जुलाई 2017 में मुंबई हाईकोर्ट ने साउथ रीजन के एडिशनल कमिश्नर ऑफ़ पुलिस को निर् देश दिया था कि मोहर्रम के जुलुस में बच्चों को कोई नुकसान न हो ये सुनिश्चित करें. इसके लिए वे शिया समुदाय के प्रमुख संगठनों और धर्म गुरुओं के साथ बैठक करें. मोहर्रम मनाने में बच्चे भाग न लें. ताकि वो जख्मी न हो, इसपर शिया समुदाय खुद विचार करे. अगर इसपर सहमति बन जाती है तो यह पुलिस का काम है कि वे इस पर अपनी नजर रखे.
इस मातम करने को लेकर मुंबई हाईकोर्ट में जज आर एम सावंत और जज साधना जाधव की खंडपीठ जनहित याचिका पर स्वतः सं ज्ञान लेकर सुनवाई की थी. ये याचिका फैसल बनारसवाला ने दायर की थी. जिसमें ह्यूमन राइट्स की बात करते हुए, बच्चों के जुलूस में शामिल होने पर रोक लगाने की मांग की गई थी.
आज हम मुहर्रम पर बात करेंगे. क्या है मोहर्रम? क्यों शिया मुस्लिम खुद को खंजर, तलवार से ज़ख़्मी करते हैं? क्यों आग पर नंगे पैर चलते हैं?
जस्टिस सावंत ने कहा था,
‘ये गंभीर इशू है. जो बच्चों की सेफ्टी से जुड़ा है. जिसे शिया कम्युनिटी, संगठनों से बात कर इस पर रोक लगाई जाए कि बच्चे मोहर्रम की उस रस्म में शामिल न हो, जिससे वो ज़ख़्मी हो.’ हाई कोर्ट ने कहा कि बैठक की रिपोर्ट मिलने के बाद ही इस साल होने वाले मोहर्रम से पहले फैसला लिया जाएगा.
क्या है मोहर्रम?
मोहर्रम इस्लामिक कैलंडर का पहला महीना है. जो बकरीद के आखिरी महीने के बाद आता है. मोहर्रम सिंबल है कर्बला की जंग का, जो इराक़ में मौजूद है. कर्बला आज इराक़ का एक प्रमुख शहर है. जो इराक़ की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर है. कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है. क्योंकि ये वो जगह है जहां इमाम हुसैन की कब्र है. दुनियाभर से शिया मुस्लिम ही नहीं बाकी सुन्नी मुसलमान भी इस जगह जाते हैं. कर्बला में होने वाली जंग इस्लामिक जंगों में सबसे अलग जंग कही जाती है. क्योंकि इस जंग में इमाम हुसैन को क़त्ल कर दिया गया था.
कौन हुसैन?
वही हुसैन, जो सुन्नी मुस्लिमों के चौथे खलीफा और शिया मुस्लिम के पहले इमाम कहे जाने वाले हजरत अली के बेटे थे. ये वो हुसैन हैं जो पैगंबर (अल्लाह का दूत) मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के बेटे थे. 6- 7 साल के थे तभी उनकी मां इस दुनिया छोड़कर रुखसत हो गई थीं. ये वो हुसैन हैं, जिनको कर्बला में खंजर से गला काटकर मारा गया.
मुस्लिमों के मुताबिक कर्बला की जंग दो शहजादों की जंग नहीं थी. बल्कि ये इस्लाम की वो जंग थी. जिसमें एक तरफ हुसैन थे. और दूसरी तरफ यज़ीद था. हुसैन चाहते थे, वो दीन-ए-इस्लाम चले, जो उनके नाना (मुहम्मद साहब) ने चलाया. यजीद चाहता था कि सबकुछ उसके मुताबिक हो. यज़ीद पावर में था. वो उस वक़्त का खलीफा बन बैठा था. मुस्लिम इतिहासकारों के मुताबिक वो हुसैन से अपनी बात मनवाने के लिए संधि करना चाहता था कि वो इस्लाम, इस्लाम की बात न करें. और जैसा वो कहे वैसा करें. लेकिन हुसैन ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया. कहा हक़ बात करूंगा. कुरान की बात करूंगा. अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब उसके पैगंबर हैं ये कहना नहीं छोडूंगा.
