11 मार्च 1942. फागुन का मौसम था. शाम के 8 बज रहे थे. दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था. इंडिया में इससे जुड़ी हर खबर आतंकित करती थी और रोमांचित भी. लोग रेडियो सुना करते थे. बीबीसी लंदन से प्रसारित खबरें. कहां क्या हुआ. क्या किया हिटलर ने, क्या किया अंग्रेजों ने.
रेडियो प्रसारक ने मुख्य समाचार पढ़ना शुरू किया. पर इस बुलेटिन की शुरुआत युद्ध के मोर्चे की खबर की बजाए भारत की खबर से हुई. खबर यह थी कि ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ कॉमंस नेता सर स्टेफोर्ड क्रिप्स भारत को स्वायत्तता देने के मिशन पर इसी महीने भारत पहुंच रहे हैं
क्रिप्स धुरंधर थे, समाजवाद के नाम पर रूस और जर्मनी को एक नहीं होने दिया था
यह वो दौर था जब क्रिप्स का कूटनीति के मामले में दुनिया भर में लोहा माना जाता था. लेबर पार्टी का यह नेता भारत आने से पहले 1939 में एक गैर सरकारी दौरे पर रूस गया था. वहां इत्तेफाकन उन्हें ब्रिटेन का राजनयिक नियुक्त कर दिया गया था. दूसरे विश्वयुद्ध से पहले हिटलर और स्टालिन बाज दफा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गलबहियां करते देखे गए थे. हिटलर खुद को समाजवादी कहता था. ऐसे में स्टालिन के पास हिटलर को स्वीकार ना करने की कोई वैचारिक मजबूरी भी नहीं थी. इसके चलते दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुआती दौर में सोवियत संघ ने खुद को तटस्थ बनाए रखा था. ये क्रिप्स ही थे जिन्होंने हिटलर और स्टालिन के इस याराने में पलीता लगाने का काम किया था. रूस को मित्र राष्ट्रों के खेमे में खड़ा करने के लिए क्रिप्स ने ब्रिटेन में काफी शोहरत हासिल की थी.
क्रिप्स की भारत में ख़ास रूचि थी. वो इससे पहले भी भारत की यात्रा कर चुके थे. अपनी पिछली यात्रा में उन्होंने गांधी जी सहित राष्ट्रीय आंदोलन के सभी बड़े नेताओं से मुलाकात की थी. वो कुछ दिन के लिए गांधी जी के वर्धा आश्रम में भी रहे. क्रिप्स मिशन के आने की घोषणा ने कांग्रेस के नेताओं की उम्मीदों को पर लगा दिए. लगा कि कुछ तो हो के रहेगा.
1 सितंबर 1939 को जर्मनी के पोलैंड पर हमले के साथ दूसरे विश्वयुद्ध का आगाज़ हुआ था. 1939 से 1942 आते-आते स्थितियां काफी बदल चुकी थीं. नॉर्वे के मोर्चे पर मित्र राष्ट्रों की हार के बाद अब ब्रिटेन के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था. ऐसे में नेविल चैम्बरलिन को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उनकी जगह विंस्टन चर्चिल नए प्रधानमंत्री बने. जापान भारत के नजदीक रंगून पर कब्ज़ा जमा चुका था. वहीं 7 दिसंबर 1941 अमेरिका के पर्ल हार्बर पर औचक हमला कर अमेरिका को इस युद्ध में एक्सिस पॉवर के खिलाफ खड़ा कर दिया था.
कांग्रेस कन्फ्यूजन में थी, नेहरू पर आरोप लग रहे थे
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन की वापसी के बाद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट चुका था. कांग्रेस के कई नेता गांधी जी के फैसले के खिलाफ खड़े थे. 1933 में लंदन की यात्रा के दौरान वहां की प्रेस से मुखातिब सरदार पटेल गांधी जी को राजनीतिक तौर पर असफल बताते पाए गए थे. इस आंदोलन के बाद कांग्रेस में रणनीति को लेकर जबरदस्त बहस छिड़ गई थी. कांग्रेस में दो धड़े साफ़-साफ़ बंटे हुए थे. 1934 में कांग्रेस के भीतर वामपंथी रुझानों वाले नेता ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ नाम से अपनी अलग गोलबंदी बना चुके थे. राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी, आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता इस गोलबंदी के महत्वपूर्ण सदस्य थे. यह धड़ा अंग्रेजों के साथ आर-पार की लड़ाई चाहता था. इन नेताओं का मानना था कि संवैधानिक सुधार के दम पर कभी भी स्वराज हासिल नहीं किया जा सकेगा.
