“आशा रानी व्होरा, एक ज्योतिर्पुंज” उनकी सातवीं पुण्यतिथि पर समर्पित श्रद्धान्जली”
डॉ शोभा भारद्वाज
आशा रानी व्होरा एक ऐसा नाम है जिनके स्मरण मात्र से मन सम्मान से भर जाता है | सूर्य संस्थान आशा रानी जी की कर्म भूमि थी उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था जो सामने वाले को अपने प्रभाव में ले लेता था | उनका जन्म 7 अप्रेल 1921 को ननिहाल के गावँ दुल्हा तहसील चकवाल, जिला झेलम में पड़ता है हुआ अब विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा है उनकी ओजस्वी आँखे उनकी बहुर्मुखी प्रतिभा का दर्पण थीं |विवाह से पूर्व उनका नाम शकुन्तला था बचपन ग्वालियर के सामन्ती माहौल में बीता था वह केवल पन्द्रह वर्ष की थीं उनका विवाह हो गया विवाह के बाद उन्होंने हिदी प्रभाकर और समाजशास्त्र में एम ए किया उन्होंने लगभग 110 पुस्तकों की रचना की अब उन पर हिंदी विभाग की छात्राएं शोध कर रहीं हैं उन्हें विभाजन के बाद विस्थापन का दुःख झेलना पड़ा था उन्होंने लिखा था
वतन से विस्थापित होना,
एक सामूहिक दर्द है जो बट जाता है
इसी लिए,धीरे-धीरे कट जाता है
जीवन के दुखों को उन्होंने बड़े पास से देखा था इस लिए उनका मन सर्व साधारण के लिए दर्द से भर गया,यह दर्द उनकी सौ अधिक प्रकाशित रचनाओं में झलकता है| उनकी पुस्तकें पाठकों को सोचने समझने पर विवश कर देती हैं |वह समाज की समस्याओं को उठाती हैं और उनका निदान भी सुझाती हैं| उन्हें अनेक पुरुस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किया गया | उन्हें इस बात का बहुत गर्व था कि प्राचीन काल में स्त्रियों की गरिमा और स्वतन्त्रता का पूरा सम्मान किया जाता था |विवाह में पाणिग्रहण संस्कार के समय पति-पत्नी का हाथ पकड़ कर कहता था मेरे घर की साम्राज्ञी बनो उन्हें अपनी लिखी यह पंक्तियाँ बहुत प्रिय थी
‘आत्मा का विश्वास और सम्मान हो नीति हमारी ,माँग मत अधिकार नारी ‘
उनके अनुसार नारी की समानता की भावना पश्चिम की देंन है |हमारे यहाँ नारी को पुरुष से श्रेष्ठ मानते हैं माँ हमारे यहाँ सबसे ऊचें सिहांसन के योग्य है वह जन्म दात्री ही नहीं पालक भी है | कहते हैं ज्यों – ज्यों इन्सान की उम्र बढती है उसकी सोच पुरानी होती जाती है परन्तु इस प्रगतिशील चिंतक की सोच समय से आगे चलती थी ,यह आश्चर्य का विषय है उन्होंने हर वर्ग की औरत अभिजात्य वर्ग (प्रगतिशील ,बुद्धिजीवी ) से लेकर दबी कुचली औरत के दर्द को पास से जानने की कोशिश की है | ज्ञान , कला कोर्पोरेट जगत एवं प्रशासन में लगी महिलाओं का समय पर विवाह क्यों नहीं हुआ या उन्होंने क्यों नहीं किया ? यह उनका निजी मामला है उम्र निकल जाने पर हमारे यहाँ लड़की का विवाह कठिन हो जाता है भले ही वह कितनी योग्य हो लेकिन वह बड़ें ही दुःख के साथ लिखती हैं हमारा समाज यह कहता है जरुर लड़की में कोई खोट होगा इतनी उम्र तक कोई यूँ ही बैठी नहीं होगी | वह समाज की इस मानसिकता से दुखी हो जाती थी |उनके अनुसार इसमें लडकी का क्या दोष है ? यदि दोष है तो पुरुषों की मानसिकता का उन्हें अपने से ऊचे पद पर काम करने वाली पत्नी नही चाहिए इसे वह उनकी हींन भावना मानती थी क्योंकि कामकाजी महिलाओं को वह शक की नजर से से देखते हैं यदि विवाह हो भी जाता है तब भी घर में क्लेश रहता है और नौबत तलाक तक पहुँच जाती है |
