*इस संसार में जितने भी जीव हैं सब ईश्वर की संतान हैं और सब में ही एक दिव्य आत्मा है और उस आत्मा के मध्य में परमात्मा का निवास है | यह मानते हुए प्रत्येक मनुष्य को परस्पर एकता , निश्चलता , प्रेम और उदारता का व्यवहार करना चाहिए | ऐसा करने से जीवन में अजस्र पवित्रता का अवतरण होने लगता है , सर्वत्र सद्व्यवहार के दर्शन होने लगते हैं | हमारे पूर्वजों ने यही किया था जिससे पूर्वकाल में आपसी सामंजस्य , प्रेम एवं मधुरता बनी हुई थी | पहले लोग एक दूसरे से आत्मा से प्रेम करते थे , किसी के कष्ट पर उनको भी आत्मिक कष्ट हो जाया करता था | प्रत्येक मनुष्य का जन्म परम लक्ष्य अर्थात ईश्वर की प्राप्ति करने के लिए हुआ है , हमारे पूर्वजों ने परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आत्मा से प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उनको परमात्मा की प्राप्ति भी हुई | इस शरीर को साधन मात्र मान करके आत्मा का जुड़ाव परमात्मा से करके उन्होंने दिव्य उदाहरण प्रस्तुत किया था | जब मनुष्य शरीर के लिए नहीं बल्कि अपनी आत्मा के लिए जीवन जीने लगता है तो समाज में असंतोष , कटुता एवं वैमनस्यता नहीं दिखाई पड़ती | यह दुर्गुण वही होते हैं जहां मनुष्य आत्मभाव को पीछे छोड़ कर सारे साधन शरीर के लिए ही करने लगता है | शरीर के लिए साधन न करके शरीर को ही साधन मानना मनुष्य को परम लक्ष्य के निकट ले जाने में सहायक हो सकता है अन्यथा जीवन भर भटकने के बाद भी कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता |*
*आज संसार में मनुष्य अपने परम लक्ष्य को भूल गया है |प्राय: लगभग सभी मनुष्य आत्मभाव को छोड़कर अपने शरीर के लिए ही जीवन जीने लगे हैं | शरीर की सुविधा और सजावट का ताना-बाना बाना बुनते - बुनते मनुष्य का जीवन व्यतीत हो जा रहा है | परम लक्ष्य क्या है ? उसकी प्राप्ति कैसे होगी ? यह मनुष्य को ध्यान ही नहीं रह गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि आज जिस प्रकार आज समाज में स्वार्थ का साम्राज्य बिखरा दिखाई पड़ रहा है उसके फलस्वरूप आने वाले भविष्य में सभी मनुष्य विघटन की ओर ही बढ़ेगे ! उनके व्यवहार एक दूसरे के लिए असंतोषजनक और असमाधान कारक ही बनेंगे | ़ ऐसी दशा में द्वेष और पराएपन की भावना बढ़ कर वातावरण को नारकीय क्लेश - कलह से भर देगी तथा यह संसार अशांति और विनाश की काली घटाओं से घिरने लगेगा | यदि इनसे बचना है तो मनुष्य को शरीर की सजावट करने की अपेक्षा अपनी आत्मा को अच्छे गुणों से सजाना होगा क्योंकि शारीरिक सुखों के लिए जीवन यापन करते रहने से ना तो कभी धर्म का उदय होगा और ना ही शांति प्राप्त होगी | जब आत्मभाव प्रकट होगा तो मनुष्य को दूसरों का दुख भी अपना दुख लगने लगेगा ऐसे में समाज में आत्मिक वातावरण का निर्माण होगा |*
*यदि मनुष्य अपने लिए ही जीवन जीता है तो मेरी समझ से उसमें और एक पशु में कोई विशेष अंतर नहीं रहता है इसलिए पशुता को छोड़कर के मनुष्यता को अपनाने का प्रयास किया जाय |*