अंग्रेजी चैनल के लोगों के साथ काम करते करते या तो मैं बदल गया हूं या फिर मैं भी हिंदी को अलग से देखने के उनकी चाल में फंस गया हूं। मगर क्या वाकई में हिंदी की मानसिकता इस देश में कोई अळग प्रदेश है। जिसके सरोकार सिर्फ अंग्रेजी बोलने से बदल जाते होंगे। या फिर अंग्रेजी बोलने से पहले तक अळग रहते हैं। फिर उस आदमी के सरोकार कहां फिट बैठते होंगे जो अंग्रेजी और हिंदी दोनों जानता है। खैर ये सवाल है जिस पर बड़े बड़े लोग सालों से माथापच्ची कर रहे हैं ।
हम अभी तक अंग्रेजी को सिर्फ आर्थिक वर्ग की भाषा ही समझते आए हैं। इस पर ध्यान नहीं जा रहा है कि अंग्रेजी का हिंदीकरण हो गया है। हिंदी पटटी के लोग बड़ी संख्या में बोरे से उठा कर इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बेंच पर बिठाये जा रहे हैं। तो क्या उनके सरोकार बदल रहे हैं। इस पर सिर्फ धारणा है या कोई प्रमाणिक तथ्य भी हैं हमारे पास। इतना ही कपड़ों का भी लोकतांत्रिकरण हुआ है। हिंदी और अंग्रेजी के लोग अब एक जैसा कपड़ा पहनते हैं। जींस के अच्छे से लेकर फुटपथिया ब्रांड तक दिल्ली और मोतिहारी में बिकने लगे हैं। मगर क्या इसके बाद भी दोनों का मानस अलग है। मैंने हिंदी के पत्रकारों को भी गोवन वाइन पीते देखा है जो अंग्रेजी बोलने वाले लोग पीया करते थे। तो क्या वो अंग्रेजी की तरह हो गए हैं ? क्या वाकई में हम हिंदी के लोग अंग्रेजी के लोगों से अलग है?
इस पुराने और घिसे पिटे सवालों से इसिलए जूझ रहा हूं क्योंकि हाल के दिनों मे जेसिका हत्याकांड औऱ नितीश कटारा हत्याकांड में इंसाफ को लेकर लोग सड़कों पर उतरे । मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आ गए और ई मेल लेकर
बरखा दत्त के वी द पिपुल में आ गए। हिंदी के लोग नहीं थे। उज्जैन में एक प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। लोग कांग्रेसी और भाजपाई खेमे में बंट जाते हैं। साथी प्रोफेसर भाग खड़े होते हैं। इस बीच अंग्रेजी के चैनलों पर इसे लेकर आंदोलन होने लगता है। अंग्रेजी का दर्शक उसे टीआरपी से समर्थन देता है। देखता है। हिंदी का दर्शक शिल्पा शेट्टी के ब्लाउज के धागे को गिनने के लिए चैनल बदल देता है। तभी हिंदी के चैनलों पर अब भूख, गरीबो और किसानों की आत्महत्या की खबरें कम हो गई हैं। हर चैनल शनि के प्रकोप से लोगों को ड़रा रहा है। क्या यह इस बात का संकेत है कि हिंदी नागरिकता की मानसिकता अलग है। या फिर हिंदी मानसिकता ने अपनी नागरिकता बनाई ही नहीं।
हम जानते हैं कि कई जगहों पर गरीब किसान संघर्ष कर रहे हैं। वो अंग्रेजी नहीं जानते होंगे अपने अधिकारों को जानते हैं। मगर जेसिका के लिए मोमबत्तियां जलाने वालों में हिंदी का प्रोफेसर, बड़ा नाम,कवि मौजूद था ? क्या हम सामाजिक सरोकारों को लेकर सड़क पर उतरते हैं? मेरी कोई राय नहीं है बल्कि सवाल हैं जिस पर मैं बहस चाहता हूं।
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी के लोग गरीबी में जी रहे हैं। हिंदी पट्टी के लाखो लोग अंग्रेजी सीख कर साफ्टवेयर इंजीनियर हो चुके है । क्या उनके सरोकारों से हिंदी पट्टी को कोई लाभ मिल रहा है? क्या ये लोग ई मेल के ज़रिये
अपने इलाके के सवालों को लेकर जनमत बना रहे हैं? या सिर्फ इलाके में लौट कर रिश्तेदारों, पड़ोसियों और परिवार के लोगों को यही बता रहे हैं कि उन्होंने जीवन में बड़ा तीर मारा है। वो कितना आगे निकल गए हैं। क्या हर अंग्रेजी मानसिकता के पीछे हिंदी मानसिकता नहीं है? फिर क्यों हिंदी मानसिकता सामने नहीं आती ? वो क्यों छुप कर रहना चाहती है? जेसिका मामले में जब लोग मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट आए तो कई सवाल उठे । कि ये एक वर्ग की चिंता और लड़ाई है। जेएनयू के छात्र नेता चंद्रशेखर को कुछ गुंडों ने मार दिया । आज तक उसकी बूढ़ी मां इंसाफ के लिए अकेली लड़ रही है। क्या किसी हिंदी के पत्रकार , साहित्यकार ने ई मेल कैंपेन किया । इंडिया गेट गया । और इंडिया गेट जाने वालों में कोई बड़ा नाम भी तो नहीं था। आम लोग थे। क्या हिंदी मानसिकता जाति, रिश्वतखोरी और पूजा पाठ में हो रहे ढोंग को देखते देखते बनती है? क्या हिंदी मानसकिता अपने लिए जीती है? क्या हिंदी मानसिकता की कोई नागरिकता बन पाई है? उसका कोई नागरिक बोध है। या वो सिर्फ जाति बोध को ही पालती पोसती है? क्या हिंदी की मानसकिता अपने लिए जीती है ? उसका कोई नागरिक बोध है? या सिर्फ वह अपने जाति बोध के अहंकार में ही है? बहस होनी चाहिए