*इस संसार में आने के बाद जीव अनेकों प्रकार के बंधनों में जकड़ जाता है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने मानस में लिखा है " भूमि परत भा ढाबर पानी ! जिमि जीवहिं माया लपटानी !!" कहने का मतलब है कि जीव को माया चारों ओर से घेर लेती है , जिस के बंधन से जीव जीवन भर नहीं निकल पाता है | ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य लेकर इस संसार में आया हुआ जीव ईश्वर को ही भूलने लगता है | ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सर्वस्व निछावर करना पड़ता है या सर्वस्व का त्याग करना पड़ता है | सर्वस्व अर्थात सर्व में पूरा संसार आ जाता है , सब की ममता आ जाती है और स्व का अर्थ होता है स्वयं | स्वयं का क्या है ? स्वयं का अहंकार | जब तक संसार की ममता और स्वयं के अहंकार का त्याग नहीं होगा तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती | परम संत अनंत बलवंत हनुमंत लाल जी ने सभी प्रकार की ममता मोह का त्याग करके स्वयं के अहंकार का भी विनाश कर दिया तब उनको प्रभु की चरण शरण में स्थान मिला | जब हनुमान जी लंका जला कर वापस आए और प्रभु श्री राम ने पूछा हनुमान तुमने लंका को कैसे जलाया ? तब हनुमान जी का सीधा जवाब था "नाथ न कछू मोरि मनुसाई" अर्थात मैंने तो कुछ किया ही नहीं | मनुष्य के भीतर यह कर्ता का भाव अहंकार उत्पन्न करता है तथा मनुष्य स्व के भाव से जीवन भर बाहर निकल पाता और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है | यदि आवागमन से मुक्ति पानी है तो ईश्वर के चरणों में सर्वस्व निछावर करना ही पड़ेगा क्योंकि जब तक सर्वस्व का निछावर नहीं होगा तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती | मानस में स्वयं प्रभु श्री राम ने कहा है "सबकै ममता ताग बटोरी ! मम पद मनहिं बांध वर डोरी !!" सभी प्रकार के मोह ममता का त्याग करके प्रभु चरणों में स्वयं को समर्पित कर देना ही सर्वस्व समर्पण है , परंतु मनुष्य स्व के अहंकार में स्वयं का समर्पण नहीं कर पाता यही कारण है कि अनेकों यज्ञ , अनुष्ठान , जप , तप , साधना करने के बाद भी मनुष्य अपना कल्याण नहीं कर पाता |*
*आज के समाज में अनेकों लोग ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए अनेकों संसाधन के माध्यम से उपाय तो किया करते हैं परंतु उनको कुछ भी नहीं प्राप्त हो पाता | इसका कारण यही है कि उन्होंने सिर्फ ईश्वर से मांगना सीखा है ईश्वर के चरणों में कुछ भी समर्पित करना नहीं चाहते | आज कहने के लिए तो अनेकों लोग अपने परिवार का त्याग करके अन्यत्र चले जाते हैं और कहते हैं मैंने सर्वस्व त्याग कर दिया है परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि परिवार की मोह ममता का त्याग कर देने के बाद भी ममता का त्याग नहीं कर पा रहे हैं | परिवार का त्याग करने के बाद वे जहाँ रहने लगते हैं उस स्थान से वहाँ के लोगों से उनको प्रबल मोह एवं ममता हो जाती है | आज के लोग स्व का त्याग नहीं कर पा रहे हैं | स्वयं का अहंकार नहीं छोड़ पा रहे हैं , यही कारण है कि आज प्रत्येक स्थान पर विरोधाभास एवं द्वंद देखा जा सकता है | प्रत्येक धर्म के धर्माधिकारी आज स्वयं के अहंकार में जीवन यापन कर रहे हैं | कोई साधना करने के बाद मनुष्य के मन में स्वत: अहंकार के बीज प्रस्फुटित हो जाते हैं कि मैंने इतना जप किया यही भाव स्व का अहंकार हो जाता है | आज के आधुनिक युग में सर्वस्व निछावर करने वाला या सर्वस्व समर्पण करने वाला कोई भी नहीं दिखता है कहने को तो अनेकों लोग सब कुछ समर्पित करने का ढोंग करते दिख जाते हैं परंतु यदि उनसे पूछ लिया जाए यह किसने किया है तो बड़े गर्व से कहते हैं यह मैंने किया | विचार कीजिए उन्होंने कैसी ममता का त्याग किया है ? कैसे अहंकार को छोड़ा है ? जब तक मनुष्य सर्व एवं स्व का त्याग नहीं करेगा तब तक उसे प्रभु की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती |*
*ममता मोह का प्रसार समस्त सृष्टि में व्याप्त है और सभी प्रकार की बीमारियों की जड़ ममता को ही कहा गया है , जिस के बंधन में जकड़ा जीव जीवन भर इस बंधन मुक्ति नहीं पाता और इसी बंधन में बंधकर अनेकों कर्म किया करता है |*