चराग़ जले
एक पीली शाम नई
आज चराग़ जलाएगी।
बुझ जाएगा वो मगर
सुहानी भोर तो आएगी।
क़ायानात दहल जाती है,
फ़कीरों के अश्क देख कर।
ख़ुदा भी पिघल जाता है,
रहमत का करिश्मा खेल कर।
नेह का करिश्मा ओ' जलवा,
देखा है जिस दीवाने ने।
हैवान की क्या? वक़त,
मिटा के दिखा-
तूफ़ान झेले बहुत
नेह करने वालों ने।
गुनाह कर दोज़ख का शहर,
ग़रचे मिला तो क्या हुआ?
ज़ख़्म नासूर हो बह गए;
तो क्या हुआ?
ख़ुदा के नूर का,
सुलझा मसला है ये।
आदम जात,
ज़न्नत का मसीहा,
न बन पाया,
तो क्या? हुआ।
चुनांचे, सब्र है बहुत,
अश्क की ताक़त से,
अँधेरों का गम
गुम हो जाता है।
बिगड़ा हुआ नसीब,
शैतानी साये से
गुमनामियों की राह पे
गुजर निखर जाता है।।
एक पीली शाम नई
आज चराग़ जलाएगी।
बुझ जाएगा मगर
सुहानी भोर आएगी।
डॉ. कवि कुमार निर्मल___✍️