*मनुष्य के मुख से निकली हुई वाणी का जीवन एवं व्यवहार में महत्त्व सर्वविदित है | वाणी का प्रयोग मनुष्य को सोच समझ कर करना चाहिए | कब बोलना है ! क्या बोलना है ! कब चुप रहना है ! यह व्यवहारिक जीवन की सफलता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाता है | आध्यात्मिक रूप से इसका महत्व और भी बढ़ जाता है | बिना सोचे कुछ भी बोलना किसी भी रूप में उचित नहीं रहता | ऐसे में बक-बक करने से नुकसान ही अधिक होता है लाभ कुछ भी नहीं | यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वाणी हमारे शक्तिकोश को लपेटे हुए अभिव्यक्त होती है जिसमें उर्जा का क्षय होता है | लगातार बोलना व्यक्ति को थका देता है साथ ही इसके कारण भूल चुक की संभावनाएं भी बढ़ जाती है | बिना इच्छा के भी मुख से गलत बोल निकलने लगते हैं ऐसा हो जाने के बाद मनुष्य के पास पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं बचता | बिना सोचे समझे अनावश्यक शब्दों का उपयोग व्यवहारिक जीवन को भी जटिल बना देता है | रिश्तो में दरार पड़ती है एवं आपस में गलतफहमियां जन्म लेने लगती हैं | बिगड़े बोल परिवार एवं इष्ट मित्रों के बीच कलह का कारण बन जाते हैं जिसे यदि संभाला ना गया तो स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जाती है | महाभारत का युद्ध वाणी की निरंकुशता के कारण ही हुआ था , यदि दोनों पक्ष की ओर से अपनी वाणी पर संयम रखा जाता तो शायद इतना विशाल संग्राम न होता | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को देश काल परिस्थिति के अनुसार क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए ! कहां बोलना आवश्यक है और कहां मौन रहना आवश्यक है इस पर विचार अवश्य करना चाहिए | जो बिना विचार किये , बिना उचित अवसर के अपना वक्तव्य देने लगता है वह अंततोगत्वा विघटन का कारण बन जाता है जिसका परिणाम पश्चाताप के रूप में समुपस्थित होता है ! परंतु पश्चाताप करने के बाद भी मुख से निकली हुई वाणी वापस नहीं लाई जा सकती ! इसलिए सदैव सोंच विचारकर ही उचित समय पर बोलना चाहिए अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर होता है |*
*आज बिना कुछ पूछे सलाह देने वालों की एक लम्बी कतार समाज में देखी जा सकती है | समाज में अनेक लोग ऐसे हैं जो बिना किसी आवश्यकता के भी बात बात पर अपनी सलाह दिया करते हैं | प्रत्येक बात पर टिप्पणी करना उनकी आदत हो जाती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्पष्ट रूप से समाज में देख रहा हूं कि आज मनुष्य यह विचार करना ही नहीं चाहता कि हमें कब ? कहां ?? और क्या ??? बोलना उचित है और कहां मौन रहने की आवश्यकता है | हमारे सनातन ग्रंथों में यदि "मौनं स्वीकृति लक्षणम्" कहा गया है तो "अति सर्वत्र वर्जयेत्" की घोषणा भी की गई है | कवियों ने भाव दिया है :- "अति का भला न बोलना अति की भली न चूप" ! कहने का सीधा का तात्पर्य है कि मनुष्य को कब कहां कैसे वाणी बोलनी है इस पर विचार अवश्य करना चाहिए ! क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य की एक मर्यादा होती है उसी प्रकार सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य के वाणी की मर्यादा भी होती है | समस्याएं वहीं उत्पन्न होती है जहां मर्यादा का उल्लंघन किया जाता है | इस संसार में सब की सीमा रेखा निश्चित है वाणी की मर्यादा भी सीमा रेखा के अंदर ही शोभायमान होती है | जो मनुष्य बिना सोचे समझे कहीं भी कुछ भी बोलने लगता है वह प्राय: विवाद का कारण बनता है इसीलिए मनुष्य को सदैव उचित स्थान पर , उचित समय पर , सोच समझ कर उचित वक्तव्य देना चाहिए ! जिस समाज में ऐसा होता है वहां आपसी सामंजस्य एवं प्रेम सद्भाव सदैव बना रहता है | अधिक बोलने से वाणी में स्वाभाविक रूप से हल्कापन आ जाता है और वाणी का हल्कापन व्यक्तित्व के हल्केपन को दर्शाने लगता है | इसलिए अपनी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए वाणी का प्रयोग करते समय विचार अवश्य कर लेना चाहिए |*
*बात बात में विवाद करना , अधिक बोलना , दूसरों की निंदा , चुगली , पीठ पीछे दूसरों की बुराई आदि करना मनुष्य के व्यक्तित्व को मिटाने लगती है और इससे मनुष्य की चारित्रिक दुर्बलता की झलक मिलने लगती है | ऐसा व्यक्ति समाज में अप्रमाणिक हो जाता है |*