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भाग 2

10 अगस्त 2022

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पांडे हँस पड़ा, "तुम्हें विलेन और मुझे हीरो। मुझसे भी वादा किया था!" रामगोपाल चौंक पड़ा। उसे बड़ी आसानी से विलेन का पार्ट मिल सकता है, यही नहीं अगर कोई समझदार डायरेक्टर हो तो वह हीरो भी बना सकता है- इसका उसे पूरा यकीन था, लेकिन पांडे को जो आदमी हीरो बनाने की सोचे वह या तो पागल है या मजाक कर रहा है। उसने पांडे को फिर एक दफा गौर से देखकर कहा, "तुम्हें हीरो बनाने का वादा किया है सच कह रहो हो?" "अरे छोड़ो भी - गए हुए लोगों के वादों पर लड़ना-झगड़ना बेकार है!" सिंह ने इन दोनों की बात अधिक न बढ़े इसलिए कहा।

रामगोपाल का चेहरा उतर गया। सिंह की बात में तथ्य है, इस बात को उसने महसूस किया; एक बँधती हुई उम्मीद छूट गई। पांडे ने रामगोपाल के चेहरे की निराशा देख ली, उसने जरा मुलायमियत के साथ कहा, "इतना अफसोस करने की जरूरत नहीं। मुझे देखो, बंबई आए दो साल हो गए हैं लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली। पड़ा हूँ, बस उम्मीद पर।" रामगोपाल ने एक ठंडी साँस ली, "कब तक - कब तक इस तरह चलेगा। पास की रकम करीब-करीब खत्म हो चुकी थी, होटलवाले का बिल चढ़ रहा है - समझ में नहीं आता क्या करूँ।" पांडे ने कहा, "अगर मेरी सलाह मानो तो होटल छोड़ दो और एक कमरा किराए पर ले लो। जब तक कमरा न मिले तुम मेरे कमरे में रह सकते हो - अभी चार आदमी है, अब पाँच हो जाएँगे। वहाँ जी लग जाएगा, खर्चे की बचत हो जाएगी।"

रामगोपाल ने कुछ सोचा, "यार कहते तो ठीक हो। अभी होटल का तीन रूपया रोज दे रहा हूँ - नब्बे रुपए महीने की बचत बहुत काफी होती है।" "नब्बे की नहीं बल्कि अस्सी की, क्योंकि पांडे के कमरे में रहने पर तुम्हारा हिस्सा दस रुपए महीना आवेगा।" "अस्सी ही क्या कम है!" रामगोपाल ने मुस्कुराते हुए कहा। दिनभर के बाद उसके मुख पर यह पहली मुस्कराहट थी।

पांडे का पूरा नाम था रविशंकर पांडे। लखनऊ से बी.ए. पास करने के बाद जब उसके पिता एक जमींदार की लड़की के साथ दस हजार के लंबे दहेज पर उसकी शादी तै करा रहे थे, वह बिना कहे-सुने एक दिन बंबई के लिए रवाना हो गया इसलिए कि वह लड़की जिसके साथ उसकी शादी तै कराई जा रही थी, गँवार होने के साथ-साथ बदशक्ल थी। पांडे ने फिल्म काफी देखी थीं; और फिल्मों की सुंदरियों से मिलकर उनमें से किसी एक को अपनाकर अपने जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करना चाहता था। पांडे देखने-सुनने में बुरा न था, पैसे की भी उसके पिता के पास कोई खास कमी नहीं थी, और अपनी निजी योग्यता तथा प्रतिभा पर उसे विश्वास था।

बंबई आकर धीरे-धीरे उसे निराशाओं का सामना करना पड़ा और प्रत्येक निराशा के साथ उसका जोश ठंडा पड़ने लगा। न उसे प्रेमिका मिली और न उसे प्रतिभा और योग्यता के प्रदर्शन का मौका मिला। पास की रकम घटने लगी पिता ने अधिक पैसा देने से इन्कार कर दिया। इस उम्मीद पर कि हारकर पांडे को घर आना ही पड़ेगा। पर पिता शायद अपने पुत्र के जिद्दी स्वभाव को नहीं जानते थे। कदम उठकर पीछे नहीं पड़ता - सूरमा आगे बढ़ेगा नहीं तो मोर्चे पर खड़ा होकर अपनी जान दे देगा। पांडे भी कुछ ऐसे ही विचारों का था। बहुत दौड़-धूप करने पर एक फिल्म कंपनी में एक्स्ट्रा का काम मिल भी गया था, गोकि पैसे बहुत कम मिले थे। लिहाजा खर्च पूरा करने के लिए पांडे ने अपने कमरे में किराएदारों को बसा लिया था।

सिंह का पूरा नाम था जसवंतसिंह और वह आगरा जिले का रहनेवाला था। सिंह को गाने का बड़ा शौक था और उससे अधिक उसके आगरावाले मित्रों को विश्वास था कि अगर वह किसी फिल्म कंपनी में पहुँच जाए तो उसकी प्रतिभा चमक उठेगी और उसका भाग्य खुल जाएगा। रोज-रोज मित्रों की राय सुनते-सुनते सिंह की भी कुछ ऐसी ही राय हो गई थी। बाईस-तेईस साल का नवयुवक, दुनिया का उसे तजुर्बा न था। मित्रों ने दम-दिलासा देकर उसे बंबई लाद दिया। लेकिन बंबई आकर उसने देखा कि यहाँ हर जगह सिफारिश चलती है। कई जगह गया, अपने गाने सुनाए, लोगों ने उसकी तारीफ की लेकिन फिल्म कंपनी में जो काम न मिला सो न मिला। हाँ, एक-आध ट्यूशन उसे जरूर मिल गए और इस उम्मीद पर कि निकट भविष्य में उसे काम जरूर मिलेगा, उसे ट्यूशन से ही संतोष करना पड़ा। सिंह घर का खुशहाल न था। एक दिन जब वह एक फिल्म कंपनी के दरबान से गिड़गिड़ाकर भीतर घुसने का प्रयत्न कर रहा था, उसकी मुलाकात पांडे से हो गई। पांडे ने उसकी कहानी सुनी। कहानी सुनकर उसे दया आई उसने फुटपाथ पर या बरामदों में सोनेवाले उस युवक को अपने कमरे में आश्रय दिया। बाद में जब सिंह को कुछ कामकाज मिला तब सिंह पांडे के कमरे के किराए का एक भाग देने लगा।

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रचनाएँ
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यह कहानी हमारे उस सामाजिक मानसिकता पर प्रकाश डालती है, जहाँ सारे रिश्ते बंधन केवल स्वार्थ और धन की डोर से बंधे हैं ।धन-संपत्ति केंद्र-बिंदु में आने पर वही रिश्ते प्रिय लगने लगते हैं और धन-संपत्ति की वजह से ही रिश्तो में दरार भी आ जाती है। यह कहानी उस सामाजिक विडंबना को भी प्रदर्शित करती है ।भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखी गई एक अच्छी कहानी है। इस कहानी के अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार एवं आदतों से सर्वथा परिचित थे। वह उन पर विश्वास नहीं करते थे। यहाँ तक कि अपनी पत्नी जसोदा देवी पर भी उन्हें विश्वास नहीं था। उन्हें वसीयत सौंपने या अपना उत्तराधिकारी बनाने के योग्य भी उन्होंने उसे नहीं समझा और अपने परम शिष्य जनार्दन जोशी को वह वसीयत सौंप देते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद वही उसे परिवारवालों के सामने पढ़कर सुनाये।.
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