जामिया में हिंदू स्टूडेंट्स से भेदभाव की खबर ने मुझे चौंका दिया. ऐसा मुमकिन ही नहीं है कि आप अपने ‘अल्मा मैटर’ से लगाव महसूस ना करें. भेदभाव की न्यूज से मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि आखिर ऐसी क्या बात रही होगी कि एक शिक्षण संस्थान, जो कि किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी से कम नहीं है, वहां इस किस्म की घटना होती है. वो भी सांप्रदायिक.
इस मामले को समझने के लिए यूनिवर्सिटी की लोकेशन को समझना जरुरी है. जामिया मिलिया, मुस्लिम बहुल इलाके जामिया नगर में है. यहां पे सड़कें इतनी संकरी हैं कि स्कूटर और रिक्शा का एक साथ निकलना मुश्किल है. ये वो एरिया है जहां बाटला हाउस है. इस इलाके का कितना डर है, ये जानना हो तो किसी ऑटोवाले को शाम ढलने के बाद जामिया नगर चलने के लिए पूछिए. आपको पता चल जाएगा मैं किस डर की बात कर रही हूं. जामिया में पढ़ने वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स जामिया नगर में ही रहते हैं.
मैंने 2010 में मास्टर्स के लिए जामिया के ‘नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कंफ्लिक्ट रेजोल्यूशन’ में एडमिशन लिया. कॉलेज आपको बहुत कुछ देता है. मेरे लिए कॉलेज का मतलब सेमिनार, वर्कशॉप, डिबेट और डिस्कशन ही था. ऐसे कार्यक्रमों में लोगों से मिलने और एक्सपर्ट्स को सुनने का मौका मिलता है. मगर कई बार मेरे दिमाग में सवाल आता था कि क्यों कुछ खास मुद्दों को ही डिबेट या डिस्कशन का थीम बनाया जाता है. जामिया के स्टूडेंट के तौर पर मुझे फील होने लगा था कि दुनिया में सिर्फ दो ही मुद्दे हैं. पहला कश्मीर समस्या और दूसरा फिलीस्तीन में इजराइल का अत्याचार. मुझे लग गया था कि प्रशासन जानबूझ कर ऐसे सेंसिटिव मुद्दों में स्टूडेंट्स को उलझाए रखता है ताकि उनका ध्यान पढ़ाई की खराब होती हालत पर ना जाए. यहां पर पढ़ाई का मतलब था कि टीचर्स वो पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन क्लास में ले के आते थे, जो उन्होंने तब बनाया जब वो पहली बार इस प्रोफेशन में आए. इतना ही नहीं वो स्टूडेंट्स से जबरदस्ती इसे नोट भी करवाते थे.
जामिया में जेएनयू की तरह ढाबे पर बहसबाजी का कल्चर नहीं है. यहां पर स्टूडेंट्स कैंटीन में भी आते हैं तो सिर्फ कुछ देर के लिए.
अटेंडेंस सिस्टम यहां पर सख्त और ज़बरदस्ती थोपा गया है. ये काम किया जामिया के वाइस चांसलर नजीब जंग ने. उनके तानाशाही रवैये ने ना सिर्फ कॉलेज लाइफ का मतलब खत्म कर दिया बल्कि विचारों के आदान प्रदान के खुले माहौल को भी खत्म कर दिया.
स्टूडेंट्स के मुद्दों को दिखाने वाले पोस्टर्स को सुबह लगाया जाता था. शाम होते-होते वो गायब भी हो जाते थे. ना सवाल पूछे जाते थे ना जवाब दिया जाता था. छात्रसंघ ना होने की वजह से ऐसे मुद्दों पर एकजुटता नहीं बन पाती थी. जामिया में छात्रसंघ 2006 में बैन कर दिया था. कश्मीर और फिलीस्तीन पर बहस करते-करते जामिया खुद संकीर्णता का शिकार हो गया. स्टूडेंट्स को एग्जाम में बैठने से रोकना, फीस में बढ़ोतरी, हॉस्टल्स का ना होना, इंटर्नशिप पूरा ना करने देना जामिया में कभी बहस के मुद्दे नहीं बनते. जबकि ये मुद्दे हिंदू और मुसलमान दोनों को बराबर प्रभावित करते हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के समर्थन में जामिया के स्टूडेंट्स ने आवाज़ उठाई. ये पहला मौका है जब मुझे लगा कि जामिया के पास भी अपनी आवाज़ है. जामिया के लिए ज़रूरी है कि उन ताकतों के खिलाफ़ लड़े जो कि बोलने की आजादी के खिलाफ हों, जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ हों और जो एक यूनिवर्सिटी के अपने यहां तस्वीर लगाने के अधिकार को भी छीनना चाहते हों. इन सब मुद्दों के अलावा और कई बड़े मुद्दे हैं जिनके लिए जामिया को लड़ना है.
जामिया एक माइनॉरिटी इंस्टीट्यूट है या नहीं, ये अभी भी बहस का मुद्दा है. इसे सुलझने में वक्त लगेगा. जामिया में फंक्शनल प्लेसमेंट सेल नहीं है. ये अपने छात्रों को जॉब मार्केट के हिसाब से तैयार नहीं कर पाता.
इन सब के बाद सवाल उठता है कि,
क्या मुझे हिंदू होने के नाते भेदभाव झेलना पड़ा?
मेरा जवाब है- नहीं, कभी नहीं, एक सेकंड के लिए भी नहीं.
यहां पर हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्म ों के स्टूडेंट्स परेशान हैं क्योंकि जामिया अपने सेंट्रल यूनिवर्सिटी के तमगे को जस्टिफाई करने में फेल हुआ है. और मुझे लगता है यही सबसे बड़ा अन्याय है.
Ex Jamia Millia student sharing her experiences about religion based discrimination in university