*ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि परिवर्तनशील है या यूँ कहें कि परिवर्तन ही सृष्टि का नियम है | यहां एक जैसा कभी कुछ नहीं रह पाता है | सुबह सूर्य निकलता है शाम को ढल जाता है , सृष्टि के जितने भी सहयोगी हैं निरंतर गतिशील है | यदि गतिशीलता को जीवन एवं विराम को मृत्यु कहा जाय तो गलत नहीं है | जो रुक गया समझ लो समाप्त हो गया | इस परिवर्तन को वही समझ पाता है जो धीर - गंभीर एवं ज्ञानी है , साधारण मनुष्य तो किंचित परिवर्तन से ही विचलित हो जाते हैं और रोने तक लगते हैं | परिवर्तन से कभी भी घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यदि जीवन में परिवर्तन नहीं होगा तो विकास भी संभव नहीं है | आदिकाल में जब सृष्टि की संरचना हुई तो पृथ्वी पर अधिकतर जंगल पाए जाते थे परंतु धीरे-धीरे मनुष्यों ने जनसंख्या में वृद्धि की और जंगल जो कि हमें जीवन देने वाले हैं धीरे-धीरे कम होते गए परंतु इस कमी को मनुष्य ने समझा और पुन: से पौधारोपण पर बल दिया | परिवर्तन सृष्टि का नियम तो है परंतु यह परिवर्तन जब सकारात्मक होता है तो मनुष्य को बड़ा हर्ष होता है वहीं नकारात्मक परिवर्तन मनुष्य के लिए कष्टकारी सिद्ध होता है | ऋतुयें बदलती रहती है इन ऋतुओं के परिवर्तन को सृष्टि का नियम मानकर जिस प्रकार लोग उसके अनुरूप अपने जीवन को ढालते हैं उसी प्रकार प्रत्येक परिवर्तन को सकारात्मक ढंग से लेते हुए जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए | इस परिवर्तन को बहुत ज्यादा मस्तिष्क में स्थान न दे करके मनुष्य को अपना कर्म करके रहना चाहिए क्योंकि मनुष्य के रोकने से यह परिवर्तन रुकने वाला नहीं है , हां यदि इस परिवर्तन को सकारात्मक करना है तो मनुष्य को सकारात्मक कर्म से विचलित ना हो करके उस पर बने रहना है | ईश्वर का बनाया हुआ यह संसार बहुत ही सुंदर है परंतु इस सुंदरता को देखने के लिए मनुष्य का मन एवं उसकी आंखें भी सुंदर होनी चाहिए | जहां मनुष्य का विवेक परिवर्तित होकर के नकारात्मक हो जाता है वही यह सृष्टि एवं इस सृष्टि में उपस्थित समस्त चीजें उसको नकारात्मक ही लगने लगती हैं | अपने कर्मों से मनुष्य अपने जीवन की दिशा एवं दशा को परिवर्तित कर सकता है |*
*आज हम परिवर्तन के युग में जीवन यापन कर रहे हैं | आदिकाल से लेकर अब तक बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है | मनुष्य का रहन सहन , बोली भाषा यहां तक कि उसके आचार विचार भी परिवर्तित हो चुके हैं | इस परिवर्तन में मनुष्य ने अपनी अनेक संस्कृतियों को भी बदल डाला है परंतु इतना सब होने के बाद भी समाज में मनुष्यता आज भी अपना कुछ अंश लिए विद्यमान है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस सृष्टिगत परिवर्तन से विचलित होते हुए सभी लोगों से यही कहना चाहूंगा कि विचलित होकर के कोई भी कार्य करना संभव नहीं है | मानव जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं समय चक्र एवं कर्मभोग से कोई भी बच नहीं सकता है | किसी दिन मनुष्य अनेकों प्रकार के व्यंजन खाने को पाता है तो किसी भी उसको भूखे ही रहना पड़ता है | जिस दिन मनुष्य को भूखा रहना पड़े उस दिन उसको विचलित नहीं होना चाहिए बल्कि यह विचार करना चाहिए कि शायद यही जीवन चक्र का परिवर्तन है | अनेक कथा वाचक आज समाज में कथा एवं सत्संग कर रहे हैं किसी दिन अनेकों श्रोता आ जाते हैं तो किसी दिन श्रोताओं की कमी पांडाल में दिखाई पड़ती है | ऐसे में कथावाचक को विचलित ना हो करके अपना कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि यदि सत्संग करने वाला विचलित हो जाएगा तो यह उसकी नकारात्मकता कही जाएगी | परिवर्तन से कोई भी बच नहीं पाया है इसलिए परिवर्तन को स्वीकार करना ही धैर्य एवं गंभीरता कही जा सकती है | इस जीवन में गंभीरता को अपनाते हुए परिवर्तन के अनुसार स्वयं को ढाल लेना ही बुद्धिमानी है |*
*एक सुंदर जगमगाते हुए दिन के बाद काली रात्रि भी होती है इस काली रात्रि को देख कर के यह नहीं समझना चाहिए कि अब अंधेरा हो गया बल्कि गंभीरता के साथ काली रात्रि के व्यतीत हो जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए क्योंकि उस काली रात के बाद एक सुंदर प्रभात भी आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है |*