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19 जनवरी 2006. बैंगलोर से करीब 20 किलोमीटर दूर एक फार्म हाउस पर जनता दल (सेकुलर) के 40 विधायकों की बैठक चल रही थी. बैठक जिसके बारे में जेडीएस के पितामह एचडी देवेगौड़ा को भी पता नहीं था और न ही उनके बड़े बेटे एच डी रवन्ना को. इस बैठक में जेडीएस का कोई कद्दावर नेता भी मौजूद नहीं था. यूं तो जनता दल में पहले से खींचतान चल रही थी लेकिन विधायकों की इस गोलबंदी की वजह था एक ज्योतिषी. 2004 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डाले बगैर पूरा मामला समझ में आना मुश्किल है.
2004 के विधानसभा चुनाव ने कर्नाटक को एक खंडित जना देश दिया था. 224 सीटों में से 198 पर चुनाव लड़ रही बीजेपी 42 सीटों पर जमानत जब्त करवाने के बावजूद 79 सीटें हासिल करने में कामयाब रही. बीजेपी से चार फीसदी ज्यादा वोट हासिल करने के बावजूद कांग्रेस को 65 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा. 58 सीटों के साथ जनता दल सेकुलर किंगमेकर के तौर पर उभरी.
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चुनाव के बाद सेकुलर शब्द बड़ा काम का साबित हुआ. इसने जेडीएस और कांग्रेस के गंठबंधन को नैतिक आधार मुहैया करवाया. कांग्रेस के धरम सिंह सूबे के नए मुख्यमंत्री बने. गठबंधन के तुरंत बाद जेडीएस घरेलू खींचतान में फंस गई. जेडीएस के कद्दावर नेता सिद्धारमैया पार्टी के खाते से उप-मुख्यमंत्री बनाए गए. गठबंधन को मजबूत बनाने के लिए देवेगौड़ा के बड़े बेटे एचडी रवन्ना को धरम सिंह मंत्रीमंडल में पीडब्लूडी और ऊर्जा जैसे बड़े मंत्रालय दिए गए. इसका सीधा फायदा मिला देवेगौड़ा के छोटे बेटे एचडी कुमारस्वामी को. जेडीएस की कमान अब उनके हाथ में आ गई.
सियासत का एक एकिक नियम है. लीडरशिप विरासत में नहीं मिलती, वो आपको कमानी पड़ती है. कुमारस्वामी को 2005 तक यह नियम समझ में नहीं आया था. उन्होंने समाजवादी राजनीति में घिसकर निकले सिद्धारमैया को अपने मन मुताबिक चलाने की कोशिश की. सिद्धारमैया ने कुमारस्वामी के आदेशों को ‘बाल हठ’ की तरह लेना शुरू कर दिया. सिद्धारमैया और कुमारस्वामी के बीच शुरू हुई खींचतान में आखिरकार देवेगौड़ा को कूदना पड़ा. देवेगौड़ा ने इस नाजुक मौके पर अपने बेटे का साथ दिया और किसी दौर में अपने सबसे विश्वस्त सिपहसालार सिद्धारमैया को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
जेडीएस से बेआबरू होकर निकले सिद्धारमैया ने अपनी पार्टी खड़ी कर ली. नाम रखा – ‘अखिल भारत ीय प्रगतिशील जनता दल’. कांग्रेस भी जेडीएस में मचे हुए इस भेड़ियाधसान में काफी दिलचस्पी ले रही थी. इस बीच 2006 में आए पंचायत और तालुका चुनाव. कांग्रेस ने जेडीएस को घेरने के चक्कर में सिद्धारमैया की प्रगतिशील जनता दल को अपना समर्थन दे दिया. इतना सब होने के बावजूद देवेगौड़ा की मध्यस्थता में चीजें नियंत्रण में थी.
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कहानी में नया मोड़ आया एक ज्योतिषी की एंट्री के बाद. एक रहस्यमयी ज्योतिषी ने कुमारस्वामी की कुंडली देखने के बाद कहा कि यह तुम्हारे मुख्यमंत्री बनने का सबसे सही मौक़ा है. अगर तुम अभी मुख्यमंत्री नहीं बने तो फिर कभी नहीं बन पाओगे. संयोगवश सत्ता के शिखर पर पहुंचे कुमारस्वामी के पास ज्योतिषी पर भरोसा ना करने की कोई ख़ास वजह भी नहीं थी. उन्होंने तुरंत अपने समर्थकों की बैठक आहूत की.
