*मानव जीवन में अनेक प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होती रहती हैं इन जिज्ञासाओं को शांत करने का सुगम उपाय है सत्संग करना | बिना सत्संग के मनुष्य का विवेक जागृत नहीं होता परंतु सत्संग करना भी कोई सरल बात नहीं है | यह भी एक साधना है | बिना साधना के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता | बिना साधन के कोई भी साधना नहीं की जा सकती है | साधन भी दो प्रकार के बताए गए हैं | प्रथम तो होता है क्रियासाध्य और द्वितीय को भावसाध्य साधन कहा जाता है | इसमें भी क्रियायाध्य साधन की अपेक्षा भावसाध्य साधन अधिक मूल्यवान एवं श्रेष्ठ होता है और क्रियााध्य साधन की अपेक्षा भावसाध्य साधन सरल एवं सुगम भी है क्योंकि क्रिया में उद्योग करना पड़ता है , परिश्रम करना पड़ता है परंतु भाव में कुछ भी नहीं करना पड़ता | सिर्फ मन से मानना पड़ता है | मन में भाव बना लेने से ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है , इसीलिए भावसाध्य साधन को सुगम कहा जाता है | भाव भी दो प्रकार के होते हैं एक भाव कठिन होता है तो दूसरा सरल होता है | जैसे मन की एकाग्रता अर्थात मन में कुछ मन में कुछ भी स्फुरणा ना हो पाये , तो यह साधन कठिन है ! परंतु यदि मन में भाव प्रकट हो जाय कि भगवान मेरे हैं और मैं भगवान का हूं तो यह संबंध सुगमता से बनाया जा सकता है | अनेकों उपाय , व्रत , तप , यज्ञ , तीर्थ आदि करने से जो फल नहीं प्राप्त हो पाता वह फल मन में भाव प्रकट कर लेने से ही प्राप्त हो जाता है क्योंकि मन में भाव प्रकट हो जाने के बाद और कुछ करना ही नहीं पड़ता सिर्फ मन से अपना मानना ही साधना हो जाती है इसी को भावसाध्य साधन कहते हैं |*
*आज मनुष्य आधुनिकता के दौड़ में दौड़ रहा है , सत्संग में मनुष्य जाना ही नहीं चाहता है | जिज्ञासायें तो अनंत है और प्रत्येक हृदय में प्रकट होती रहती हैं परंतु मनुष्य उसका समाधान पाने के लिए सत्संग का सहारा लेना ही नहीं चाहता क्योंकि वह बिना साधन के ही साधना कर लेना चाहता है | आज क्रियासाध्य साधन अधिक देखने को मिल रहे हैं | कोई भी सिद्धि प्राप्त करने के लिए , मंत्र सिद्ध करने के लिए साधक रात - रात भर माला जपा करता है परंतु उसके मन में वह भाव नहीं प्रकट हो पा रहा है अर्थात भावसाध्य साधन से वह विरक्त दिखाई पड़ता है यही कारण है कि उसे सफलता नहीं मिल पाती | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहां तक देख पा रहा हूं उसके अनुसार लोग क्रिया तो कर रहे हैं , मेहनत भी पूरी कर रहे हैं , सद्गुरु से ज्ञान लेकर के भक्ति एवं वैराग्य के मार्ग पर बढ़ते हुए भी दिखाई पड़ रहे हैं परंतु उन में स्थिरता देखने को नहीं मिल रही है | स्थिरता न दिखाई पड़ने का कारण एक ही है कि उन्होंने साधना का कठिन मार्ग चुना है | सुगम एवं सरल मार्ग जो है जिसे भावसाध्य साधन कहा जाता है वह उनके मस्तिष्क में , उनके मन में प्रकट ही नहीं होता | जबकि भाव जब तक नहीं प्रकट होगा तब तक कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती , परंतु कलयुग का प्रभाव कहा जाए या आधुनिकता का लोग आयोजन तो बहुत बड़े-बड़े करते हैं इन कार्यक्रमों में चकाचौंध भी खूब होती है परंतु आयोजक के मन में वह भाव नहीं प्रकट हो पाता कि वह परमात्मा से जुड़ जाये | आयोजन भले ही भव्य ना हो मगर मन में भाव भव्य होना चाहिए तभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है | भावसाध्य साधन सबसे सरल एवं सुगम है इसलिए प्रत्येक मनुष्य को पहले अपने मन में भाव प्रकट करना चाहिए उसके बाद प्रत्येक साधन सरल होते चले जाते हैं | बिना भाव के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है |*
*भक्ति को साधना हो या फिर अन्य कुछ , भाव को प्रकट करना ही होगा | कहा भी गया है "भाव बस्य भगवान" भगवान भाव के ही बस में हैं इसलिए क्रिया साध्य साधन की अपेक्षा भाव साध्य साधन को अपनाना चाहिए |*