वहीं नेहरू 1927 में सोवियत संघ की यात्रा कर के आए थे. समाजवादी देश की इस यात्रा ने उनके लिए वैचारिक बपतिस्मा का काम किया था. उन्होंने भारत आने के बाद इस यात्रा के बारे में अपने संस्मरण पर एक किताब लिखी. इस किताब के पहले पन्ने पर उन्होंने वर्ड्सवर्थ की फ़्रांस की क्रांति के संबंध में लिखी गई पंक्तियां लिखीं.
“उस भोर में जिंदा रहना आशीर्वाद था, लेकिन युवा होना तो स्वर्ग जैसा था.”
इस आंदोलन से कांग्रेस को जो हासिल हुआ था, वो था 1935 का गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट. इस एक्ट के तहत भारत में चुनाव करवाए जाने थे. नई केंद्रीय असेंबली और प्रांतीय असेंबली बननी थीं. केंद्रीय और प्रांतीय असेंबली में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई थी. दलितों और मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई थी. इस एक्ट में बस एक कमी थी कि केंद्रीय असेंबली वायसरॉय की मर्जी तक ही काम कर सकती थी. प्रांतीय सरकार भी गवर्नर की मर्जी तक ही काम कर सकती थी. हालांकि अंग्रेज लगातार यह भरोसा दिला रहे थे कि उनकी तरफ से कम से कम हस्तक्षेप किया जाएगा.
इसी गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत 1937 में चुनाव होने थे. कांग्रेस का एक धड़ा इस चुनाव में उतरने के पक्ष में था. उनका तर्क था कि सिविल नाफ़रमानी आंदोलन के बाद कांग्रेस फिलहाल दूसरा आंदोलन करने की स्थिति में नहीं है. इसलिए संवैधानिक दायरे में रहते हुए जनता के लिए ज्यादा से ज्यादा सहूलियत हासिल करनी चाहिए. ऐसा ना करने पर कांग्रेस राजनीतिक परिदृश्य से हाशिए पर भी जा सकती है.
इधर वामपंथी धड़ा संवैधानिक सुधारों के सख्त खिलाफ था. नेहरू भी लगातार कांग्रेस के सुधारवादी धड़े के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे. इधर अंग्रेजी हुकूमत भी 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के चलते कांग्रेस में फूट की उम्मीद कर रही थी. 1934 से 1937 के दौर में आला अंग्रेज अधिकारी वायसरॉय को लगातार यह सलाह दे रहे थे कि किसी भी कीमत पर नेहरू को गिरफ्तार ना किया जाए. मद्रास प्रेसिडेंसी के गवर्नर एस्किमे ने वायसरॉय को लिखे खत में कहा था कि यह आदमी अपने भाषणों से न चाहते हुए भी कांग्रेस में फूट पैदा कर देगा.
नेहरू गांधी जी की ‘संघर्ष-समझौता-संघर्ष’यानी लड़ो, ठहर जाओ और फिर लड़ो की नीति के खिलाफ थे. नेहरू ‘सतत संघर्ष से स्वतंत्रता’यानी लगातार लड़ के हासिल कर लो की नई वैकल्पिक नीति पेश कर रहे थे. 1936 के आखिर में फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन में सत्ता में भागीदारी पर बहुत बहस हुई. नेहरू, सुभाष और कांग्रेस के दूसरे समाजवादी नेता इसे जन आंदोलन से गद्दारी बता रहे थे. आखिर में यह तय किया गया कि कांग्रेस को चुनाव में उतरना चाहिए और इस एक्ट को असफल बना कर जनाक्रोश पैदा करना चाहिए. अंग्रेजों को जिस फूट की उम्मीद थी, वो नहीं हुई.
