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कविता

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कवि: शिवदत्त श्रोत्रियसरहद, जो खुदा ने बनाई||मछली की सरहद पानी का किनाराशेर की सरहद उस जंगल का छोरपतंग जी सरहद, उसकी डोर ||हर किसी ने अपनी सरहद जानीपर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||मछली मर गयी जब उसे पानी से निकालाशेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दीना जाने कितनी स

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय हर किसी की ज़ुबाँ पर बस यही सवाल है करने वाले कह रहे, देश का बुरा हाल है|| नेता जी की पार्टी मे फेका गया मटन पुलाव जनता की थाली से आज रूठी हुई दाल है|| राशन के थैले का ख़ालीपन बढ़ने लगा हर दिन हर पल हर कोई यहाँ बेहाल है|| पैसे ने अपनो क

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तुम छोटी-छोटी बातों पर नाराज हो जाती हो, बस बहाना चाहिये तुम्हे तो रुठने के लिये, कितनी प्यारी लगती हो जब तुम कहती हो मैं नाराज हूँ तुमसे गाल फूला लेती हो और चेहरा अजीब सा बनाती हो तेरी रुठने वाली बातें याद आ जाती है, जब रूठता देखता हूँ छोटी-छोटी नन्ही-सी परियों क

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मैं नही जनता हूँ किक्या लिखता हूँ? हाँ, मगर मैं लिखता हूँ| मैं नही जनता कि गीत लिखता हूँ या गज़ल लिखता हूँ, हाँ,मगर मैं लिखता हूँ| अनजान हूँ अभी मैकाव्य सेमैं नही जानता कि कविता किसे कहते है,शायरी क्या होत

मदन छंद या रूपमाला छंद एक अर्द्धसममात्रिक छन्द है, जिसके प्रत्येक चरण में 14 और 10 के विश्राम से 24 मात्राए है, पदान्त गुरु-लघु से होता है। मापनी- 2122 2122 2122 21 “रूपमाला छंद” बोझ अब उठता नहीं है, बढ़ गया व्यभिचार हर गली कहने लगी है, आपसी हो प्यार घर सिकुड़ता जा र

"चौपई" महिमा महिमा जपते जाप, सिंघासन पर बैठे साप बाबा है बहुरुपिया छाप, मन में रखते पैसा पाप।। कहते सुन लो मेरी बात, तुम नहि करना मुझसे घात भगवन हूँ मैं मानों तात, देखों जमा किया खैरात।। छोड़ों कभी न मुझे अकेल, पहनों मुझसे नाक नकेल लक्ष्मी आएं छेलम छेल, माला मेरी होय

तेरी दहलीज़ पे, ना जाने क्यों रुक जाते हैं क़दम कहना है तुझ से बहुत कुछ, पर कह नहीं पाते हैं हम देख कर तुझ को, ना जाने क्यों होश गवाँते हैं हम ज़िंदगी तुझ से है, ना जाने क्यों समझा पाते हैं हम तेरी दहलीज़ पे, ना जाने क्यों रुक जाते हैं क़दम तेरी नज़रों से है मोहब्बत, ना जाने क्यों बता पाते हैं हम हँ

कोई मुस्कुरा कर भी दुखी हैऔर कोई बिना मुस्कुराए भी ख़ुश है कैसी विडम्बना है यह जीवन कीकोई आँसू बहा कर दुखी हैतो कोई आँसुओं को छुपा कर भी ख़ुश हैकैसी विडम्बना है यह जीवन की किसी के पास सब कुछ है पर मन भटकता रहता हैकिसी के पास कुछ नहीं फिर भी मन स्थिर है कैसी विडम्बना है यह जीवन कीकोई अपनों के पास हो

वो आँखों में आँखें डाल कर पहरों बैठना वो हाथों में हाथ थाम कर मीलों चलना वो साथ में बैठ कर घंटों संगीत सुनना वो रातों में घंटों फ़ोन पर बातें करनावो एक दूसरे को अपने हाथों से खाना खिलाना वो बीमारी में एक दूसरे के सिरहाने बैठ ढाँढस बढ़ानावो इम्तिहान की घड़ियों में एक दूसरे की हिम्मत बढ़ानावो रूठ कर,

