*इस संसार में राजा - रंक , धनी - निर्धन सब एक साथ रहते हैं | इन सबके बीच दरिद्र व्यक्ति भी जीवन यापन करते हैं | दरिद्र का आशय धनहीन से लगाया जाता है जबकि धन से हीन व्यक्ति को दरिद्र कहा जाना उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि धन से दरिद्र व्यक्ति भी यदि विचारों का धनी होते हुए सकारात्मकता से जीवन यापन कर रहा है तो वह संसार की दृष्टि में भले ही दरिद्र हो परंतु वह विचारों का धनी होता है और उसे संतोष नाम सर्वश्रेष्ठ धन का स्वामी होता है | दरिद्रता का आशय मात्र धनाभाव व सुख सुविधाओं से वंचित होना नहीं अपितु दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीन भाव है जो दूसरों की अपेक्षा स्वयं को गुणों , सामर्थ्य , सत्ता एवं योग्यता में कम समझता हो | दरिद्र वह नहीं है जिसके पास खाने के लिए भोजन नहीं , रहने के लिए घर नहीं , पहनने के लिए वस्त्र नहीं या जीवन निर्वाह के लिए समुचित संसाधन नहीं है बल्कि सत्य तो यह है कि इस संसार में सबसे बड़ी "वैचारिक दरिद्रता" कही गया है | धनी होने के बाद भी यदि मनुष्य में वैचारिक धन नहीं है तो वह संसार का सबसे बड़ा दरिद्र है | विचारों की सम्पन्नता जिसके पास होती है वह संतोषी होता है और जिसे संतोष है वह धन से तो दरिद्र कहा जा सकता है परंतु वह दरिद्र है नहीं |असली दरिद्रता मनुष्य की तब दृष्टिगत होती है जब प्रचुर संसाधनों के होते हुए भी मनुष्य स्वयं को दरिद्र , विपन्न , असमर्थ , असहाय व शक्तिहीन मानने को विवश हो जाता है | सबकुछ होते हुए भी यदि यह भाव हृदय में आता है तो समझ लीजिए कि सम्बन्धित व्यक्ति विचारों से दरिद्र है |*
*आज समाज में चारों ओर दरिद्र ही दरिद्र दिखाई पड़ते हैं यद्यपि पहले की अपेक्षा आज धन की प्रचुरता तो दिखाई पड़ती है परंतु मनुष्य विचारों से दरिद्र सा हो गया है | मनुष्य आज एक ही विचार को प्रमुखता देता है कि कितनी जल्दी अधिक से अधिक धन कमा लिया जाय , बड़े से बड़े पद पर पदासीन हो जाया जाय ! और जब मनुष्य अपने प्रयास में असफल हो जाता है या उसको उसके आशानुरूप परिणाम नहीं मिलता है तो वह दुखी हो जाता है | मनुष्य को कभी संतोष नहीं होता है और यही असंतोष का भाव उसे वैचारिक दरिद्र बना देता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि दरिद्र व्यक्ति में भी यदि संतोष है तो वह दरिद्र नहीं है क्योंकि कहा गया है कि :-- "गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान ! जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान !!" अर्थात :- मनुष्य के पास गाय , हाथी , घोड़े एवं प्रचुर मात्रा में हीरे - जवाहरात आदि भरे पड़े हों परंतु उसे अपनी इस सम्पत्ति पर भी संतोष न हो तो वह धनी नहीं अपितु दरिद्र ही कहा जाता है वहीं किसी निर्धन को यदि अपनी आय एवं जीवनयापन के कुछ संसाधनों पर भी संतोष है तो उसके लिए संसार के सभी धन धूल के समान होते हैं | मनुष्य को सदैव सकारात्मक विचारों के साथ जीवन यापन करना चाहिए क्योंकि विचारों की विपन्नता / दरिद्रता मनुष्य को सुखी जीवन नहीं जीने देती | आज समाज में जिस प्रकार कुछ मनुष्यों के कुकृत्यों से त्राहि - त्राहि मची हुई है उसका मुख्य कारण यही है कि मनुष्य आज सबकुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी विचारों से दरिद्र होता जा रहा है | मनुष्य को विचारों का धनी होना चाहिए |*
*जब तक मनुष्य में सकारात्मक वैचारिकता नहीं होगी तब तक मनुष्य धनी होते हुए भी दरिद्र ही रहेगा | अत: मनुष्य को अपने हृदय में विचारों की सम्पन्नता बढ़ानी चाहिए यदि ऐसा हो गया तो मनुष्य धनहीन होते हुए भी दरिद्र नहीं कहा जा सकता |*