वर्मा ने उसी प्रकार गंभीरता से उत्तर दिया, "जीवन-मरण का प्रश्न है - तब तो तुम्हें किसी - न - किसी प्रकार रूपयों का इंतजाम करना ही होगा। मेरे पास तो इस समय एक पैसा नहीं है और अगर एक हफ्ता ठहर सकते तो पच्चीस-पचास-सौ जितना माँगते दे सकता था।" छबीलदास को ऐसा लगा मानो उसका हृदय बैठा जा रहा है; वह अपने दिल को सम्हालने में व्यस्त हो गया और वर्मा कह रहे थे, "देखो, मुझे कल पंद्रह रुपए की सख्त जरूरत है। एक सेठ को मैंने लंच के लिए बुलाया है - उससे बहुत बड़े बिजनेस की उम्मीद है। पच्चीस रुपए का तुम्हें इंतजाम करना ही है क्योंकि यह तुम्हारे जीवन-मरण का प्रश्न है, तो जैसे पच्चीस वैसे चालीस। कल सुबह तक पंद्रह रुपए मुझे दे देना - एक हफ्ते में मैं तुम्हें पंद्रह की जगह डेढ़ सौ रुपए वापस कर दूँगा।" रामगोपाल, वर्मा की यह बात सुनकर ठहाका मारकर हँस पड़ा।
वर्मा ने रामगोपाल के हँसने पर कोई ध्यान नहीं दिया। छबीलदास रामगोपाल की ओर घूमा, "आपका परिचय?" छबीलदास ने पूछा। छबीलदास से रामगोपाल का कोई परिचय न कराया गया था क्योंकि छबीलदास उस दिन सुबह से ही अपने मामलों में बुरी तरह उलझा हुआ था। "जी -मैं भी इसी कमरे में आज से रहने लगा हूँ - और आपका पड़ोसी हुआ। मैंने पांडे जी से आपकी दास्तान सुनी- काफी दिलचस्प थी।" "आपकी बला से।" छबीलदास ने रूखाई से उत्तर दिया। छबीलदास की रूखाई का रामगोपाल पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इस समय वह छबीलदास से मित्रता बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।
रामगोपाल सुलझे हुए दिमाग का आदमी था। एक साधारण कुल में बहुत बड़ी आकांक्षाएँ लेकर वह पैदा हुआ था, और उसके जीवन में नेकी, सत्य, ईमानदारी यह सब उसकी सुविधाओं पर अवलंबित थे। शायद इतना अधिक महत्वाकांक्षी और अवसरवादी होने के कारण वह आज तक न अपना कोई मित्र बना सका था और न कहीं टिक सका था। उसके रिश्तेदार उससे घबराते थे, जो स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक थे उन्होंने साफ-साफ उससे उनके घर में न आने को कह दिया था, जो शरीफ और मुहब्बतवाले थे वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते थे कि रामगोपाल को जबर्दस्ती उनका घर छोड़ना पड़े।
ऐसा नहीं कि रामगोपाल को घर में पैसे की कोई तंगी रही हो। उसके पिता ने उसे नौकरी कर लेने को बहुत जोर दिया, मैट्रिकुलेशन-पास रामगोपाल को सौ-सवा सौ की नौकरी -बड़ी बात थी; लेकिन रामगोपाल की निगाह लाखों पर थी। उसने सुन रखा था कि सिनेमा लाइन एक ऐसी लाइन हैं जहाँ आदमी आसानी से लखपति या करोड़पति बन सकता है; और इसलिए पिता से अनुनय-विनय करके तथा एक लंबी रकम लेकर वह बंबई के लिए रवाना हो गया था।
बंबई में काफी चक्कर काटने के बाद एक बात उसकी समझ में और आई। अगर किसी युवक के साथ एक सुंदरी स्त्री है तो उसे आसानी से सफलता प्राप्त हो सकती है। लेकिन रामगोपाल को सुंदरी स्त्री कहाँ से मिलती। और आज छबीलदास की कहानी सुनकर एकाएक उनके दिमाग में यह बात आई - "क्या भगवान ने मुझे अनायास इस कमरे में इन लोगों के साथ मेरी सहायता करने के लिए भेज दिया है?" रामगोपाल ने कहा, "अजीब दुनिया हैं! दूसरों से हमदर्दी करो, उनकी सहायता करने की सोचो - लेकिन लोग इंसानियत से बात तक नहीं करते - जाने दीजिए, गलती हो गई।"