*अपने विगत जन्मों के कर्मानुसार जीव मनुष्य रूप में इस धरती पर विशेषकर भारत देश में जन्म लेता है | आदिकाल से ही हमारे देश के महापुरुषों ने "भगवत्कृपा" "हरिकृपा" प्राप्त करने के लिए अनेकानेक प्रयास किये हैं | कठिन तपस्या , दुष्कर जप एवं और अन्य साधनों के माध्यम से मनुष्य ने "भगवत्कृपा" प्राप्त करने का साधन साधा है , परंतु "भगवत्कृपा" प्राप्त करने का मार्ग इतना सुगम नहीं है | जिस प्रकार किसी भी लंबी दूरी के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी साधन की आवश्यकता होती है उसी प्रकार "भगवत्कृपा" प्राप्त करने के लिए भी एक साधन की आवश्यकता होती है और वह साधन मनुष्य को सद्गुरु के रूप में प्राप्त होता है | यह अकाट्य है कि बिना गुरुकृपा के "भगवतकृपा" कदापि नही प्राप्त की जा सकती | इस संसार में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर है परंतु ईश्वर से भी श्रेष्ठ सद्गुरु को बताया गया है क्योंकि यदि सद्गुरु नहीं होता ईश्वर के विषय में जाना ही नहीं जा सकता था | गुरु ही आध्यात्मिक क्षेत्र का संवाहक होता है | लिखा भी गया है कि :-- "गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पायं ! बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय !!" गुरु की महिमा के वर्णन से हमारे सभी धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं | गुरुकृपा प्राप्त करने के लिए शिष्यत्व की भावना का होना बहुत आवश्यक है | बिना पूर्ण शिष्यत्व प्राप्त किये गुरु कृपा नहीं प्राप्त हो सकती | इस समस्त सृष्टि में गुरु से बढ़कर कोई भी नहीं है | "भगवतकृपा" प्राप्त करने के लिए गुरुकृपा का होना परम आवश्यक है | गुरुकृपा तभी प्राप्त हो सकती है जब शिष्य में पूर्ण शिष्यत्व भाव हो | जिस प्रकार एक कुम्हार साधारण मिट्टी को भी गढ़कर सुंदर कलाकृति बना देता है उसी प्रकार गुरु भी एक साधारण मनुष्य को भी महापुरुष बऩाने की क्षमता रखते हैं | आध्यात्मिक , पौराणिक , वैदिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्र हो या फिर साधारण जीवन किसी भी दशा में बिना मार्गदर्शक या सद्गुरु के मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता | जीवन में सद्गुरु का होना परम आवश्यक है क्योंकि बिना गुरुकृपा के कुछ भी प्राप्त करना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है |*
*आज के युग में "भगवतकृपा" तो सभी प्राप्त करना चाहते हैं परंतु गुरुकृपा से वंचित रह जाते हैं , क्योंकि आज का मनुष्य अति महत्वाकांक्षी देखा जा रहा है | कुछ दिन तक तो मनुष्य गुरु की शरण में रहता है उसके बाद उसको यह लगने लगता है कि मैंने तो सब कुछ प्राप्त कर लिया और उस स्वयं गुरु बनने की ओर अग्रसर हो जाता है | यद्यपि इस सृष्टि में गुरु को ही सर्वश्रेष्ठ कहा गया है परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि इस सृष्टि में गुरु से भी श्रेष्ठ स्थान माता पिता का है | बाबा जी ने भी अपने मानस में लिखा है :--- "प्रातकाल उठि के रघुनाथा ! मातु पिता गुरु नावहिं माथा !!" यहां बाबा जी ने पहला स्थान माता का दिया है उसके बाद पिता तब गुरु का स्थान आता है | आज के युग में प्रायः देखा जा रहा है कि लोग अपने माता पिता का त्याग करके गुरु के आश्रमों में जाकर रहने लगते हैं परंतु उनका स्वाभाविक स्वभाव उनका पीछा नहीं छोड़ता और गुरु आश्रम में भी सिर्फ अपना समय व्यतीत करते हैं | गुरु के पास बैठकर के सत्संग करना उनके भाग्य में नहीं होता है | जिस प्रकार बिना गुरुकृपा के "भगवतकृपा" नहीं प्राप्त की जा सकती है उसी प्रकार बिना माता-पिता के कृपा से सद्गुरु की कृपा भी नहीं प्राप्त हो सकती , परंतु आज के चकाचौंध भरे युग में मनुष्य स्वयं को इतना श्रेष्ठ मानने लगता है कि वह अपने माता-पिता को दुत्कार करके गुरु की अवहेलना करके स्वयं श्रेष्ठ बनने लगता है , जिसका परिणाम यह होता है कि उसे कुछ भी नहीं प्राप्त हो पाता | अधकचरा ज्ञान सदैव घातक कहा गया है | आज के युग में मनुष्य ने जिस प्रकार विकास किया है उसी क्रम में उसका आध्यात्मिक एवं मानसिक पतन भी हो रहा है | मनुष्य गुरु के आश्रम में रहकर के अपना समय तो काट देता है परंतु जिस उद्देश्य से वह गुरु के आश्रम में गया है उद्देश्य भूल जाता है और कुछ दिन गुरु के आश्रम में रहने के बाद वह स्वयं को समाज में गुरु बनाकर स्थापित करने का प्रयास करने लगता है | वैसे यह उचित भी कहा जा सकता है परंतु विचारणीय तो यह है कि यदि किसी को कुछ देना है तो उसका भंडार आपके पास होना चाहिए अन्यथा याचक तो खाली हाथ वापस जायेगा ही साथ ही गुरुसत्ता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जायेगा | मनुष्य श्रेष्ठ तभी बन सकता है जब उसके ऊपर माता - पिता के साथ - साथ गुरुकृपा भी हो |*
*मानव जीवन का उद्देश्य भगवत्कृपा प्राप्त करते हुए मोक्ष प्राप्त ही होता है परंतु इस साधन को साधने के लिए एक श्रेष्ठ गुरु एवं गुरुकृपा की परम आवश्यकता होती है | गुरुकृपा तभी प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य में पूर्ण शिष्यत्व भाव हो |*