*सनातन धर्म में आध्यात्म का बहुत बड़ा महत्व है | अध्यात्म की पहली सीढ़ी साधना को बताया गया है | किसी भी लक्ष्य की साधना करना बहुत ही दुष्कर कार्य है , जिस प्रकार कोई पर्वतारोही नीचे से ऊपर की ओर चढ़ने का प्रयास करता है उसी प्रकार साधना आध्यात्मिक सुमेरु की ओर चढ़ने का प्रयास है | साधना करना सरल नहीं बल्कि बहुत दुष्कर कार्य है यदि इसे संग्राम कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | यह संग्राम बाहरी ना हो करके स्वयं के भीतर होता है , यह संग्राम साधना की सुमेरु को पाने का , जीवात्मा का परमात्मा की ओर आरोहण का है , या यूं कहें कि साधना आध्यात्मिक पर्वतारोहण है तो ही उचित रहेगा | मनुष्य अपने बाहुबल से इस धराधाम का उपस्थित अनेक वस्तुओं , साधनों एवं एक विशाल भूभाग पर आधिपत्य तो कर सकता है परंतु साधना में बाहुबल बल का कोई काम नहीं होता , क्योंकि पृथ्वी पर जब हम कुछ जीतने का प्रयास करते हैं तो वह संग्राम बाहरी लोगों से होता है परंतु साधना के संग्राम को स्वयं से लड़ना पड़ता है | जो इस युद्ध में जीत जाता है , अपनी दुष्प्रवृत्तियों और दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता है वहीं यह संग्राम जीत सकता है | इसे बाहुबल से नहीं बल्कि अपने आत्मबल से जीता जा सकता है | साधना का संग्राम अच्छाई एवं बुराई के बीच का है , सत्य और असत्य के बीच का है , संयम और असंयम के बीच का है | यह संग्राम काम , क्रोध , मद , लोभ , दंभ , द्वेष , लोभादि से ऊपर उठते हुए चेतना के ऊर्ध्वगमन का है | इसीलिए यहां बाहुबल का नहीं बल्कि आत्मबल और ब्रह्मबल महत्व होता है | साधना का संग्राम इंद्रिय संयम से जीता जा सकता है | हमारे महापुरुषों ने साधना के संग्राम को जीतकर अपनी विजय पताका फहरायी है | उनके द्वारा की गई साधना का फल आज समस्त मानव जाति प्राप्त कर रही है | यदि हमारे महापुरुषों ने भी अपने भीतर उत्पन्न अनेक दुर्गुणों पर विजय न प्राप्त की होती तो आज अनेक दुर्लभ ज्ञान मानव मात्र को प्राप्त नहीं हो सकते थे | आज जो ज्ञान हम लोग प्राप्त कर रहे हैं वह हमारे महापुरुषों की साधना का ही परिणाम है |*
*आज के युग में मनुष्य साधनारत होने का प्रयास तो करता है परंतु वह अपने भीतर के शत्रुओं से जीत पाने में असफल सा लगता है | किसी भी साधना को करने के लिए महत्वपूर्ण है संस्कारों का होना , आज जिस प्रकार संस्कारों का पतन हो रहा है उससे किसी भी साधना को सफल बनाना असंभव हो रहा है | आज प्रायः यह देखने को मिलता है कि साधक किसी भी साधना के लिए पूर्ण तैयारी के साथ बैठता तो है परंतु कभी मोह तो कभी क्रोध के दावानल में भस्म हो जाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि इन दुर्गुणों से विरले शूरवीर साधक ही जीत पाते हैं और अपनी साधना के पथ पर दृढ़ बने रह पाते हैं | किसी भी साधक की साधना की सच्ची परीक्षा भी यही है | साधक साधना करने का पात्र है या नहीं उसकी पात्रता की परीक्षा अपने दुर्गुणों से जीतने में ही हो सकती है | जो साधक अपने भीतर उत्पन्न अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से संग्राम करके उस पर विजय प्राप्त करता वही साधना के पथ का पथिक बन सकता है परंतु दुर्भाग्य है आज ऐसा बहुत ही कम देखने को मिल रहा है | आज लोग साधना करने का दिखावा तो करते हैं परंतु उनकी असफलता का कारण यही है | आधुनिक साधक वाह्य व्यवस्थाएं तो कर लेते हैं परंतु स्वयं से संग्राम में परास्त हो जाते हैं | किसी भी साधना को यदि सफल करना है तो सर्वप्रथम अपने भीतर काम , क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना ही होगा |*
*साधना करना देखने में तो बड़ा सरल लगता है परंतु वस्तुत यह एक महासंग्राम है | यह महाभारत अपने भीतर उत्पन्न अनेक प्रकार के दुर्गुणों से जीतना पड़ता है | जो इसमें विजई हो जाता है वही साधना के सुमेरु को छू सकता है |*