जिंदल ग्रुप पर हरीश रावत की मेहरबानी का मुद्दा गरमाया, करोड़ों का सौदा कौड़ियों में
जिंदल समूह की शैक्षणिक संस्था के साथ जमीन के सौदे को लेकर उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार विवादों में घिर गई है। इस सौदे को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।सात हेक्टेयर से अधिक की यह जमीन रानीखेत और अल्मोड़ा के बीच पड़ती है।रानीखेत से अल्मोड़ा जाने के रास्ते में डीडा(द्वारसों) गांवपड़ता है। इसकी एक बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी पर नानीसार है। कुमाऊं में सार का मतलब खेती की जमीन से होता है और नानीसार का मतलब है छोटी खेती की जमीन।यह ग्रामसभा की जमीन है।उत्तराखंड कीकांग्रेस सरकार ने नानीसार की गौचर, पनघट और पंचायत की 353 नाली जमीन (सात हेक्टेयर से अधिक) को पारदर्शिता की प्रक्रिया अपनाए बिना और पूरीगोपनीयता बरतते हुए दिल्ली की हिमांशु एजुकेशनसोसायटी को एक अंतरराष्ट्रीय आवासीय स्कूल बनाने केलिए दे दिया है। राज्य सरकार के इस फैसले के खिलाफ डीडा (द्वारसों)के ग्रामीण,जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं,आंदोलन कर रहे हैं। अपनी जमीन को बचाने के लिए उन्होंने नानीसार संघर्ष समिति बनाई है।डीडा,रानीखेत, अल्मोड़ा और देहरादून में विरोध प्रदर्शनों के बाद अब दिल्ली में भी हरीश रावत सरकार के खिलाफ आंदोलन की तैयारी है। ग्राम सभा की यह जमीन जिस हिमांशु एजुकेशन सोसायटी दी गई है वह(सोसायटी) देवी सहाय जिंदलसमूह की है।इस सोसायटी के उपाध्यक्ष प्रतीक जिंदल कांग्रेस के नेता नवीन जिंदल के भतीजे हैं।डीडा-नानीसार प्रकरण ने पहाड़ में कॉरपोरेट घरानों को कौड़ियों के भाव और बिना किसी पारदर्शिता के करोड़ों रुपए की बेशकीमती जमीन देने के मसले को पुनः केंद्र में ला दिया है। नियमों को रखा गया ताक पर जिंदल समूह को जमीन देने से पहले गांववालों से कोई सहमति नहीं ली गई और न ही इस संबंध में ग्रामसभा की खुली बैठक बुलाई गई। ग्रामसभा की जमीन को बेचने से पहले नियमतःयह एक अनिवार्यवैधानिक प्रक्रिया है। ग्राम प्रधान की ओर से दिए गए एक अनापत्तिपत्र का हवाला जरूर दिया जा रहाहै,जिसमें नौ लोगों के हस्ताक्षर हैं, लेकिन इसमें कोई तारीख नहीं है और न ही यह आधिकारिक रूप से सत्यापित है।गांववालों का कहना है ग्राम प्रधान ने उनके फर्जी हस्ताक्षर किए हैं। गांववालों ने ग्राम प्रधान के खिलाफ पटवारी को पत्र लिखा और उसके खिलाफ कार्रवाई की मांग की, जिस पर प्रशासन अभी तक खामोश है।ग्रामीणों ने इस जमीन से हिमांशु एजुकेशन सोसायटी का कब्जा हटाने केलिए उप-जिलाधिकारी,रानीखेत, को भी पत्र लिखा लेकिन वहां से भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। गांववालों को अंधेरे में रखा महत्वपूर्ण बात यह है कि सात हेक्टेयर से अधिक की इस जमीन के सौदे के बारे में ग्रामीणों को तब पताचला जब हिमांशु एजुकेशन सोसायटी की जेसीबी की मशीनें वहां पहुंच गई और उन्होंने बांज,काफल और लीसा लगे पेड़ों को जमींदोज करना शुरू करदिया। ग्रामीणों का आरोप है कि यह दरअसलएक बहुत बड़ाजमीन घोटाला है,क्योंकि इतनी बड़ी जमीन का पट्टा जिंदल समूह की इस सोसायटी के नाम होने से पहले ही उसने जमीन पर कब्जा करके निर्माण कार्य शुरू कर