18 जनवरी की शाम जब कुमारस्वामी जब राज्यपाल टीएन चतुर्वेदी से मिलने राज भवन जा रहे थे. उन्होंने खुद सहित कुल 40 विधायकों के दस्तखत वाला एक पुर्जा राज्यपाल को सौंपा. इस पुर्जे पर धरम सिंह सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा की गई थी. धरम सिंह के पास यह खबर किसी धमाके की तरह पहुंची. एक घंटे के भीतर मंत्रिमंडल की बैठक बुला ली गई. हालांकि मंत्रिमंडल की बैठक के शुरुआत में ही धरम सिंह समझ चुके थे कि वो गहरे संकट में फंस चुके हैं. जेडीएस के कोटे से उनकी सरकार में कुल 14 मंत्री थे. इसमें से महज 3 ही इस मीटिंग में मौजूद थे.
इधर धरम सिंह मंत्रिमंडल की बैठक में डैमेज कंट्रोल की रणनीति पर बात कर ही रहे थे और उधर कुमारस्वामी ने तुरूप चाल चल दी. राजभवन से बाहर निकलते ही उन्हें पत्रकारों की भीड़ ने घेर लिया. सफ़ेद कमीज पहना हुआ एक शख्स उनके सत्ता हथियाने की योजना के खुलासे के तौर पर उनके बगल में खड़ा था. इस शख्स का नाम था – ‘बीएस येदियुरप्पा’.
“गवर्नर ने वायदा किया है कि वो हमारे सरकार बनाने के दावे पर 21 जनवरी तक फैसला लेंगे. कुमारस्वामी को दोनों पार्टी के विधायकों ने साझा तौर पर अपना नेता चुना है और हम जल्द ही सरकार बनाने जा रहे हैं.”
बीएस येदियुरप्पा के इस बयान ने मौके पर मौजूद सभी कैमरों की तवज्जो अपनी तरफ खींच ली. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री धरम सिंह कर्नाटक के राज्यपाल टीएन चतुर्वेदी को देर रात एक खत लिख रहे थे जिसमें कुमारस्वामी के दावे को तवज्जो न देने की बात लिखी हुई थी.
19 जनवरी 2006 की सुबह गवर्नर के दफ्तर में दो खत एक साथ पहुंचे. पहला धरम सिंह का था और दूसरा एचडी देवेगौड़ा का. देवेगौड़ा ने अपने बेटे के कदम से असहमति जताते हुए उनके सरकार बनाने के दावे को ख़ारिज करने की बात लिखी हुई थी. दोपहर होने तक कुमारस्वामी के बड़े भाई एचडी रवन्ना प्रेस को संबोधित करते हुए कह रहे थे –
“मेरे पिता ने अपने चालीस साल के सियासी करियर में हमेशा सेकुलरिज्म की राजनीति की है. 18 जनवरी का उनके जीवन में काले अध्याय की तरह जुड़ा है. हम लोग कुमारस्वामी के इस कदम में उनके साथ नहीं हैं.”
21 जनवरी को राज्यपाल टीएन चतुर्वेदी ने साफ़ कर दिया कि बदली हुई परिस्थितियों में मुख्यमंत्री धरम सिंह को विश्वास मत फिर से हासिल करना होगा. 22 और 23 जनवरी को एचडी देवेगौड़ा ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की लेकिन देवेगौड़ा के पास आश्वासन के अलावा कुछ भी नहीं था. इधर बीजेपी ने वैंकेय्या नायडू को बैंगलोर भेजा हुआ था ताकि वो बीजेपी के लिए दक्षिण का दरवाजा खोल सकें. 21 जनवरी को राज्यपाल के फैसले के साथ ही बैंगलोर में भगदड़ मच गई. कुछ घंटों के भीतर कुमारस्वामी अपने 46 एमएलए के साथ गोवा एयरपोर्ट पर देखे गए. वहां पत्रकारों जब उनसे पूछा कि क्या उनका यह कदम हॉर्स ट्रेडिंग से बचने के लिए है?
