*मानव जीवन में स्वाध्याय का बहुत बड़ा महत्व है | स्वाध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन करना | हम कौन हैं ?;कहां से आये ?? हमको क्या करना चाहिए ? और हम क्या कर रहे हैं ?? इसका ज्ञान हो जाना ही स्वाध्याय है | सनातन धर्म में स्वाध्याय एक वृहद संकल्पना है | जहां स्वाध्याय का अर्थ स्वयं का अध्ययन करना बताया गया है वहीं स्वाध्याय का एक अर्थ वेद - पुराण एवं अपने सद्ग्रंथों का अध्ययन करना भी है | सुचारू रूप से मानव जीवन जीने के लिए स्वाध्याय करना परम आवश्यक है | जीवन सुधार संबंधी पुस्तकों का अध्ययन करना , श्रवण , मनन , चिंतन आदि भी स्वाध्याय कहलाता है | मनुष्य यदि कुछ ना पढ़े तो स्वयं में आत्मचिंतन ही करता रहे तो भी वह स्वाध्याय का लाभ प्राप्त कर सकता है | इतिहास साक्षी है कि स्वाध्याय करने से ही हमारे महापुरुषों की जीवन दिशा परिवर्तित हो गयी है | स्वाध्याय तभी हो सकता है जब मनुष्य सत्संग करें | सत्संग एवं स्वाध्याय मानव जीवन के आधार स्तंभ कहे गये हैं | पूर्व काल में मनुष्य को पढ़ने के लिए इतनी पुस्तके नहीं उपलब्ध थी तब मनुष्य स्वाध्याय के माध्यम अपने जीवन को उच्च से उच्चतम बनाता था | शिक्षा प्राप्त करने का एक ही माध्यम हुआ करता था गुरुकुल | गुरु के गुरुकुल में जाकर के मनुष्य गुरुदेव के मुखारविंद से कहें गये सुंदर वचनों को सुनकर फिर उस पर अध्ययन , चिंतन , मनन करना और उस चिंतन से जो परिणाम निकलता उससे कुछ सीखना | इसी प्रकार का स्वाध्याय करके हमारे महापुरुषों ने अनेकों पुस्तके लिख डाली जिनका लाभ आज संपूर्ण मानव समाज ले रहा है | परंतु धीरे-धीरे युग परिवर्तित हुआ और मनुष्य व्यस्त होता चला गया तथा वह संसार की असीम भौतिक साधनों में लिप्त हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वाध्याय रूपी अनमोल रत्न उसके हाथ से खिसकता चला गया |*
*आज आधुनिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य इस प्रकार व्यस्त हैं कि वह स्वयं को भी नहीं समझ पा रहा है | मनुष्य अगले क्षण क्या कर देगा यह उसे स्वयं को भी नहीं पता होता | इस अनभिज्ञता का कारण है स्वाध्याय का न होना | जहाँ पूर्वकाल में पुस्तकों का अभाव होने पर भी हमारे पूर्वजों ने स्वाध्याय का आश्रय लेकर ज्ञानियों की श्रेणी में स्वयं को स्थापित करने में सफल हुए थे वहीं आज अनेकों धर्मग्रन्थ होने पर भी मनुष्य अनेक प्रकार की अज्ञानता करते हुए संकटों में घिर रहा है तो उसका मुख्य कारण है कि आज का मनुष्य स्वाध्याय से दूर हो गया है | आज मनुष्य न तो विधिवत् स्वयं के विषय में जान पा रहा है और न ही अपने धर्म के गूढ़ रहस्यों को | इसका प्रमुख कारण एक ही है कि आज के मनुष्य ने सतसंग एवं स्वाध्याय से स्वयं को दूर कर लिया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देखता हूँ कि मनुष्य अनेक विषयों पर असमंजस में पड़कर इधर उधर दोड़ता रहता है परंतु अपने घर में रखे धर्मग्रंथों का अध्ययन करके उस असमंजस से निकलने का मार्ग नहीं ढूंढ़ पाता | आज भी अनेक घरों में पूर्वजों के द्वारा संकलित अनेक धर्मग्रन्थ रखे हैं परंतु वे किसी सन्दूक या आलमारी में पड़े धूल ही खा रहे हैं क्योंकि आज हम उनको खोलकर देखना ही नहीं चाहते | ऐसा नहीं है कि सभी लोग एक जैसे हैं आज भी कुछ लोग इन धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय करके एक नवीन ज्ञान अपनी लेखनी के माध्यम से आम जनमानस को परोस रहे हैं परंतु दुखद यह है कि मनुष्य उनको पढ़कर वाह ! वाह !! करने के बाद उसमें परोसे गये अद्भुत ज्ञान को भूल जाता है | इसका मुख्य कारण यही है कि आज मनुष्य उस ज्ञान को आत्मसात करना ही नहीं चाहता क्योंकि आज स्वाध्याय करने की परम्परा ही समाप्त होती जा रही है | जबकि यह सत्य है कि मनुष्य कितना भी उपदेश सुन ले जब तक वह उस विषय पर आत्मचिंतन या स्वाध्याय नहीं करेगा तब तक वह उपदेश व्यर्थ ही है | अब समय आ गया है कि अपने घरों की शोभा बढ़ाने की वस्तु बन चुके अपने धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया जाय जिससे जीवन में उत्पन्न अनेक बाधाओं से निकलने का मार्ग तो मिलेगा ही साथ ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की ओर भी बढ़ने का अवसर प्रापेत होगा |*
*स्वाध्याय जीवन का एक प्रमुख अंग है , इससे किनारा करके सुख की कामना करना हास्यास्पद सा लगता है | अत: स्वाध्याय को नित्य कर्म में सम्मिलित करके जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास होना चाहिए |*