दिया और जमीन को घेरकर उसपर अपना बोर्डलगा दिया। इसके अलावा मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ग्रामीणों के जबरदस्त विरोध प्रदर्शन को दरकिनार कर अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हुए लगभग दो महीने पहले इस जमीन पर स्कूल का शिलान्यास भी करदिया। गांववालों का कहना है कि जमीन पर कब्जा करके वहां हरियाणा से लाए गए सुरक्षा गार्ड और बाउंसर तैनात कर दिए गए हैं। ग्रामीणों का कहना है राज्य सरकार ने गांव के 20 भूमिहीनों को जमीन देने के बजाय इसे कौड़ियों के भाव में जिंदल समूह को दे दिया। दिल्ली से गई एक फैक्ट फाइंडिग टीम,जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार शामिल थे,ने जब गांववालों से बातचीत की तो उन्होंने इस टीम को बताया, “इस मुद्दे पर पूरे गांव को अंधेरे में रखा गया।गांववालों को तब पता चला जब जिंदल के लोग जमीन पर कब्जा करने आ जाते हैं।तभी से हम इसका विरोध कर रहे हैं।हमारे गांव की जमीन को जिंदल को 4 रुपए प्रति नाली (2160 स्कावयर फुट) की दरसे 30 साल के लिए लीज पर दिया गया है। इसका निर्धारण कैसे किया गया है।इस प्रक्रियामें किसी भीतरह की पारदर्शिता नहीं अपनायी गयी है।यह जमीन यदि सरकारी काम के लिए या जनहित में ली जाती तो हम इसका विरोध नहीं करते।” गांव वालों का यह भी कहना था,“जिस तरीके से एक घराने को फायदापहुंचाने के लिएजमीन ली गयी है उसका विरोध हमारा पूरा गांव कर रहा है।इस स्कूलसे पूरे क्षेत्र को कोईफायदा नहीं हो रहा है।न हमें नौकरियां मिलेगी,न हमारे बच्चे इसमें पढ़ पाएंगे।उलटा हमें तो नुकसान हीहो रहा है।नानीसार में हमारे गांव की जो 1106 नाली जमीन है उसमें जाने का रास्ता बंद कर दिया गया है। हमारे पानी का कुंड, हमारा थान (देवस्थान) और सार्वजनिक रास्तों पर कब्जा करलिया गया है।” किसके लिए है यह अंतरराष्ट्रीय स्कूल सोसायटी ने सरकार को जो प्रस्ताव दिया है उससे साफ है इस स्कूल में पहाड़ के गरीब ही नहीं बल्किमध्यवर्गीय लोगों के बच्चों के लिए भी कोई जगह नहीं है। इस अंतरराष्ट्रीय आवासीय स्कूल में पढ़ने वालेबच्चोंकी जिन सात श्रेणियों का जिक्र है वे इस प्रकार हैं – कॉरपोरेट जगत के बच्चे, अनिवासी भारतीयों के बच्चे, पूर्वोत्तर के बच्चे, माओवाद से प्रभावित राज्यों के बच्चे,गैर अंग्रेजी भाषी राष्ट्रों के बच्चे,भारत में रहने वाले विदेशी समुदायों के बच्चे और वर्ल्ड एनजीओ द्वारा प्रायोजित बच्चे। इस अंतरराष्ट्रीय आवासीय स्कूल की फीस 22 लाख रुपए सालाना बतायी जा रही है।जाहिर, स्थानीय लोगों को यदि एक-आध नौकरी मिल भी गई तो वह चौकीदारी या बहुत हुआ तो चतुर्थ श्रेणी की होगी। शिक्षा व्यवस्था का हाल उत्तराखंड में शिक्षा व्यवस्था का आलम यह है यहां तकरीबन 3500 सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं।इसके पीछे छात्रों की संख्या का कम होना और मानकों पर खरे नहीं उतरने का तर्क दिया जाता है।