भेदभाव बढ़ चला है आपसी ,
दोस्तना कर रहा है ख़ुदकुशी ।
प्रकृति का घायल ह्रदय,देखकर ,
केश खोले रो रही है रूपसी ।
गुनगुनाहट गुन्जनों की कर्कशी ,
चांदनी तपने लगी है धूप सी ।
टूटते रिश्ते ,सिमटती आस्थाएं ,
देखना पल-पल बदलता आदमीं ।
ईद-होली का मिलन तो खा गया,
बदचलन इंसानियत है , बेबसी ।
कौन किसको रो रहा है भूल जा ,
बाबरे !मुशिकिल बहुत है ज़िन्दगी ।
हर तरफ है शोरगुल चीखो-पुकार,
है शराफत की जुबां भी तोप सी।
मत करो'अनुराग'यूँ इतना मलाल,
कुछ तो रही होगी हमारी बेबसी