तो ऐसा क्या हुआ कर्बला की जंग में जो शिया मुस्लिम खुद को जख्मी कर लेते हैं?
आखिर कर्बला में क्या हुआ था जिसके लिए मुस्लिमों का एक धड़ा (शिया) पूरे सवा दो महीने शोक मनाता है, अपनी हर खुशी का त्याग कर देता है. मातम (सीना पीटना) करता हैं. और हुसैन पर हुए ज़ुल्म को याद करके अश्क बहाता है. ऐसा करने वाले सिर्फ मर्द ही नहीं होते, बल्कि बच्चे, बूढ़े और औरतें भी मातम करती हैं. बस औरतें हाथ से ही सीना पीटती हैं. वो तलवार से खुद को ज़ख़्मी नहीं करतीं.
मुसलमानों के मुताबिक हुसैन कर्बला अपना एक छोटा सा लश्कर लेकर पहुंचे थे, उनके काफिले में औरतें भी थीं. बच्चे भी थे. बूढ़े भी थे. इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 2 मोहर्रम को कर्बला पहुंचे थे. 7 मोहर्रम को उनके लिए यजीद ने पानी बंद कर दिया था. और वो हर हाल में उनसे अपनी स्वाधीनता स्वीकार कराना चाहता था. हुसैन किसी भी तरह उसकी बात मानने को राज़ी नहीं थे.
9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने रोशनी बुझा दी और अपने सभी साथियों से कहा, ‘मैं किसी के साथियो को अपने साथियो से ज़्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता. कल के दिन यानी 10 मोहर्रम (इस्लामी तारीख) को हमारा दुश्मनों से मुकाबला है. उधर लाखों की तादाद वाली फ़ौज है. तीर हैं. तलवार हैं और जंग के सभी हथियार हैं. उनसे मुकाबला मतलब जान का बचना बहुत ही मुश्किल है. मैं तुम सब को बखुशी इजाज़त देता हूं कि तुम यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, अंधेरा इसलिए कर दिया है कभी तुम्हारी मेरे सामने जाने की हिम्मत न हो. यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं. यजीद की फ़ौज उसे कुछ नहीं कहेगी, जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा.’ ये कहने के बाद हुसैन ने कुछ देर बाद रोशनी फिर से कर दी, लेकिन एक भी साथी इमाम हुसैन का साथ छोड़ के नहीं गया.
आज लाउडस्पीकर से अज़ान होती हैं. मुसलमान लाउडस्पीकर को बचाने के लिए आवाजें बुलंद करते हैं. लेकिन नमाज़ के लिए मस्जिद नहीं पहुंचते. ये इमाम हुसैन थे, जब 10 मोहर्रम की सुबह हुई. और कर्बला में अज़ान दी गई तो इमाम हुसैन ने नमाज़ पढ़ाई. यज़ीद की तरफ से तीरों की बारिश होने लगी. उनके साथी ढाल बनकर सामने खड़े हो गए. और सारे तीरों को अपने जिस्म पर रोक लिया, मगर हुसैन ने नमाज़ कंप्लीट की.
इसके बाद दिन छिपने से पहले तक हुसैन की तरफ से 72 शहीद हो गए. इन 72 में हुसैन के अलावा उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शामिल थे. इनके अलावा शहीद होने वालों में उनके दोस्त और रिश्तेदार भी शामिल रहे. हुसैन का मकसद था, खुद मिट जाएं, लेकिन वो इस्लाम जिंदा रहे जिसको उनके नाना मोहम्मद साहब लेकर आए.
मुस्लिम इतिहासकारों के मुताबिक अली असगर की शहादत को बड़े ही दर्दनाक तरीके से बताया जाता है. जब हुसैन की फैमिली पर खाना पानी बंद कर दिया गया. और यजीद ने दरिया पर फ़ौज का पहरा बैठा दिया, तो हुसैन के खेमों (जो कर्बला के जंगल में ठहरने के लिए टेंट लगाए गए थे) से प्यास, हाय प्यास…! की आवाजें गूंजती थीं. इसी प्यास की वजह से हुसैन के छह महीने का बेटा अली असगर बेहोश हो गया. क्योंकि उनकी मां का दूध भी खुश्क हो चुका था. हुसैन ने अली असगर को अपनी गोद में लिया और मैदान में उस तरफ गए, जहां यज़ीदी फ़ौज का दरिया पर पहरा था.
