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भाग 3

10 अगस्त 2022

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शशिबाला कुर्सी पर बैठ गई। “परमेश्वरी बाबू ! इस रहस्य में मेरी कमजोरी है और साथ ही मेरा हृदय है। ये सब चीजें मुझे अपने प्रेमियों से प्रेजेंट में मिली हैं। याद रखिएगा कि मैंने प्रत्येक प्रेमी से केवल एक वस्तु ही ली है। अब मेरे पास इतनी अधिक चीजें हो गई हैं कि हरएक प्रेमी का नाम याद रखना असम्भव है। चीजें नित्य के व्यवहार की हैं, इसलिए प्रत्येक प्रेमी की वस्तु पर मैंने उसका नाम लिख दिया है। इससे यह होता है कि जब कभी मैं उस वस्तु का व्यवहार करती हूँ, उस प्रेमी की स्मृति मेरे हृदय में जाग उठती है। क्या करूँ परमेश्वरी बाबू ! मेरा हृदय इतना निर्बल है कि मैं अपने प्रेमियों को नहीं भूलना चाहती, नहीं भूलना चाहती।”

“तुम्हरे पास कुल कितनी चीजें हैं ?” मैंने पूछा।

“सत्तानवे।”

“इतनी अधिक !”-आश्चर्य से मैं कह नहीं उठा बल्कि चिल्ला उठा।

“हाँ, इतनी अधिक !”-शशिबाला देवी का स्वर गम्भीर हो गया। “परमेश्वरी बाबू, इतनी अधिक ! मेरा विवाह नहीं हुआ, आप जानते हैं पर आप यह न समझिएगा कि मेरी विवाह करने की कभी इच्छा ही न थी। मैं सच कहती हैँ कि एक समय मेरी विवाह करने की प्रबल इच्छा थी। प्रत्येक व्यक्ति जो मेरे जीवन में आया भविष्य के सुख-स्वप्न पैदा करता आया, प्रत्येक व्यक्ति को मैंने भावी पति के रूप में देखा। पर क्या हुआ ? वह व्यक्ति मुझे प्रेजेंट दे सकता था, पर अपनी न बना सकता था। धीरे-धीरे मैं इसकी अभ्यस्त हो गई। एक रहस्यमय जीवन धीरे-धीरे मेरे वास्ते एक खेल हो गया। सोचती हूँ कि उन दिनों मैं कितनी भोली थी जब विवाह के लिए लालायित रहती थी, जब पत्रों में मैंने अपने विवाह के लिए विज्ञापन तक निकलवाए। पर हरएक आदमी गलती करता है, मैंने भी गलती की। अब बन्धन की कोई आवश्यकता नहीं है। जीवन एक खेल है, जिसका सबसे सुन्दर हृदय का खेल, नहीं भोग-विलास का खेल है और खुलकर खेलना ही हमारा कर्त्तव्य है। परमेश्वरी बाबू, यह मेरी स्मृति की कहानी है और मेरी स्मृति के रूप को तो आपने देखा ही है।”

“साधारण मनुष्यों के लिए यह ठीक हो सकता है,” कुछ हिचकिचाते हुए मैंने कहा।

“साधारण मनुष्यों के लिए ही क्‍यों ? आपका नम्बर अट्ठानवेवाँ होगा,” खिलखिलाकर हँसते हुए शशिबाला ने उत्तर दिया।

उस समय मैं न जाने क्‍यों दार्शनिक बन गया। जनाब ! मेरे जीवन में वैसे तो दर्शन में और मुझमें उतना ही फासला है जितना ज़मीन और आसमान में, पर शशिबाला की कहानी सुनकर मैं वास्तव में दार्शनिक बन गया। मैंने कहा-“हाँ, जीवन एक खेल है और तब तक जब तक हम खेल सकते हैं। अशक्त होने पर वही जीवन हमारे सामने एक भयानक और कुरूप समस्या बनकर खड़ा हो जाता है। तुम वर्तमान की सोच रही हो, मैं भविष्य की सोच रहा हूँ, दस वर्ष बाद की सोच रहा हूँ। उस समय तुम्हारे मुख पर झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, लोग तुम्हारे साथ खेलने की कल्पना तक न कर सकेंगे। और फिर-फिर से स्मृतियाँ तुम्हें सुखी बनाने के स्थान में तुम्हें काटने को दौड़ेंगी। तुम्हारे आगे-पीछे कोई है नहीं, अपने बनाव-सिंगार के कारण, तुम कुछ बचा भी न सकती होगी। तब इस खेल के खत्म हो जाने के बाद बुढ़ापा, दुर्बलता, भूख, बीमारी और-और गत-जीवन का पश्चात्ताप बाकी रह जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें वह चीज प्रेजेंट करूँगा जो उन दिनों तुम्हारे काम आवे। तुम्हारा संग्रह बहुमूल्य है, मैं वचन देता हूँ कि मैं दस वर्ष बाद तुम्हारे संग्रह को पाँच हजार रुपए में खरीद लूँगा। इस प्रकार ये अभिशापित स्मृति-चिह्न उस समय तुम्हारे सामने से हट जावेंगे जब तुम राम का भजन करोगी और भगवान के सामने जाने की तैयारी करोगी। साथ ही पाँच हजार रुपए से तुम बुढ़ापे के कष्टों को भी कम कर सकोगी ?”

