
*इस संसार में मनुष्य सुख एवं दुख के बीच जीवन यापन करता रहता है | मनुष्य को सुख एवं दुख यद्यपि उसके कर्मों के अनुसार मिलते हैं परंतु मनुष्य के दुखों के कारण पर हमारे शास्त्रों में विस्तृत चर्चा की गई है जिसके अनुसार मनुष्य के दुख के तीन मुख्य कारण बताए गए हैं :- १- अज्ञान , २- अशक्ति एवं ३- अभाव | यदि मनुष्य को सुखी रहना है तो अपने अज्ञान अपनी निर्बलता एवं अभाव को दूर करना होगा | मनुष्य को जब ज्ञान नहीं होता है तो वह तत्वज्ञान से अपरिचित हो जाता है तथा इसी अज्ञान के कारण नकारात्मक सोच एवं नकारात्मक कार्य के भंवर जाल में फंसता चला जाता है | जिसके कारण मनुष्य दुखी हो जाता है और उसे स्वार्थ , लोभ , अहंकार और क्रोध की भावनाएं चारों ओर से घेर लेती हैं | मनुष्य को जब मानव जीवन के उद्देश्य का ज्ञान नहीं होता है ! कर्म मीमांसा को नहीं समझ पाता है तब वह अपने लिए असंभव आशाएं , तृष्णायें एवं कल्पनाएं किया करता है परंतु जब कार्य अपने अनुसार नहीं होता है तो वह रोने चिल्लाने लगता है | इस संसार में परिवारीजनों की मृत्यु एवं परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव स्वाभाविक है परंतु अज्ञानी व्यक्ति सोचता है कि सारा कार्य मेरे अनुसार ही हो और जब वह कार्य उसके अनुसार नहीं होता है तो वह दुखी होकर चिल्लाने लगता है ` जब मनुष्य में अशक्ति अर्थात निर्बलता होती है तब भी वह दुखी हो जाता है | यह निर्बलता शारीरिक , मानसिक , सामाजिक , बौद्धिक एवं आत्मिक किसी भी प्रकार की हो सकती है | शारीरिक निर्बलता के कारण जब मनुष्य भार नहीं उठा पाता तब दुखी हो जाता है उसी प्रकार बौद्धिक निर्बलता होने पर साहित्य , काव्य का मनन चिंतन नहीं कर पाता है | आत्मिक निर्बलता मनुष्य को सत्संग प्रेम भक्ति आदि का रस नहीं लेने देती और दूसरों को इससे अात्मविभोर होता देखकर मनुष्य को दुख हो जाता है | इस प्रकार मनुष्य के दुख के कई कारण है | जिस दिन मनुष्य अपने अज्ञान को दूर कर लेता है , जिस दिन वह बौद्धिक एवं आत्मिक रूप से बलवान हो जाता है उसी दिन उसके सारे दुख समाप्त हो जाते हैं |*
*आज मनुष्य ने बहुत प्रगति कर ली है जीवनोपयोगी सारे संसाधन मनुष्य ने निर्मित कर लिए हैं | पहले की अपेक्षा आज मनुष्य के पास जीवन को सुखी बनाने वाले संसाधनों की भरमार देखी जा सकती है | जिस प्रकार इन संसाधनों की वृद्धि हुई है उसी अनुपात में मनुष्य का दुख भी बढ़ा है | प्राय लोग अपने दुख का कारण नहीं जान पाते | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इतना ही कहना चाहूंगा कि जिस दिन मनुष्य अपने स्वरूप को एवं इस संसार में आने के उद्देश्य को जान जाता है उसी दिन उसके सारे दुख समाप्त हो जाते हैं | शारीरिक निर्बलता हो तो भी मनुष्य संसार में सुखी रह सकता है | आज मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण उसका असंतोष है | मनुष्य मोहजाल में जकड़ा हुआ है जो कि दुख की जड़ है , और इस मोह जाल से निकलने का एक ही मार्ग है सद्गुरु से सद्ज्ञान एवं तत्व ज्ञान प्राप्त करना | बौद्धिक एवं आत्मिक बल की वृद्धि करके , सत्संग कथा का रसपान करके भी मनुष्य का दुख समाप्त हो सकता है परंतु आज मनुष्य के पास ना तो इतना समय ही बचा है और ना ही वह यह सब करना ही चाहता है | सीधी सी बात है कि यदि कोई रोग है तो उसकी औषधि खानी ही पड़ेगी उसी प्रकार मनुष्य को यदि अनेक प्रकार के दुखो ने घेर रखा है तो उन दुखों की औषधि अर्थात तत्वज्ञान एवं आत्मिक ज्ञानरूपी औषधि का सेवन करना ही पड़ेगा , अन्यथा इस संसार को तो दु:खालय तो कहा हीगया है | इस दुख से वही बच सकता है जिसने स्वयं के हृदय में संतोष रूपी धन संचित कर रखा है | जब मनुष्य को प्रत्येक कार्य पर संतोष होता है तो उसे दुख कभी नहीं हो सकता |*
*जिधर देखो उधर दुख ही दुख दिखाई पड़ता है , इन दुखों का कारण स्वयं मनुष्य ही है जिसने अपने कर्मों से दुख का साम्राज्य विस्तारित कर रखा है | यदि दुख से निवृत्ति पानी है तो तत्वज्ञान का मार्ग अपनाना ही पड़ेगा जो कि कठ्न अवश्य परंतु असम्भव नहीं |*