कांग्रेस ने अपने मतभेद भुला कर पूरी तैयारी के साथ चुनाव में भाग लिया. जवाहर लाल नेहरू ने 5 महीनों के भीतर कांग्रेस के प्रचार के लिए 80 हजार किलोमीटर की यात्रा की. 1937 के चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त सफलता मिली. उसे 1161 में से 716 सीटें हासिल हुई. 6 प्रांतीय असेंबली में उनको स्पष्ट बहुमत मिला.
फिर त्रिपुरी में ऐसा कुछ हुआ जिसको लेकर आज भी गांधी से लोग गुस्सा हैं
1938 में सुभाष चंद्र बोस निर्विरोध कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. 1939 में वो इस पद के लिए फिर से मैदान में उतर गए. काफी समय से कांग्रेस के अध्यक्ष निर्विरोध ही चुने जाते रहे थे. पर इस बार गांधी वामपंथी रुझानों वाले सुभाष को अध्यक्ष बनाने पर राजी नहीं थे. आखिर में चुनाव हुआ. सुभाष 1377 के मुकाबले 1580 वोट से चुनाव जीत गए. यह कांग्रेस में खेमेबंदी का निर्णायक बिंदु था. उनके सामने गांधी जी तरफ से पट्टाभि सीतारमैय्या को मैदान में उतारा गया था. चुनाव के नतीजों पर गांधी का कहना था कि पट्टाभि की हार मेरी व्यक्तिगत हार है.
सुभाष बाबू चुनाव जीत तो गए लेकिन कांग्रेस पर से गांधी जी की पकड़ को कमजोर करना उनके बस की बात नहीं थी. वो पहले से ही गांधी के करीबियों सरदार पटेल, राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे. ऐसे में कांग्रेस कार्यसमिति के 12 सदस्यों ने सुभाष के नेतृत्व में काम करने से इंकार करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस असमंजस में फंस गए थे. गोविन्द वल्लभ पंत ने जब पिछले 20 साल से चले आ रहे गांधी जी के सिद्धांत में आस्था जताने का प्रस्ताव पेश किया तो इसे भारी बहुमत से पास किया गया था. उन्होंने इसके साथ ही गांधी जी की सहमति से कार्यसमिति का चुनाव करने का प्रस्ताव भी पेश किया. इसे भी भारी बहुमत से पास किया गया. गांधी जी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इंकार कर दिया. उन्होंने सुभाष को उन्हीं के शब्दों में जवाब दिया, “आपने ठीक ही कहा था, सत्याग्रह के सेनापति के तौर पर मेरी भूमिका अब खत्म हो चुकी है.”
सुभाष समझ गए थे कि चुनाव जीतने के बाद भी वो यह लड़ाई हार चुके हैं. उनके पास कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. उनकी जगह राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष बनाया गया. हालांकि कांग्रेस इस गृह कलह से तो बच गई लेकिन रणनीति पर दुविधा बनी रही.
चर्चिल की नफरत ने भारतीय नेताओं को दोराहे पर खड़ा कर दिया था
1 सितंबर 1939 को दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत के ठीक दो दिन बाद भारत के वायसरॉय लिनलिथगो ने भारत को इस जंग में ब्रिटेन का सहयोगी घोषित कर दिया. एक गुलाम देश के लिए अपनी पक्षधरता तय करने का विकल्प नहीं होता है. ऐसे में लिनलिथगो की घोषणा को महज रस्मअदायगी के तौर पर ही जाना चाहिए था. लेकिन हुआ नहीं. कांग्रेस लिनलिथगो के इस कदम से बहुत नाराज थी. उसी साल वर्धा में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में जर्मनी के फासीवाद से लड़ने के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया गया. लेकिन कांग्रेस के कई नेताओं ने इस बात पर आपत्ति जताई कि लिनलिथगो ने बिना कांग्रेस के नेताओं को भरोसे में लिए लिनलिथगो ऐसी घोषणा कैसे कर सकते हैं. यह गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में किए गए वादों के खिलाफ था. इतने साल की जद्दोजहद के बाद कांग्रेस ने अंग्रेजों से जो थोड़ी स्वायत्तता हासिल की थी, लिनलिथगो के इस एक कदम ने उसे धूल में मिला दिया था.
