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इंस्टालमेंट भाग 1

10 अगस्त 2022

22 बार देखा गया 22

चाय का प्याला मैंने होंठों से लगाया ही था कि मुझे मोटर का हार्न सुनाई पड़ा। बरामदे में निकल कर मैंने देखा, चौधरी विश्वम्भरसहाय अपनी नई शेवरले सिक्स पर बैठे हुए बड़ी निर्दयता से एलेक्ट्रिक हार्न बजा रहे हैं। मुझे देखते ही वह "हालो, गुड ईवनिंग, सुरेश!" - कहकर कार से उतर पड़े।

"गुड ईवनिंग, चौधरी साहब! अभी चाय पीने बैठा ही था। बड़े मौके से आए।"

चौधरी विश्वम्भरसहाय गठे बठन के लम्बे-से युवक थे। उम्र करीब पच्चीस वर्ष की थी। रंग साँवला, चेहरा लम्बा और मुख की बनावट बहुत सुन्दर। बाल बीच से खिंचे हुए, कलम कान के नीचे तर और दाढ़ी-मूँछ साफ। चेहरे पर पाउडर और क्रीम की एक हलकी-सी अस्पष्ट तह। वह धारीदार सिल्क की शेरवानी पहने थे और उनकी टोपी, जिसे वह हाथ में लिये थे, उसी कपड़े की थी। गरारेदार पाजामा; पैर से मोजा नदारद, लेकिन पेटेण्ट लेदर का ग्रीशियन पम्प।

चौधरी विश्वम्भरसहाय के पिता चौधरी हरसहाय अवध के एक छोटे-मोटे ताल्लुकेदार थे। विश्वम्भरसहाय अपने पिता की एकमात्र सन्तान थे, लेकिन लड़ कर प्रयाग चले आए थे। पिता और पुत्र के स्वभाव में काफी समता होते हुए भी हलकी-हलकी बातों में आपस में गहरा मतभेद रहता था। चौधरी हरसहाय और चौधरी विश्वम्भरसहाय शराब में बराबर रुपया खर्च करते, लेकिन जहाँ पिता महुए के ठर्रे की सवा बोतल पी जाते थे, वहाँ पुत्र व्हिस्की के दो पेगों से सन्तुष्ट हो जाया करते थे। न पिता वेश्यागामी थे, न पुत्र। केवल, पिता रियासत की कुछ जवान बारिनों और चमारिनों पर दस-पन्द्रह रुपया महीना खर्च कर दिया करते थे, तो पुत्र नगर में 'सोसायटी गर्ल्स' की दावत पर तथा उनकी खेल-तमाशे दिखलाने में दस-पन्द्रह रुपया महीना खर्च कर दिया करते थे। पिता और पुत्र दोनों को ही राजनीति से रुचि थी, लेकिन जहाँ पिता अमन-सभा के सभापति थे, वहाँ पुत्र कभी-कभी खद्दर पहन कर काँग्रेस-मंच से व्याख्यान दिया करते थे।

परिणाम स्पष्ट था! एक दिन पुत्र ने पिता को बाग में भूसा भरने वाली कोठरी में बन्द कर दिया और गाँव में फिर वापस न आने की कसम खाकर शहर की राह पकड़ी। बारह घण्टे तक गुम रहने के कारण काफी छान-बीन करने के बाद चौधरी हरसहाय उस भूसेवाली कोठरी से बरामद किये गये।

अपने पुत्र की नालायकी पर चौधरी हरसहाय बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने अपना पिस्तौल निकाला। पति का यह उग्र रुप देखकर चौधराइन साहिबा, अर्थात चौधरी हरसहाय की पत्नी या चौधरी विश्वम्भर सहाय की माता ने स्वरों के साथ रोना आरम्भ किया। शायद पत्नी को अकेले रोना चौधरी साहब को बुरा लगा, इसलिए उन्होंने भी अपनी पत्नी के स्वर में अपना स्वर मिलाया। उसके बाद दोनों गले मिले।

प्रयाग आकर चौधरी विश्वम्भरसहाय ने सिविल लाइन्स में एक काटेज किराये पर ली। घर से चलते समय वह काफी रुपये साथ ले आए थे, फिर उनकी माता भी किसी न किसी प्रकार घर का खर्च काट-कूटकर दो-तीन सौ रुपया पुत्र को भेज दिया करती थी।

"यार सुरेश, तीन सौ रुपये आज शाम तक चाहिए। आज दिन भर शहर की गली-गली छान डाली, लेकिन कहीं इन्तजाम न हो सका। आखिर में हार कर तुम्हारा दरवाजा देखना पड़ा।"

मैं मुसकराया - "बस, इतनी-सी बात है! अभी लो!" चाय का प्याला चौधरी साहब के सामने बढ़ाते हुए मैंने कहा। कुछ रुककर मैंने फिर पूछा - "यार यह न पूछो!"

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्‍य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्‍य है, दुर्भाग्‍य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्‍च

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शशिबाला कुर्सी पर बैठ गई। “परमेश्वरी बाबू ! इस रहस्य में मेरी कमजोरी है और साथ ही मेरा हृदय है। ये सब चीजें मुझे अपने प्रेमियों से प्रेजेंट में मिली हैं। याद रखिएगा कि मैंने प्रत्येक प्रेमी से केवल एक

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कुछ लोग दार्शनिक होते हैं, कुछ लोग दार्शनिक दिखते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो दार्शनिक हो वह दार्शनिक न दिखे, या जो दार्शनिक दिखे वह दार्शनिक न हो, लेकिन आमतौर से होता यही है कि जो दार्शनिक होता है वह दा

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"कहो भाई मुलाकात हुई?" पांडे ने पूछा। "हुई भी और नहीं भी हुई।" छबीलदास ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचकर उत्तर दिया। "यह तो पहेली बुझा रहे हो।" सिंह हँस पड़ा। "बात यह है कि जब मैंने उसके मकान में घंटी ब

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वसीयत भाग 1

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