जीते हैं सब अपने अन्दाज़ से ज़िंदगी कुछ की ज़िंदगी कट जाती है, दो जून की रोटी कमाने मेंतो कुछ, ज़िंदगी को तलाशते हैं महलों में कुछ, तलाशते हैं ज़िंदगी को हरी नाम में तो कुछ हरी को बेच कर, गुज़ारते हैं ज़िंदगी कुछ के लिए शोहरत का नाम है ज़िंदगी तो कुछ के लिए सिर्फ, गुमनामी है ज़िंदगी कुछ के लिए औरों

मापनी – २१२२ १२१२ २२ , समान्त – आली , पदांत – है “गीतिका” हिल रही है यह दिया ज़ोरों से आँधियाँ किसके घरों वाली है जल उठे दीपक लिए रोशनी लौ हिला देती निशा काली है॥ कल जलेंगी दीप की नवअवली शाम की दियरी शमा आली है॥ फूटते हैं जलकर पटाखे भी पर्व प्रकाश लिए खिली लाल

शीर्षक- तीर ,बाण ,शर ,नाराच “मुक्तक” अंगड़ाई भरने लगी, पुलकित सुबह अधीर केश सँवारे सांवरी, टपक रहे हैं नीर बूंद बूंद पीने लगे, कोरे चहक चकोर आगासी पर बादरी, लहराये जस तीर॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

“कुंडलिया” कैसे कैसे लोग हैं, कैसी कैसी चाल कैसी कैसी चातुरी, कैसी कैसी ढ़ाल कैसी कैसी ढ़ाल, पहनते हैं व्यविचारी चलते सीना तान, छद्म की करें सवारी कह गौतम चितलाय, बोलते द्रोही जैसे अपना घर विखराय, सुखी रह पाते कैसे॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

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हर दिन एक नया इल्ज़ामसमझ नहीं आता कि कैसे, बदलें अपना चाम कोई कहता कठमुल्ला तो कहता कोई वाम ताना कसते इस अंगने में नहीं तुम्हारा काम कैसे आगे आयें देखो लगा हुआ है जाम ये ही दुःख है हर घटना में लेते हमारा नाम कैसे आयें मुख्यधारा में भटक रहे दिनमान हर दिन एक नया इ

मॉं का आँचल थाम कररहता है ज्यूँ हर शिशु सुरक्षितमातृ-भाषा बरतने से ,हो यूँ ही व्यक्तित्व मुखरितज्ञान जितना भी जटिल होग्रहण कर लो सुगमता से"हिन्दी" है स्पष्ट , कोमल,सरल, पूरित सरसता से !!

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मैं वापिस आऊंगा - सूरज बड़त्या जब समूची कायनातऔर पूरी सयानात की फ़ौजखाकी निक्कर बदल पेंट पहन आपकी खिलाफत को उठ-बैठ करती-फिरती होअफगानी-फ़रमानी फिजाओं के जंगल मेंभेडिये मनु-माफिक दहाड़ी-हुंकार भरे....आदमखोर आत्माएं, इंसानी शक्लों में सरे-राह, क़त्ल-गाह खोद रहे होंसुनहले सपनों की केसरिया-दरियाबाजू खोल बुला

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियसब कुछ है धोखा कुछ कहीं नही हैहै हर कोई खोया ये मुझको यकीं हैना है आसमां ना ही कोई ज़मीं हैदिखता है झूठ है हक़ीकत नही है||उपर है गगन पर क्यो उसकी छावं नही है?है सबको यहाँ दर्द मगर क्यो घाव नही है?मै भी सो रहा हूँ, तू भी सो रहा हैये दिवा स्वपन ही और कुछ भी नही है||मैने बनाया

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहर पहर, हर घड़ी रहता है जागताबिना रुके बिना थके रहता है भागताकुछ नही रखना है इसे अपने पाससागर से, नदी से, तालाबो से माँगतादिन रात सब कुछ लूटाकर, बादलदाग काला दामन पर सहता यहाँ है||देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...हर दिन की रोशनी रात का अंधेराजिसकी वजह से है सुबह का सवेराअगर र

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