10 अक्तूबर 1939 को कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि जर्मनी और इटली की नस्लवादी नीति से लड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता. 22 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्णय के बाद आठ राज्यों में चल रही कांग्रेस सरकार के मंत्रिमंडल ने इस्तीफ़ा सौंप दिया.
नए ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल भारत में चल रहे आजादी के आन्दोलन के प्रति सख्त नफरत रखते थे. लेकिन वो युद्ध का दौर था. 20 लाख भारतीय सैनिक अलग-अलग मोर्चों पर ब्रिटेन के लिए युद्ध कर रहे थे. चर्चिल ऐसे में भारत के भीतर किसी भी किस्म का विद्रोह नहीं चाहते थे. उनके इशारे पर वाइसराय लिनलिथगो ने 8 अगस्त 1940 को कांग्रेस के सामने स्वायत्तता को लेकर नया प्रस्ताव रखा. इसे अगस्त प्रस्ताव भी कहा जाता है. इस प्रस्ताव में युद्ध के बाद भारत को अपना संविधान देने, वाइसराय काउंसिल में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाने जैसे वायदे किए गए थे. कांग्रेस की मांग थी कि युद्ध के दौरान ही राष्ट्रीय स्तर पर एक भारतीय सरकार का गठन किया जाए. इस तरह लिनलिथगो का अगस्त प्रस्ताव बेअसर साबित हुआ.
कांग्रेस में वामपंथी धड़ा विश्वयुद्ध को मौके की तरह ले रहा था. ख़ास तौर पर सुभाष चंद्र बोस का कहना था कि यह विश्वयुद्ध किसी भी तरह से लोकतंत्र और नाजीवाद के बीच की लड़ाई नहीं है. यूरोप के तमाम देश अपने-अपने औपनिवेशिक हितों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस को भी इस मौके फायदा उठा कर आजादी की लड़ाई छेड़ देनी चाहिए. कांग्रेस एक बार फिर से रणनीतिक दुविधा में घिर गई थी. गांधी और नेहरू एक तरफ इस मौके का फायदा उठाना चाह रहे थे और दूसरी तरफ वो किसी भी किस्म से नाजीवाद को मदद भी नहीं पहुंचाना चाह रहे थे. इधर गांधी अहिंसा की नीति पर अडिग थे और वो तो ब्रिटेन और मित्र देशों को हथियार छोड़ कर आध्यात्मिक प्रतिरोध के जरिए जर्मनी से लड़ाई लड़ने की सलाह भी दे रहे थे. उन्होंने 1940 में पत्र लिख कर हिटलर को भी अहिंसा का उपदेश दिया था.
फिर आया क्रिप्स मिशन, जिसने जंग के दौरान एक अलग ही आशा दे दी थी
अगस्त प्रताव को ठुकराने के बाद गांधी अपने सबसे भरोसेमंद हथियार सत्याग्रह के साथ मैदान में उतर गए. लेकिन गांधी नहीं चाहते थे कि उन पर भारत में अराजकता पैदा कर जर्मनी के खिलाफ ब्रिटेन को कमजोर करने का आरोप लगे. उन्होंने इसे ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ और सिविल नाफ़रमानी का आह्वान किया. यह आन्दोलन अपना रफ्तार पकड़ ही रहा था कि जापान ने दिसम्बर 1941 में पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया. ऐसे हालात में कांग्रेस को ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ का अपना आन्दोलन वापिस लेना पड़ा.
जापान तेजी से बर्मा के पूर्वी मोर्चे की तरफ बढ़ रहा था. सिंगापुर में ब्रिटेन को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी. चर्चिल जानते थे कि अगर अगर जापान बर्मा को पार कर लेता है तो भारत के हाथ से फिसलने का खतरा बढ़ जाएगा. इस नाजुक मौके पर अगर भारत के भीतर आजादी का आंदोलन गति पकड़ लेता है तो दिक्कत और बढ़ जाएगी. इधर अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट भी जापानी खतरे को भांपते हुए चर्चिल पर भारत के नेताओं से मसले सुलझाने का दबाव डालते रहे. ऐसे में उन्हें याद आए स्टैफोर्ड क्रिप्स.
