*हमारे देश भारत में आदिकाल से संस्कृति एवं संस्कार का बोलबाला रहा है | हमारी संस्कृति एवं संस्कार ने हीं भारत देश को विश्व गुरु की उपाधि दिलवाई थी | संस्कृति क्या है ? यदि इसके विषय में ध्यान दिया जाए तो संस्कृति का नाम ही संस्कार है , संस्कार से परिष्कार होता है और परिष्कार में भी संशोधन करके जो विधा हमको प्राप्त होती है उसी को संस्कृति कहा जाता है | किसी नवजात शिशु का जब जन्म होता है तो उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता है , माता-पिता के द्वारा उसे संस्कार दिया जाता है ! विगत संस्कारों को परिष्कृत करके उनका संशोधन किया जाता है तब जाकर के बालक एक उत्तम मानव की श्रेणी में आता है | इसीलिए हमारे देश में संस्कारों का बड़ा महत्व है क्योंकि इन्हीं संस्कारों के कारण हम विश्व गुरु बन पाए थे | संस्कार को प्राप्त करने के लिए अनेकानेक उपाय तो करने पड़ते हैं साथ ही दुर्गुणों का त्याग करके यत्र - तत्र - सर्वत्र से सद्गुणों का संचय आजीवन करते रहना पड़ता है | जिस प्रकार एक किसान के खेत में स्वयं अनेकों प्रकार के खरपतवार उग आते हैं और उर्वरक शक्ति को शोषित करने लगते हैं परंतु एक कुशल किसान समय-समय पर उन निरर्थक खरपतवारों को खोद कर अपने खेत से निकाल देता है और उत्तम प्रकार के बीजों का आरोपण करता है , तथा समय-समय पर उत्तम खाद व पानी देकर एक अच्छी फसल प्राप्त करता है | उसी प्रकार मानव जीवन में भी निरर्थक खरपतवार रुपी अवगुण स्वयं प्रकट होते रहते हैं जिन्हें मनुष्य को उसी कुशल किसान की तरह समय-समय पर उखाड़ कर फेंक देना चाहिए और महापुरुषों के द्वारा प्राप्त सद्गुणों का स्वयं में आधान करना चाहिए | ऐसा करने के लिए मनुष्य में संस्कार का होना बहुत आवश्यक है , बिना संस्कार के यह कर पाना संभव नहीं है | जिस प्रकार किसान को खेती करने के गुण और खेत में कब किस वस्तु की आवश्यकता है इसका ज्ञान होना आवश्यक है उसी प्रकार एक सफल मानव समय-समय पर अपने जीवन में संस्कारों को आरोपित करते हुए महामानव की श्रेणी में आ जाता है |*
*आज के युग में अवगुणों का बोलबाला स्पष्ट दिखाई पड़ता है | गुणों से भरे मार्ग पर चलने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं | सद्गुणों के लोप होने के कारण ही आज संसार अधोपतन की ओर जा रहा है | अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए एक अंधी दौड़ सी लगी हुई है | किसी को भी अपने कर्तव्य की ओर देखने उसे समझने तथा उस पर चलने की भावना ही नहीं रह गई है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज यह भी देख रहा हूं कि जिस बालक को माता-पिता के द्वारा पाल पोस कर उत्तम शिक्षा दिलाई जाती है भरण पोषण किया जाता है | ऐसा करने में माता-पिता जीवन भर की कमाई भी लगा देते हैं , उसी बालक के द्वारा वृद्धावस्था में अपने माता-पिता को सहारा नहीं दिया जा रहा है | यह अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ने के कारण ही हो रहा है | इसका कारण एक और भी है कि आज आधुनिक युग में माता-पिता अपने बच्चों को व्यवसायिक शिक्षा तो दिला रहे हैं परंतु उनमें संस्कारों का आरोपण नहीं कर पा रहे हैं | जिस परिवार में संस्कारों का चलन है वहां के माता-पिता आज भी वृद्धावस्था में सुखभोग कर रहे हैं , परंतु अधिकतर संतानें ऐसा नहीं कर पा रही तो इसमें सारा दोष संतानों का ही नहीं कहा जा सकता है | दोष माता - पिता का भी है जिन्होंने अपनी संतानों में संस्कृति और संस्कार का बीज नहीं बोया | जब संस्कार के बीज ही नहीं बोये गए हैं तो उनसे उच्च संस्कार रूपी फल की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है ? कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आज के आधुनिक युग में व्यवसायिक शिक्षा आवश्यक है तो अपनी संस्कृति एवं संस्कार का भी ज्ञान होना परम आवश्यक है अन्यथा किसी को दोष देना महज मूर्खता ही है |*
*जब बालक में बचपन से ही संस्कृति एवं संस्कार का आरोपण किया जाता है तो उसके अच्छे गुण एवं अच्छे संस्कारों में निरंतर वृद्धि होती रहती है और ऐसा बालक स्थान - स्थान से सद्गुणों को आत्मसात करता रहता है तथा महामानव की श्रेणी में आ जाता है |*