सवालयह है कि पहाड़ के कस्बों और छोटे शहरों में खुलने वाले निजी स्कूलों में बच्चों की संख्या तो कम नहीं है। दरअसल, उत्तराखंड की सरकारों, चाहे भाजपा की हो या फिर कांग्रेस की,ने व्यवस्थित तरीके से सरकारीस्कूलों की इस हाल में पहुंचा दिया है जिससे बच्चे कुकरमुत्तों की तरह उग रहे निजी स्कूलों में चले जाएं। यह राज्य की पूरी शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने की रणनीति है ताकि सरकार शिक्षा व्यवस्था की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से पल्ला झाड़ ले। इसमें आगे यही होगा जिनके पास अच्छा-खासा पैसा होगा वही अपने बच्चों को पढ़ापाएंगे। नए अंतरराष्ट्रीय आवासीय स्कूल का औचित्य ? रानीखेत के नजदीक जहां जिंदल इंटरनेशनल स्कूल खोलने की तैयारी चल रही है उससे 10 से 20किलोमीटर की परिधि में पहले से ही दो बड़े प्रसिद्ध और पुराने आवासीय स्कूल हैं।इसके अलावा उत्तराखंडके नैनीताल, मसूरी और देहरादून शहर तो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बोर्डिंग स्कूलों के लिए पहले से ही जाने जाते हैं।जिंदल के इस अंतरराष्ट्रीय आवासीय स्कूल में किन लोगों के बच्चे पढ़ेंगे और इसकी कितनी फीस होगी इसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है, उससे साफ है कि इस स्कूल से उत्तराखंड की बहुसंख्यजनता और उनके बच्चों को कोई लाभ नहीं होगा। जाहिर है, इससे उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था में भीकोई गुणात्मक सुधार नहीं होने जा रहा है। यह बात आईने की तरह साफ है कि यह स्कूल विशुद्ध रूप से छप्परफाड़ मुनाफे के लिए खोला जा रहा है। हैरत की बात यह है कि जनता द्वारा चुनी गई एक सरकारशिक्षा के व्यवसायीकरण का रास्ता सुगम बनाने के लिए एक मददकर्ता की भूमिका निभा रही है। आपदा प्रभावित गांवों के लिए जमीन नहीं उत्तराखंड सरकार 244 गांवोंको आपदा प्रभावित बताती है और वह इन गांवों के लोगों को अन्यत्र बसाने के लिए जमीन नहीं तलाश पा रही, लेकिन जिंदल समूह के लिए उसे तुरंत जमीन मिल जाती है। इसकेअलावा उत्तराखंड में ऐसे डिग्री कॉलेजों की संख्या काफी है जहां छात्र खेलकूद के लिए अच्छे मिनीस्टेडियमों या क्रीड़ास्थलों की मांग करते रहे हैं लेकिन सरकारों को उन्हें देने के लिए कोई जमीन नहींमिलती है। वहीं,ऐसे बहुत सारे गांव हैं जहां लोग वर्षों से सड़कों की मांग कर रहे हैं लेकिन कभी वनविभागकी आपत्ति तो कभी दूसरी प्रकार की सरकारी अड़चनों के कारण इनकी फाइलें वर्षों तक लटकी पड़ी रहतीहैं।हैरत की बात यह है कि जिंदल समूह के लिए राज्य की हरीश रावत सरकार ने जिस तत्परता से कार्य किया है वह इस बात का संकेत है कि उत्तराखंड की सरकार का विकास का मॉडल क्या है। दरअसल पूरे उत्तराखंड में जिस तरह से जमीनों की खरीद-फरोख्त चल रही है और इसमें यहांकी सरकारें जिस तरह की भूमिका निभाती रही हैं और निभा रही हैं वह पूरे पहाड़ के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है।यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तरांखड में रोजगार के अत्यंत अभाव और भयावह कृषि संकट के कारण लोगों का शहरों और महानगरों की ओर निरंतर पलायन होता रहता है। उत्तराखंड में ऐसे गांवों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो खाली हो रहे हैं।लेकिन उत्तराखंड में शासन करने वाली भाजपा और कांग्रेसपार्टियों के पास इस हिमालयी राज्य के विकास के लिए कोई दूरदर्शी नीति नहीं है,उलटा इन हालात में इन्होंने सबसे आसान रास्ता यह अपनाया है कि पहाड़ की जमीनों को कॉरपोरेट घरानों और उद्योगपतियों को बेच दिया जाए।