25 मार्च 1942 को भारत पहुंचने के बाद क्रिप्स सबसे पहले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद से मिले. उन्होंने रक्षा के मुद्दे को छोड़ कर भारत को पूरी स्वायत्तता देने की बात कही. लेकिन यह सब युद्ध खत्म होने के बाद होना था. कांग्रेस के नेता इस वायदे को बहुत भरोसे की नज़र से नहीं देख रहे थे. हालांकि क्रिप्स अपनी पिछली भारत यात्रा के दौरान भी मौलाना आजाद और गांधी जी से मिल चुके थे. लेकिन यह एक अनौपचारिक यात्रा थी. उस समय भारत की स्वायत्तता पर उनमें और कांग्रेस के नेताओं में एक समझ कायम हुई थी. क्रिप्स अपने प्रस्ताव में उसी बात को दोहरा रहे थे. लेकिन जैसा कि पहले भी बताया गया था, 1942 आते-आते स्थितियां काफी बदल गई थीं.
ऐसे बदले हालातों में 27 मार्च को वो गांधी से मिले. क्रिप्स ने पिछली मुलाकात का हवाला देते हुए अपने प्रस्ताव को रखा. गांधी जी ने एक सधे हुए राजनेता की तरह उन्हें जवाब दिया,
“मुझे हमारी पिछली मुलाक़ात के बारे में शाकाहार पर हुई हमारी बात के अलावा कुछ भी याद नहीं हैं.”
इस मुलाक़ात के अंत में गांधी जी ने क्रिप्स से जो बात कही, वो इस मिशन के भविष्य के बारे में एकदम सटीक साबित हुई. क्रिप्स के प्रस्ताव को सुनने के बाद गांधी जी ने उन्हें सलाह देने वाले लहजे में कहा,
“आप एक काम करिए. जो भी सबसे पहला हवाई जहाज उपलब्ध हो उसे पकड़ कर अपने घर लौट जाइए.”
इस मुलाक़ात के बाद गांधी जी ने ‘पूर्ण स्वायत्तता’ के वायदे को दिवालिया हो रहे बैंक का पोस्ट डेटेड चेक बताया. हालांकि क्रिप्स मिशन की कार्यवाही एक महीने और चलती रही लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. ना तो कांग्रेस और ना ही मुस्लिम लीग ने क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को स्वीकार किया. ऐसे में क्रिप्स के पास खाली हाथ घर लौट जाने अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था.
फिर बंबई के मैदान में गांधी ने वो नारा बुलंद किया जो 75 साल बाद भी रोयें खड़े कर देता है
मुंबई के ताड़देव इलाके में पड़ता है तेजपाल हाउस. यह वो जगह थी जहां 1885 में कांग्रेस की स्थापना की गई थी. इससे करीब 250 मीटर की दूरी पर एक मैदान है. किसी जमाने में यहां एक पानी का टैंक हुआ करता था. गाय पालने वाले ग्वाले अपने मवेशी यहां नहलाने के लिए लाते थे. इसी के चलते लोग इस मैदान को गोवालिया टैंक मैदान कहा जाने लगा.
7 अगस्त 1942 के रोज यहां ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक रखी गई थी. ब्रिटिश सरकार के ख़ुफ़िया दस्तावेजों में दर्ज है कि इस बैठक के दौरान करीब 10 हजार आदमी मैदान में गांधी जी और कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं को सुनने के लिए मौजूद थे. मैदान के बाहर करीब 5 हजार लोग लाउड स्पीकर पर इस मीटिंग की कार्यवाही को सुन रहे थे. 8 अगस्त की रात तक मीटिंग की कार्यवाही खत्म होनी थी और 9 अगस्त की सुबह झंडा फहराने के बाद बाहर से आए हुए डेलीगेट्स को अपने-अपने घर लौट जाना था. हालांकि यह कार्यक्रम तय हुआ था, लेकिन सबको पता था कि ऐसा नहीं होने जा रहा है.
