शशिबाला कुर्सी पर बैठ गई। “परमेश्वरी बाबू ! इस रहस्य में मेरी कमजोरी है और साथ ही मेरा हृदय है। ये सब चीजें मुझे अपने प्रेमियों से प्रेजेंट में मिली हैं। याद रखिएगा कि मैंने प्रत्येक प्रेमी से केवल एक वस्तु ही ली है। अब मेरे पास इतनी अधिक चीजें हो गई हैं कि हरएक प्रेमी का नाम याद रखना असम्भव है। चीजें नित्य के व्यवहार की हैं, इसलिए प्रत्येक प्रेमी की वस्तु पर मैंने उसका नाम लिख दिया है। इससे यह होता है कि जब कभी मैं उस वस्तु का व्यवहार करती हूँ, उस प्रेमी की स्मृति मेरे हृदय में जाग उठती है। क्या करूँ परमेश्वरी बाबू ! मेरा हृदय इतना निर्बल है कि मैं अपने प्रेमियों को नहीं भूलना चाहती, नहीं भूलना चाहती।”
“तुम्हरे पास कुल कितनी चीजें हैं ?” मैंने पूछा।
“सत्तानवे।”
“इतनी अधिक !”-आश्चर्य से मैं कह नहीं उठा बल्कि चिल्ला उठा।
“हाँ, इतनी अधिक !”-शशिबाला देवी का स्वर गम्भीर हो गया। “परमेश्वरी बाबू, इतनी अधिक ! मेरा विवाह नहीं हुआ, आप जानते हैं पर आप यह न समझिएगा कि मेरी विवाह करने की कभी इच्छा ही न थी। मैं सच कहती हैँ कि एक समय मेरी विवाह करने की प्रबल इच्छा थी। प्रत्येक व्यक्ति जो मेरे जीवन में आया भविष्य के सुख-स्वप्न पैदा करता आया, प्रत्येक व्यक्ति को मैंने भावी पति के रूप में देखा। पर क्या हुआ ? वह व्यक्ति मुझे प्रेजेंट दे सकता था, पर अपनी न बना सकता था। धीरे-धीरे मैं इसकी अभ्यस्त हो गई। एक रहस्यमय जीवन धीरे-धीरे मेरे वास्ते एक खेल हो गया। सोचती हूँ कि उन दिनों मैं कितनी भोली थी जब विवाह के लिए लालायित रहती थी, जब पत्रों में मैंने अपने विवाह के लिए विज्ञापन तक निकलवाए। पर हरएक आदमी गलती करता है, मैंने भी गलती की। अब बन्धन की कोई आवश्यकता नहीं है। जीवन एक खेल है, जिसका सबसे सुन्दर हृदय का खेल, नहीं भोग-विलास का खेल है और खुलकर खेलना ही हमारा कर्त्तव्य है। परमेश्वरी बाबू, यह मेरी स्मृति की कहानी है और मेरी स्मृति के रूप को तो आपने देखा ही है।”
“साधारण मनुष्यों के लिए यह ठीक हो सकता है,” कुछ हिचकिचाते हुए मैंने कहा।
“साधारण मनुष्यों के लिए ही क्यों ? आपका नम्बर अट्ठानवेवाँ होगा,” खिलखिलाकर हँसते हुए शशिबाला ने उत्तर दिया।
उस समय मैं न जाने क्यों दार्शनिक बन गया। जनाब ! मेरे जीवन में वैसे तो दर्शन में और मुझमें उतना ही फासला है जितना ज़मीन और आसमान में, पर शशिबाला की कहानी सुनकर मैं वास्तव में दार्शनिक बन गया। मैंने कहा-“हाँ, जीवन एक खेल है और तब तक जब तक हम खेल सकते हैं। अशक्त होने पर वही जीवन हमारे सामने एक भयानक और कुरूप समस्या बनकर खड़ा हो जाता है। तुम वर्तमान की सोच रही हो, मैं भविष्य की सोच रहा हूँ, दस वर्ष बाद की सोच रहा हूँ। उस समय तुम्हारे मुख पर झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, लोग तुम्हारे साथ खेलने की कल्पना तक न कर सकेंगे। और फिर-फिर से स्मृतियाँ तुम्हें सुखी बनाने के स्थान में तुम्हें काटने को दौड़ेंगी। तुम्हारे आगे-पीछे कोई है नहीं, अपने बनाव-सिंगार के कारण, तुम कुछ बचा भी न सकती होगी। तब इस खेल के खत्म हो जाने के बाद बुढ़ापा, दुर्बलता, भूख, बीमारी और-और गत-जीवन का पश्चात्ताप बाकी रह जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें वह चीज प्रेजेंट करूँगा जो उन दिनों तुम्हारे काम आवे। तुम्हारा संग्रह बहुमूल्य है, मैं वचन देता हूँ कि मैं दस वर्ष बाद तुम्हारे संग्रह को पाँच हजार रुपए में खरीद लूँगा। इस प्रकार ये अभिशापित स्मृति-चिह्न उस समय तुम्हारे सामने से हट जावेंगे जब तुम राम का भजन करोगी और भगवान के सामने जाने की तैयारी करोगी। साथ ही पाँच हजार रुपए से तुम बुढ़ापे के कष्टों को भी कम कर सकोगी ?”
मैंने परमेश्वरी से कहा-''और उसने तुम्हें नौकर द्वारा अपने कमरे से निकलवा नहीं दिया ?”
परमेश्वरी हँस पड़ा-“नहीं ।” उसने कुछ देर तक सोचा, फिर उसने कहा-“तुमने जो कुछ कहा उसमें मैं सब बातें ठीक नहीं मानती, पर इतना अवश्य मानती हूँ कि मैंनें अपने बुढ़ापे के लिए कोई इन्तजाम नहीं किया। इसलिए मैं तुम्हारे हाथ यह सब बेच दूँगी। कांट्रेक्ट साइन कर दो ।”-और मैंने कांट्रेक्ट साइन कर दिया। अभी दो वर्ष तो हुए ही हैं। परसों ही उसका पत्र आया है, जिसमें उसने लिखा है कि इस समय तक उसके पास एक सौ तेरह चीजें हो गई हैं।”