हुसैन ने फ़ौज से मुखातिब होकर कहा कि अगर तुम्हारी नजर में हुसैन गुनाहगार है तो इस मासूम ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. इसको अगर दो बूंद पानी मिल जाए तो शायद इसकी जान बच जाए. उनकी इस फरियाद का फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ. बल्कि यजीद तो किसी भी हालत में हुसैन को अपने अधीन करना चाहता था. यजीद ने हुर्मला नाम के शख्स को हुक्म दिया कि देखता क्या है? हुसैन के बच्चे को ख़त्म कर दे. हुर्मला ने कमान को संभाला. तीन धार का तीर कमान से चला और हुसैन की गोद में अली असगर की गर्दन पर लगा. छह महीने के बच्चे का वजूद ही क्या होता है. तीर गर्दन से पार होकर हुसैन के बाजू में लगा. बच्चा बाप की गोद में दम तोड़ गया.
71 शहीद हो जाने के बाद यजीद ने शिम्र नाम के शख्स से हुसैन की गर्दन को भी कटवा दिया. बताया जाता है कि जिस खंजर से इमाम हुसैन के सिर को जिस्म से जुदा किया, वो खंजर कुंद धार का था. और ये सब उनकी बहन ज़ैनब के सामने हुआ. जब शिम्र ने उनकी गर्दन पर खंजर चलाया तो हुसैन का सिर सजदे में बताया जाता है, यानी नमाज़ की हालत में.
मुसलमान मानते हैं कि हुसैन ने हर ज़ुल्म पर सब्र करके ज़माने को दिखाया कि किस तरह ज़ुल्म को हराया जाता है. हुसैन की मौत के बाद अली की बेटी ज़ैनब ने ही बाकी बचे लोगों को संभाला था, क्योंकि मर्दों में जो हुसैन के बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे थे. वो बेहद बीमार थे. हुसैन को क़त्ल करने के बाद उनके घरों में आग लगा दी गई थी. जितनी औरतें बच्चे बचे थे उन्हें एक ही रस्सी में बांधकर यजीद के दरबार ले जाया गया था.
यजीद ने सभी को अपना कैदी बनाकर जेल में डलवा दिया था. मुस्लिम मानते हैं कि यज़ीद ने अपनी सत्ता को कायम करने के लिए हुसैन पर ज़ुल्म किए. इन्हीं की याद में शिया मुस्लिम मोहर्रम में मातम करते हैं और अश्क बहाते हैं. मोहर्रम में मातमी जुलूस निकालकर वो दुनिया के सामने उन ज़ुल्मों को रखना चाहते हैं जो इमाम हुसैन और उनकी फैमिली पर हुए. खुद को ज़ख़्मी करके दिखाना चाहते हैं कि ये ज़ख्म कुछ भी नहीं हैं. जो यजीद ने इमाम हुसैन को दिए.
इस मातम पर सुन्नी मुस्लिम एतराज़ जताते हैं. वो इसे बिदअत कहते हैं, यानी ऐसा काम जिसकी सज़ा अल्लाह देगा. अब इस मातम को लेकर सुन्नी मुस्लिम की तरफ से ही मुंबई हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है, जिसमें बच्चों को आधार बनाया गया है. शिया मुस्लिम का कहना है कि 14 सौ साल से मातम करते आ रहे हैं शिया. लेकिन कभी किसी की मौत मोहर्रम में तलवार या खंजर से मातम करने की वजह से नहीं हुई. बल्कि ये ज़ख्म महज़ गुलाब जल छिड़कने से ही भर जाते हैं. शिया मुस्लिम तलवार सिर पर मारते हैं, कमर पर खंजर मारते हैं. सीने पर ब्लेड से मातम करते हैं. और इनकी मरहम पट्टी नहीं कराते हैं बल्कि गुलाब जल ही छिड़कते हैं.
इसी मातम में बच्चे भी शामिल होते हैं, जिसको लेकर अब मुंबई हाईकोर्ट ने निर्देश दिए हैं. कि पुलिस अफसर सुनिश्चित करें कि बच्चों को कोई नुकसान न पहुंचे. शिया के लिए मामला धर्म और श्रद्धा से जुड़ा है.