नक्सली हिंसा और पुलिसिया दमन के बीच पिसते बस्तर की तस्वीर है लाल लकीर
“इन क्रांतिकारियों ने बस हमारे सामने एक लाल लकीर खींच दी है. एक लाल लकीर. इस लाल लकीर के पीछे रहे तो पुलिस की हिंसा और अगर इस लाल लकीर को पार किया तो क्रांतिकारियोंकी हिंसा. हम इस लाल लकीर के ग़ुलाम हैं.” ये संवाद संक्षेप में नक्सली हिंसा और पुलिसिया बर्बरता के दो पाटों में पिस रहे बस्तर के आदिवासियों कीव्यथा है और इस व्यथा की ही वृहत्कथा है पत्रकार हृदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर. एनडीटीवी से जुड़े हृदयेश जोशी पिछले करीब एक दशक से बस्तर से रिपोर्टिंग करते रहे हैं . इस नक्सलप्रभावित इलाके से रिपोर्टिंग के लिए उन्हे रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी मिल चुका है. लाल लकीर यूँ तो उपन्यास लेखक के मुताबिक दो आदिवासियों की प्रेम कहानी है लेकिन दरअसल ये उस प्रेम कहानी के बहाने एक नए बने राज्य छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में विकास के फरेब,सरकार प्रायोजित हिंसा और माओवादियों के खोखलेपन को परत दर परत उघाड़ता है. " हम जाएँ तो कहाँ जाएँ. पढ़ाई लिखाई का प्रचार करते हैं तो नक्सलियों को दिक्कत होती है.हेल्थ मिशन का काम करते हैं तो पुलिस वाले पीछा करते हैं. नक्सली कहते हैं हमारे साथ आओ,पुलिस कहती है हमारे मुखबिर बन जाओ. बस्तर के आदिवासी जाएँ तो जाएँ कहाँ?” उपन्यास की नायिका भीमे कुंजाम एक बहुत सशक्त चरित्र है-कट्टर गाँधीवादी,अपने पिता को नक्सलियों के हाथों मरता देखकर भी प्रतिशोध में बन्दूक नहीं उठाती बल्कि पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ उकसानेवाले माओवादी नेता के सामने उनकी तथाकथित क्रांति की विचारधारा को भी मज़बूती से नकार देती है,यहाँ तक कि गाँधीवादी अहिंसक संघर्ष के रास्ते पर चलते चलते अपने प्रेमी रामा से भी नाता तोड़ लेती है. भीमे कुंजाम में आपको छत्तीसगढ़ की महिला एक्टिविस्ट सोनी सोरी की झलक दिखेगी. सोनी सोरी जिन पर माओवादियों की मदद का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया था लेकिन जब उन्होंने 2014 मेंबस्तर से लोकसभा चुनाव लड़ा तो नक्सलियों ने उनके बायकाट की अपील जारी कर दी थी. सोरी की हीतरह भीमे कुंजाम भी स्कूल टीचर से सामाजिककार्यकर्ता और फिर सक्रिय राजनैतिक जीवन की तरफमुड़ती है, चुनाव मैदान में उतरती है लेकिन इसका अंजाम दुखद होता है. लाल लकीर के इंस्पेक्टर अनुपम शुक्ला में नज़र आएगा दंतेवाड़ा का कुख्यात पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग जिस पर हिंसा, यौन शोषण और वीभत्स यातनाओं के आरोप लगे थे. और खुद लेखक मौजूद है पत्रकार अभीक बनर्जी के किरदार में. लाल लकीर में सलवा जुडूम है, महेंद्र कर्मा है,ऑपरेशन ग्रीनहंट है . आदिवासी इलाकों में चल रहे शिक्षाऔर स्वास्थ्य कार्यक्रमों की असलियत है. आदिवासी बच्चों को स्कूल में पढ़ाने वाली भीमे कुंजाम को इस बात पर अफ़सोस और नाराज़गी होती है कि टीचर स्कूल से गैरहाज़िर रहते हैं- " हम आदिवासियों को कोई इंसानों में नहीं गिनता.शहरी समाज की नज़र में वह गिनती में नहीं है.लगता है यहाँ के गरीब बच्चों को पढ़ने का अधिकार है ही नहीं. " उपन्यास का फलक 1998 से 2013 तक का है. छत्तीसगढ़ के एक अलग राज्य बनने के आसपास से शुरू हुई कहानी महेंद्र कर्मा और विद्याचरण शुक्ल पर हुए नक्सली हमले के थोड़ा आगे जाकर खत्म होतीहै. यानी कहानी कोरी कल्पना नहीं है, वास्तविक घटनाओं परआधारित है.उपन्यास एक रिपोर्ताज की तरहलिखा गया है . हृदयेश टेलीविज़न पत्रकारिता से जुड़े हैं इसलिए उनकी कलम सजग, सधे हुए कैमरे की तरह काम करती है. शब्द दृश्यों का निर्माण करते चलते हैं. लाल लकीर पढ़ते हुए आपके सामने जैसेडाक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की मिली जुली रीलें घूमने लगती हैं.पूरा उपन्यास एक पॉलिटिकल थ्रिलर की कसी हुई पटकथा जैसा है. उपन्यास पर फिल्म बनाने का इरादा रखने वाले निर्देशक को कट पॉइंट ढूंढनेमें ज़्यादा मेहनत न करनी पड़े, लेखकने अपने तकनीकी कौशल के ज़रिये इसका पूरा ख्याल रखा है. आदिवासी अंचल पर लिखा गया उपन्यास है तो बस्तर की स्थानीय भाषा, रहन सहन, तौर तरीके का ज़िक्र कुछ इस खूबी से आया है कि बस्तर को न जानने वाला भी लाल लकीर के ज़रिये बस्तर से परिचितहो लेता है. बस्तर पर राजीव रंजन प्रसाद का आमचो बस्तर उपन्यास कुछ साल पहले आया था. लाल लकीर उस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए उस इलाके की आज की दौर की तस्वीर दिखाता है जिसमे अतीत का गौरवनहीं बल्कि वर्तमान की चुनौतियाँ है. (लाल लकीर - लेखक:हृदयेश जोशी,प्रकाशक :हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया कीमत:350 रुपये)