दरअसल क्रिप्स मिशन के असफल होने के साथ ही कांग्रेस ने आजादी के लिए आखिरी लड़ाई छेड़ देने का मन बना लिया था. 14 जुलाई 1942 को महाराष्ट्र के वर्धा में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में यह तय किया गया कि आजादी के लिए लड़ाई छेड़ने का यह सबसे सही मौका है. उधर बर्मा के मोर्चे पर आजाद हिन्द फ़ौज की धमक सुनाई दे रही थी.
कांग्रेस कार्यकारिणी ने पूर्ण आजादी के लिए आंदोलन छेड़ने पर अपनी सहमति जता दी थी. हालांकि कांग्रेस के कई नेता इस पर बंटे हुए थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इस प्रस्ताव के विरोध में कांग्रेस छोड़ दिया था. नेहरू और मौलाना आजाद भी इस आन्दोलन से बहुत सहमत नहीं थे. हालांकि दोनों ने गाँधी जी का साथ देने का फैसला किया.
कार्यकारिणी में प्रस्ताव के पास हो जाने के बाद आन्दोलन के नाम पर विचार होने लगा. गांधी जी अंग्रेजों के भारत से चले जाने के इर्द-गिर्द कोई नाम चाहते थे. सबसे पहले नाम आया, ‘गेट आउट’. गांधी जी को यह नाम थोड़ा अक्खड़ किस्म का लगा. इसके बाद राजगोपालाचारी की तरफ से “रिट्रीट” और “विड्रो” जैसे नाम सुझाए गए. लेकिन कोई जमा नहीं. अंत में युसूफ मेहराली ने गांधी जी के सामने “क्विट इंडिया” नाम की पेशकश की. गांधी जी को यह नाम जंच गया. गांधी जी ने ‘आमीन’ कह कर इस नाम को स्वीकृति प्रदान की. इस तरह इस आन्दोलन का नाम पड़ा, “भारत छोड़ो”.
अगस्त क्रांति की शुरुआत, नेहरू के बोलते ही भीड़ फट पड़ी
8 अगस्त 1942 को मीटिंग में आए लोगों की संख्या 7 तारीख के मुकाबले काफी बढ़ चुकी थी. माहौल में गहमागहमी थी. भीड़ में मौजूद हर आदमी गांधी जी को एक झलक देख लेना चाहता था. मैदान के पास ही मणि भवन है. यह गांधी जी का बम्बई में रहने के दौरान स्थाई ठिकाना हुआ करता था. गांधी जी जब पंडाल में घुसे, तो चारों तरफ लंबे-तगड़े सिख नौजवानों ने सुरक्षा घेरा बना रखा था. मीटिंग अपने अंतिम पड़ाव में थी. कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा पेश किए गए प्रस्तावों को एक-एक करके पारित करवाया जाना था. पंडित नेहरू अपनी सीट से उठे. उन्होंने अपने प्रस्ताव में उन्होंने कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य को जल्द से जल्द भारत को छोड़ कर चले जाना चाहिए. यह पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव था. जैसे ही पंडित नेहरू ने प्रस्ताव पढ़ा, सरदार पटेल अपनी जगह से खड़े हुए और चिल्ला कर कहा, ” मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूं.” गोवालिया मैदान में मौजूद भीड़ जैसे फट पड़ी. तेज उठे शोर ने इस बात की गवाही दी कि लोग देश की आजादी के लिए अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं.
इस प्रस्ताव के बाद गांधी ने अपने भाषण में कहा,
“मैं आपसे वादा करता करता हूं कि मैं वाइसराय, मंत्री या किसी और के साथ बातचीत नहीं करने जा रहा. मैं खुद को पूर्ण स्वतंत्रता के अलावा किसी भी चीज से संतुष्ट नहीं करने जा रहा. हो सकता है वो लोग नमक के टैक्स को माफ़ करने की बात कहें, या फिर शराबबंदी कर दें. लेकिन मैं तब भी उनसे एक ही बात कहूंगा- आजादी से कम में हम मानने वाले नहीं हैं.