मैंने परमेश्वरी से कहा-''और उसने तुम्हें नौकर द्वारा अपने कमरे से निकलवा नहीं दिया ?”

परमेश्वरी हँस पड़ा-“नहीं ।” उसने कुछ देर तक सोचा, फिर उसने कहा-“तुमने जो कुछ कहा उसमें मैं सब बातें ठीक नहीं मानती, पर इतना अवश्य मानती हूँ कि मैंनें अपने बुढ़ापे के लिए कोई इन्तजाम नहीं किया। इसलिए मैं तुम्हारे हाथ यह सब बेच दूँगी। कांट्रेक्ट साइन कर दो ।”-और मैंने कांट्रेक्ट साइन कर दिया। अभी दो वर्ष तो हुए ही हैं। परसों ही उसका पत्र आया है, जिसमें उसने लिखा है कि इस समय तक उसके पास एक सौ तेरह चीजें हो गई हैं।”

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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मुगलों ने सल्तनत बख्श दी भाग 1

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हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्‍य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्‍य है, दुर्भाग्‍य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्‍च

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हम लोगों का ध्यान अपनी सोने की अँगूठी की ओर, जिस पर मीने के काम में 'श्याम' लिखा था, आकर्षित करते हुए देवेन्द्र ने कहा-“मेरे मित्र श्यामनाथ ने यह आँगूठी मुझे प्रेजेंट की। जिस समय उसने यह अँगूठी प्रेजे

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आवारे भाग 1

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कुछ लोग दार्शनिक होते हैं, कुछ लोग दार्शनिक दिखते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो दार्शनिक हो वह दार्शनिक न दिखे, या जो दार्शनिक दिखे वह दार्शनिक न हो, लेकिन आमतौर से होता यही है कि जो दार्शनिक होता है वह दा

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भाग 3

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रामगोपाल को साथ लेकर जब पांडे और सिंह कमरे में पहुँचे, उस समय मिस्टर परमेश्वरीदयाल वर्मा अपनी हजामत बना रहे थे। एक ट्रंक और एक बिस्तर के साथ एक नए आदमी का कमरे में प्रवेश देखकर मिस्टर वर्मा चौंके, घूर

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भाग 4

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छबीलदास ने टाई गले से उतारकर वर्मा को दे दी और मिस्टर वर्मा सज-धजकर तैयार हो गए। अपने ट्रंक से उन्होंने स्टेट एक्सप्रेस का एक टिन निकाला और दस सिगरेटें जो वास्तव में स्टेट एक्सप्रेस की थीं, उन्होंने ए

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"कहो भाई मुलाकात हुई?" पांडे ने पूछा। "हुई भी और नहीं भी हुई।" छबीलदास ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचकर उत्तर दिया। "यह तो पहेली बुझा रहे हो।" सिंह हँस पड़ा। "बात यह है कि जब मैंने उसके मकान में घंटी ब

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चाय का प्याला मैंने होंठों से लगाया ही था कि मुझे मोटर का हार्न सुनाई पड़ा। बरामदे में निकल कर मैंने देखा, चौधरी विश्वम्भरसहाय अपनी नई शेवरले सिक्स पर बैठे हुए बड़ी निर्दयता से एलेक्ट्रिक हार्न बजा रह

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"क्या कहीं से कुछ फरमाइश तो नहीं हुई है... ?" मैंने भेदभरी दृष्टि डालते हुए पूछा। "नहीं, फरमाइश नहीं हुई है, इसका मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ।" सकपकाते हुए चौधरी साहब ने कहा। मैं ताड़ गया कि दाल में

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वसीयत भाग 1

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जिस समय मैंने कमरे में प्रवेश किया, आचार्य चूड़ामणि मिश्र आंखें बंद किए हुए लेटे थे और उनके मुख पर एक तरह की ऐंठन थी, जो मेरे लिए नितांत परिचित-सी थी, क्‍योंकि क्रोध और पीड़ा के मिश्रण से वैसी ऐंठन उन

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लोग मुझे कवि कहते हैं, और गलती करते हैं; मैं अपने को कवि समझता था और गलती करता था। मुझे अपनी गलती मालूम हुई मियाँ राहत से मिलकर, और लोगों को उनकी गलती बतलाने के लिए मैंने मियाँ राहत को अपने यहाँ रख छो

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