अब तो घरेलू महिलाओं के घर भी सुरक्षित नहीं हैं उन्हें इस बात का भी दुःख था सस्ते साहित्य सिनेमा और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से यदि अवैध सम्बन्धों का चलन हो गया तो समाज का विघटन हो जाएगा | उन्हें इस बात का भी दुःख था आर्थिक कारणों से औरतें भी अपना घर ,गाँव व कस्बा छोड़ कर शहरों की और आ रही हैं | कई औरतों की दशा बहुत सोचनीय हैं इन्हें बहला फुसला कर नौकरी का झांसा दे कर शहरों में लाया जाता है यहीं से इनके शोषण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है इन्हें देह व्यापार में धकेल दिया जाता है पीछे लौटना भी संभव नहीं रह जाता |समाजिक कार्यकर्ता पुलिस की मदद से इन्हें छापा मार कर बचा कर लाते हैं इन महिलाओं को सुधार ग्रहों में रखा जाता है परन्तु कई संस्थाओं के अधिकारियों और पुलिस की मिली भगत से यह अवैध व्यापार चलता रहता है यही नहीं विधवा आश्रमों में भी यह कुकृत्य चलता है इन कुत्सित और घिनौनी स्थिति में से इन महिलाओं को निकाल कर उन्हें सुरक्षित स्थान पर रख कर उन्हें नये जीवन की शिक्षा दे कर आर्थिक रूप से मजबूत करना आसान काम नहीं है | कई औरतों की आदतें बिगड़ जाती हैं ,उन्हें पढाई – लिखाई सिलाई – कढ़ाई ,प्रार्थना एवं संगीत में व्यस्त रखा जाए | जिन महिलाओं पर केस चल रहा है , केस का जल्दी निपटारा कर उन्हें उनके परिवारों में वापिस भेजा जाए यदि परिवार उन्हें स्वीकार नही करते उनके विवाह की कोशिश की जाए जिससे उनका भी घर बस जाए |
आशा जी ने काल गर्ल की बढ़ती समस्या को भी नहों छोड़ा | कालगर्ल के नाम से नया व्यवसाय शुरू हो गया है इसमें पढ़ी लिखी सम्पन्न घरों की लड़कियाँ शामिल हो गई हैं रिश्वत के तौर पर जल्दी तरक्की पाने के लिए इन्हें धड़ल्ले से पेश किया जाता है इस पेशे में लगी लड़कियाँ अपने ग्राहकों को ब्वाय फ्रेंड कह कर उनकी संख्या बढ़ा चढा कर बताती हैं |ग्लैमर की दुनिया में अपना स्थान बनाने के लिए, महानगरों में अपना खर्च निकालने के लिए फिल्म थियेटर , गायन ,टी.वी. माडलिंग आदि की कुछ विफल हस्तियाँ भी इस क्षेत्र में आ जाती हैं | उनके पास बहाना होता है क्या करें ? पैसे की जरूरत है झेलना पड़ता है | कई शातिर ट्रेंड कालगर्ल स्कूलों – कालेजों में एडमिशन लेकर भोली भाली जरूरत मंद लड़कियों को फुसलाकर दलालों के चुंगल में फसा देती हैं | वह दलदल से निकलना भी चाहें तो निकल नहीं पाती क्योंकि मेहनत का रास्ता उन्हें मुश्किल लगता है | आशा जी का मानना था परम्पराओं का हम कितना भी विरोध क्यों न किया जाए भारतीय संस्कारों की जड़ें बड़ी गहरी होती हैं |
उनके अनुसार भारतीय नारी की समस्याओं को समान दृष्टि से नहीं देखा जा सकता कुछ आदिवासी समुदाय ऐसे हैं जो आज के आधुनिक समुदाय से भी आगे हैं वहां आसानी से तलाक भी हो जाता हें और दुबारा घर भी बस जाता हैं | आज निम्न वर्गों की स्त्रियाँ आत्मनिर्भर होने और पति से अधिक कमाने के बाद भी उनसे पिटती हैं | स्त्रियाँ मानव जाति से अलग नहीं हैं प्रसव के समय जीवन मृत्यु का संघर्ष सह कर बच्चे को जन्म देती हैं वही शिशु का मुहं देख कर सारा दुःख भूल जाती है .