मैं आपको एक मंत्र देता हूं. एक छोटा सा मंत्र. आप इसको अपने दिल में उतार लो. यह मंत्र है, ‘करो या मरो.’ हम या तो भारत को आजाद करेंगे या फिर इस कोशिश में अपनी जान दे देंगे. हम अपनी गुलामी को और झेलने के लिए जिंदा नहीं रहेंगे.”
और फिर एक पतली सी लड़की ने झंडा फहरा दिया, भीड़ ने आंदोलन शुरू कर दिया
गांधी जी को उसी दिन शाम को शिवाजी मैदान में एक पब्लिक मीटिंग को संबोधित करना था. लेकिन AICC की मीटिंग खत्म होने के साथ ही उन्हें गिरफ्तार करके पुणे की येरवदा जेल भेज दिया गया. पंडित नेहरू की तो यह नौवीं गिरफ्तारी थी. उन्हें अहमदनगर जेल भेजा गया. अपनी इस जेल यात्रा के दौरान ही उन्होंने “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” लिखी थी. राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, सरोजिनी नायडू, मौलाना आजाद सहित कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति के नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया. इस खबर के फ़ैलने के साथ ही लोग सड़कों पर उतर आए.
9 अगस्त 1942 को नजारा बदल गया. कांग्रेस के नेता जेल में थे और जनता ने आन्दोलन अपने हाथ में ले लिया था. गोवालिया टैंक मैदान में पिछले दिन के जितनी ही भीड़ थी. तय कार्यक्रम के मुताबिक इस दिन सुबह झंडा फहराया जाना था. पुलिस भी पूरे जाब्ते के साथ मौजूद थी. सुगबुगाहट चल ही रही थी कि सलवार कमीज पहने 33 साल की पतली सी लड़की तेजी से आगे बढ़ी और झंडा फहरा दिया. इस महिला का नाम था. ‘अरुणा आसिफ अली.’ वो इस वाकये को याद करते हुए कहती थीं,
“मैंने झंडा फहराने के लिए रस्सी खींची ही थी. झंडा अभी ठीक से खुला भी नहीं था कि मेरे कानों में आंसू गैस के गोले दागे जाने की आवाज आई. झंडा नीचे उतार दिया गया. भीड़ बेकाबू हो चुकी थी.”
भीड़ ने सरकारी इमारतों पर हमला बोल दिया. रेल की पटरियां उखाड़ दी गईं. टेलीफोन के तार काट दिए गए. पुलिस के दस्तावेज बताते हैं कि कई जवान पत्थर और सोडा बोतल का शिकार हुए. पुलिस की तरफ से हुई गोलीबारी में 8 लोग मारे गए और 170 लोग घायल हुए. बाजार और स्कूल अगले दो सप्ताह तक नहीं खुल पाए.
कांग्रेस को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया गया. एक स्कूली छात्रा उषा मेहता ने पांच लोगों की टीम के साथ चार महीने तक गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया. 42.34 मीटर की फ्रीक्वेंसी पर चलने वाले इस रेडियो चैनल को बंबई में अलग-अलग जगहों से प्रसारित किया जाता. इसका नाम था ‘कांग्रेस रेडियो.’ उषा अपने साथियों की मदद से भूमिगत हो चुके कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ठीक-ठीक समाचार देतीं. साथ उन्हें भूमिगत रहने के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बताती रहतीं.
बंबई के कांग्रेस कार्यकर्ताओं के पास ऊषा थीं, जिसके जरिए उनके पास ठीक-ठीक संचार पहुंच रहे थे. लेकिन क्या हुआ जब देश के दूसरे हिस्सों में गांधी जी की गिरफ्तारी का समाचार पहुंचा. कैसे गाजीपुर का मुहम्मदाबाद का थाना फूंका गया. कैसे बलिया बाकी हिन्दुस्तान से 5 साल पहले आजाद हो गया था? आजादी ऐसे कई किस्से हम लेकर आ रहे हैं ‘अगस्त क्रांति’ की अगली कड़ी में.