से कम की क्या होगी। हाँ, कम-से-कम इक्कीस तोले की बिल्ली बनवा के दान करवा दो, और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा!"
रामू की माँ ने आँखें फाड़कर पंडित परमसुख को देखा - "अरे बाप रे, इक्कीस तोला सोना! पंडितजी यह तो बहुत है, तोला-भर की बिल्ली से काम न निकलेगा?"
पंडित परमसुख हँस पड़े - "रामू की माँ! एक तोला सोने की बिल्ली! अरे रुपया का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं!"