
*पुण्यभूमि भारत से ही मानव जीवनोपयोगी ज्ञान सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैला था | इसीलिए भारत को विश्वगुरु कहा जाता था | भारत को विश्वगुरु बनाने में हमारे ऋषि - महर्षियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है | हमारे मनीषियों ने प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उसी से ज्ञानार्जन करने का प्रयास किया और अपने उसी ज्ञान को समस्त विश्व में प्रसारित भी किया जिसका लाभ आज समस्त मानवजाति प्राप्त कर रही है | हमारे मनीषियों ने यह बताने का प्रयास किया है कि जिस प्रकार जीवन जीने के लिए वायु की आवश्यकता होती है , जिस प्रकार भोजन को सुस्वादु बनाने के लिए नमक आवश्यक है उसी प्रकार इस धरा को उर्वरक बनाकर मनुष्य को जीवन प्रदान करने वाले अन्नों के उत्पादन के लिए "वर्षाऋतु" भी परमावश्यक है | यदि ऋतुओं में वर्षाऋतु न हो तो विचार कीजिए कि धरती एवं धरती पर रहने वाले मनुष्यों की क्या गति होगी | हमारे लगभग समस्त ग्रंथों में "वर्षाऋतु" का विस्तृत वर्णन प्राप्त होना ही इसके महत्त्व को दर्शाता है | वर्षाऋतु को मनुष्य जीवन से जोड़ते हुए कविकुल शिरोमणि परमपूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में बताया है कि :- जिस प्रकार बरसने वाले बादल धरती के निकट आकर बरसते हैं उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति विद्या प्राप्त करने पर विनम्र हो जाते हैं | जिस प्रकार वर्षा की बूंदों का आघात पर्वत सहजता से सह लेते हैं उसी प्रकार दुष्ट पुरुषों के कटु वचनों का प्रभाव संतों / सज्जनों पर नहीं पड़ता है | वर्षा ऋतु का जल शुद्ध स्रावित होता है बादल से बूंदें अपने उसी शुद्ध रूप से झरती हैं , परंतु भूमि के संपर्क में आते ही मैली हो जाती हैं इसी प्रकार ईश्वर अंश जीवात्मा को संसार के सम्पर्क में आते ही माया लपेट लेती है | जिस प्रकार बरसात का पानी सड़कों पर बहकर के तालाबों में इकट्ठा हो जाता है उसी प्रकार विनम्र एवं शालीन स्वभाव के व्यक्तियों के पास सद्गुण सहजता से पहुंचते रहते हैं | इस प्रकार वर्षाऋतु को यदि मानव जीवन से जोड़कर देखा जाय तो एक अद्भुत ज्ञान प्राप्त होता है | यही प्रयास हमारे महापुरुषों ने अपने ग्रंथों के माध्यम से मानवमात्र के कल्याण के लिए बताने का प्रयास किया है |*
*आज के आधुनिक युग में जिस प्रकार वेदों / पुराणों , धार्मिक ग्रंथों एवं वैज्ञानिकों की बात को अनसुना करके मनुष्य प्रकृति का दोहन कर रहा है उसके परिणाम स्वरूप आज मनुष्य को प्राकृतिक असंतुलन भी झेलना पड़ रहा है | मानव जाति को जीवन प्रदान करने वाली "वर्षाऋतु" भी असंतुलित हो गयी है , कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ इसी असंतुलन का प्रभाव है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि वर्षाऋतु मनुष्य को क्रियाशील बनाने में महत्वपूर्ण योगदान भी करती है | बरसात के दिनों में पानी बरसने के बाद किसान खेतों की ओर चल पड़ते हैं | जुताई , बुवाई , निराई करना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे उनका शारीरिक श्रम तो हो ही जाता है साथ ही उनका शरीर क्रियाशील बना रहता है | इतना ही नहीं वर्षाऋतु मनुष्य चिंतन करने पर भी विवश करते हुए नवनिर्माण में भी योगदान करती है | जिसका मकान जर्जर है या छत टपक रही है तो वह बरसात के आगमन के पूर्व ही उसका जीर्णोद्धार या नवनिर्माण कराने का प्रयास करता है | गाँवों में नये - नये छप्पर रखे जाते हैं जो यह सिद्ध करता है कि "वर्षाऋतु" नवसृजन के लिए उत्प्रेरित करती है | यही नहीं "वर्षाऋतु" मनुष्य को स्वच्छता का भी संदेश देती है | बरसात आने के पहले बरसात में पैदा हो जाने वाले अनेक विषाणुओं से रक्षा के लिए अपने आस पास की नालियों / पोखरों की सफाई भी मनुष्य करता है | बरसात के महत्त्व को समझते हुए सनातन धर्म के अनुयायी इसका लाभ लेने के लिए वैवाहिक कार्यक्रमों पर को विराम देकरके कलपवास करते हैं | बरसात के चार महीनों को चातुर्मास्य भी कहा गया है जिसकी महिमा हमारे पुराणों में वर्णित है | कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति के सभी अंगों को यदि सकारात्मकता से देखा जाय तो यह सभी मानवमात्र के लिए कल्याणकारी ही सिद्ध होते हैं | आवश्यकता है सकारात्मक दृष्टिकोण एवं कुछ पाने की मनोवृत्ति उत्पन्न करने की |*
*मनुष्य वर्षाकाल में घटित होने वाली घटनाओं से यदि शिक्षा ग्रहण कर ले तो उसका जीवन धन्य हो सकता है | प्रत्येक मनुष्य को वर्षऋतु में समाहित जीवन - विद्या के प्रशिक्षण को अवश्य ग्रहण करना चाहिए |*