*भारतीय सनातन परम्परा में जीवन के बाद की भी व्यवस्था बनाई गयी है | सनातन की मान्यता के अनुसार जीवन दो प्रकार का है प्रथम तो इहलौकिक एवं दूसरा पारलोकिक | मनुष्य इस धरती पर पैदा होता है और एक जीवन जीने के बाद मरकर इसी मिट्टी में मिल जाता है | यह मनुष्य का इहलौकिक जीवन है जहां से होकर मनुष्य परलोक को जाता है , परंतु पारलौकिक जीवन के लिए मनुष्य को कुछ करना होता है | प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन सार्थक बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए , यह जीवन तभी सार्थक हो सकता है जब इहलौकिक जीवन के आगे जो पारलौकिक जीवन है उसकी कुछ तैयारी कर ली जाय | प्राय: इस संसार में जीवन तभी तक माना जाता है जब तक शरीर क्रियाशील रहे , परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से यह भोतिक जीवन आत्मा की यात्रा के पथ में पड़ा एक पड़ाव भर है | हमारे मनीषियों ने बताया है कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए जीवन को समझना पड़ेगा | जीवन के भौतिक तथा आध्यात्मिक, दो पहलू है | पार्थिव जीवन को दिव्य जीवन से तथा भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इंद्रियों के इस भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते है | इंद्रियों का जीवन विषय भोग के लिए ही है | ऐसे में मनुष्य किसी दिशा की ओर न जाकर जीवन के मार्ग में भटक जाता है | जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य बिना किसी संदेह के अपने जीवन की नौका को उस ओर खेने लगता है | दिशा भ्रम होने पर वह हर समय संदेह में रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है और सही रास्ता क्या है ? अगर यही जीवन सब कुछ है तथा परमार्थ कुछ भी नहीं है तो उसकी सोच भौतिकतावादी होने लगती है | यह भौतिक जीवन अंतिम अवस्था नहीं है | यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है | यदि यह दृष्टिकोण रखकर जिया जाए तो हम आध्यात्मिक मार्ग पर चल सकते हैं | जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता, दोनों का होना अनिवार्य है |*
*आज के चकाचौंध भरे युग में मनुष्स भौतिकता में इतना लिप्त हो गया है कि आध्यात्मिकता उसको दिखाई ही नहीं पड़ती या फिर देख जानकर भी वह आध्यात्मिकता की ओर स्वयं को मोड़ना ही नहीं चाहता | आज संसार के विषय में जानने को प्रतिपल लालायित दिख रहा मनुष्य अपने विषय में जानना ही नहीं चाहता | इन्द्रियजन्य सुखों को ही जीवन का सार आज माना जा रहा है | आज के परिवेश ने मनुष्य को इतना अंधा कर दिया है कि साधारण लोगों की तो बात ही छोड़ दी जाय आज प्रत्येकके धर्म उच्च पदों पर बैठे हुए धर्माधिकारी एवं धर्मोपदेशक भी जीवन की सार्थकता को भूलकर भौतिक जीवन में लिप्त दिखाई पड़ रहे हैं | जबकि मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहाँ तक जानता हूँ उसके अनुसार भौतिकता साधन है और आध्यात्मिकता साध्य है | जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर जीवन के कार्यक्रम का निर्माण करें | हमें साधन नहीं जुटाते रहना है क्योंकि ऐसा करते हुए हम स्वयं ही साधन बन जाते है | यदि आत्मोन्नति करनी है तो भौतिकता के मार्ग को छोड़कर आध्यात्मिकता का मार्ग अपनाना चाहिए | बिना आध्यात्मपथ पर बढ़े जीवन के सार को समझ पाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है | इस अलभ्य मानव जीवन को पाकर भी इसे भौतिकता में झोंककर खाने - सोने एवं भौतिक साधनों से सुख भोगने की लालसा करते रहने से जीवन की सार्थकता नहीं जानी जा सकती है | जीवन को सार्थक बनाने के लिए जीवन में आध्यात्मिकता का होना परम आवश्यक है | आध्यात्मिकता ग्रहण करने का यह अर्थ कदापि हुआ कि मनुष्य भौतिकता का त्याग कर दे , भौतिक संसार में जन्म लेने के बाद भौतिकता का त्याग तो नहीं हो सकता परंतु इसी के साथ आध्यात्मिक भी बनना कठिन नहीं है | यह विचार करने का विषय है |*
*प्रत्येक मनुष्य को स्वयं के विषय में जानने की लालसा अवश्य रखनी चाहिए जो स्वयं एवं स्वयं के जीवन रहस्यों को समझ गया उसी का जीवन सार्थक है |*