किशोरावस्था में कई किशोर – किशोरियां भटक जाते हैं पढाई में मन नहीं लगता गलत संगत में पड़ कर घर से भाग जाते हैं आशा जी ने एक समाज शास्त्री के समान केवल समस्या ही नहीं उठाई बल्कि उनका समाधान भी खोजने की कोशिश की है उन्हें जवान किशोरों के नशे की गर्त में जाने का बहुत दुःख था जबकि यह राष्ट्र की ऊर्जा हैं | आज के समाज में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं निरंतर बलात्कार की शिकार हो रहीं है असफल प्रेम से निराश हो कर हत्या,आत्महत्या करना वा यौन हिंसा की और प्रवर्त होना विकट समस्या है | उन्हें इस बात का भी दुःख था भोले भाले बालक पर माता पिता अपनी महत्वकांक्षायें लाद देते हैं जो कैरियर वह स्वयं नहीं ले पाए अपने बच्चे को देना चाहते है उसे सब सुविधाएं देते हैं |एक-एक नम्बर कम होने का हिसाब उनसे लिया जाता है जबकि जीवन की दृष्टि से परिवार ,समाज रोजगार तीनों पक्षों का समान महत्व हैं उनकी इस कविता में जीवन का सत्य उजागर होता है –
‘प्रकृति से दूर जाकर ,अपार धन कमा कर ,
हम फिर लौट रहे हैं प्रकृति में , फ़ार्म हाउस संस्कृति में
पद्मश्री शीला झुनझुन के अनुसार आशा जी एक संस्था थीं ,वह कुशल संगठन कर्ता एवं संचालक भी थी आशा जी के अनुसार यदि संस्कार सहीं होंगे तो व्यक्तित्व का भी सही विकास होगा इस लिए उन्होंने नोएडा विकास प्राधिकरण से स्थान लेकर अपनी समस्त पूँजी लगा कर सत्तर वर्ष की अवस्था में सूर्या संस्थान ‘की स्थापना की ,पहले उन्होंने नन्हे बच्चों के लिए अंकुर शिशु संस्कार संस्थान केंद्र ‘,पल्लव बाल भवन (नर्सरी )व बाल पुस्तकालय द्वारा बच्चों में संस्कार डालने का प्रयत्न किया |
उन्होंने सूर्या संस्थान के साथ देश भर के बुद्धिजीवियों को जोड़ा ,यहाँ भाषाई आदान- प्रदान के लिए अनुवाद प्रशिक्षण वा भाषा गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है , जिसमें विभिन्न भाषाओं के लेख क एकत्रित होकर अपने विषयों की चर्चा करते हैं उन्होंने एक शोध पुस्तकालय भी चलाया आशा जी ने सूर्या संस्थान को अपना जीवन अर्पित कर दिया |साधन हीनता एवं धन की कमी के बावजूद लडकियों के लिए अनेक योजनायें बनाई गई और उन्हें पूरा करने के लिए वह लगन से जुट गई | वह चाहती थी हर लडकी व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर पैरों पर खड़ी हो सकें |यहाँ लडकियों के लिए सूर्याशा पौलीटेक्निक के नाम से एक व्यवसायिक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गयी जिसमें अनुभवी प्रशिक्षको द्वारा लडकियों को कम्प्यूटर की शिक्षा दी जाती है अभी लडकियों की ट्रेनिग समाप्त भी नहीं होती उन्हें नौकरी का बुलावा आने लगता है यहाँ सिलाई केंद्र इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स ब्यूटीशियन कोर्स भी चलता है कम उम्र से लेकर बड़ी लडकियों को जूडो- कराते की ट्रेनिंग नोएडा पुलिस के सहयोग से दी गई |यहाँ न के बराबर शुल्क पर हुनर सिखाया जाता है यदि कोई परिवार शुल्क देने में असमर्थ है उससे कोई शुल्क नहीं लिया जाता |
आशाजी की इच्छा का मूर्त रूप सूर्या संस्थान है |आशा जी के अनुसार –
“बड़ा ही कंजूस होता है बुढ़ापा बच गये समय को,गिन-गिन कर खर्च करता हैं”
1 दिसम्बर 2009 अभी सूर्योदय नहीं हुआ था सूर्या संस्थान के हर बच्चे वा बड़ों की माता जी , हर औरत के दुःख में दुखी होने वाली और उनकी भलाई का उपाय सोचने वाली वा अपने पाठकों की आशा रानी व्होरा चिर निद्रा में सदैव के लिए सो गई रह गई उनकी पंक्तियाँ -
“कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता
यहाँ भाड़ नहीं पहाड़ फोड़े हैं ,
हालात के हाथों के कान मरोड़े हैं ‘
आज वह हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनके संस्थान में 400 लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त कर रहीं हैं |
यह मेरे द्वारा लिखित “लेख पाँचवाँ स्तम्भ” सम्पादक महामहिम गोवा की राज्यपाल मृदुला जी की पत्रिका में छपा था श्रीमती आशा रानी व्योरा की पुण्य तिथी पर इस लेख को पुन:जागरण जंक्शन के पाठकों के लिए , एवं नवभारत टाईम्स के ब्लॉग में लिखा 30.12.2016| में दैनिक वर्तमान अंकुर में छपा