उनका जवाब था – “हमारे विधायक हर दिन काफी मशक्कत करते हैं. हम यहां आए हैं ताकि विश्वासमत से पहले थोड़ा सुस्ताया जा सके.”
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एक बेबस अपील
27 जनवरी 2006. कर्नाटक विधानसभा में होने जा विश्वासमत से ठीक पहले एक मुलाकात ने राजनीतिक कयासबाजों के लिए सुरसुरी पैदा कर दी. जब रवन्ना अपने छोटे भाई कुमारस्वामी से मिलने पहुंचे तो अचानक ‘भरत मिलाप’ की संभावनाओं जोर पकड़ना शुरू किया. दोनों भाइयों की मुलाकात ने पूरे घटनाक्रम को और रोमांचक बना दिया.
विश्वास मत से ठीक पहले जेडीएस के पितामह देवेगौड़ा का एक खत विद्रोही विधायकों के खेमे में घुमाया जाने लगा. इस खत में देवेगौड़ा की तरफ से एक मार्मिक अपील लिखी हुई थी, जिसका मजमून कुछ इस तरह से था – “मैं आप लोगों से आखिरी अपील कर रहा हूं. पार्टी हर चीज से ऊपर है. समय आ गया है जब हम पार्टी की विचारधारा के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करें.”
महाराष्ट्र बनाम जम्मू कश्मीर फॉर्मूला
धरम सिंह सरकार से समर्थन खींचने के बाद कुमारस्वामी बीजेपी से गलबहियां कर रहे थे. बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व की तरफ से वैंकेय्या नायडू बैंगलोर में पूरे घटनाक्रम पर नजर बनाए हुए थे.
पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा – “हमारे और जेडीएस के बीच कश्मीर फॉर्मूले पर सहमति बनी है. इसके हिसाब से शेष बचे 40 महीनों में से पहले 20 महीने मुख्यमंत्री का पद जेडीएस के पास रहेगा. पीछे बचे 20 महीने मुख्यमंत्री पद बीजेपी के पास रहेगा.”
दरअसल उस समय जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस-पीडीपी की गठबंधन सरकार चल रही थी. 2002 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में किसी को पूरा बहुमत नहीं मिला था. ऐसे में दोनों पार्टियों ने फैसला किया कि पहले तीन साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पीडीपी के पास रहेगी और शेष बचे तीन साल कांग्रेस सूबे के आला सियासी ओहदे पर काबिज होगी.
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27 जनवरी को विश्वास प्रस्ताव के कुछ घंटे पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एके एंटनी प्रेस को संबोधित कर रहे थे. अपने संबोधन में उन्होंने गठबंधन बचाने के लिए ‘महाराष्ट्र फॉर्मूले’ का प्रस्ताव रखते हुए कहा –
“हम महाराष्ट्र फॉर्मूला पर काम करने के लिए तैयार हैं. इस गठबंधन को बचाने के लिए हम महाराष्ट्र की तरह सत्ता के बंटवारे के लिए राजी हैं.”
एंटनी जिस महाराष्ट्र फॉर्मूले का जिक्र कर रहे थे वो उन्हीं की पार्टी की देन था. दरअसल महाराष्ट्र में 2004 में हुए चुनाव के नतीजे में त्रिशंकु विधानसभा खड़ी थी. यहां शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस के बीच हुए समझौते में मुख्यमंत्री का पद कांग्रेस की झोली में गिरा था. बदले में कांग्रेस अपनी सरकार के बड़े मंत्रालय मसलन गृह, सिंचाई आदि एनसीपी को देने के लिए तैयार हो गई.
एके एंटनी की प्रेस कॉंफ्रेंस 15 मिनट के भीतर कर्नाटक से आई एक खबर के चलते बेमतलब साबित हो गई. एंटनी की प्रेस वार्ता के तुरंत बाद कुमारस्वामी ने अपने धड़े के एमएलए के लिए विप जारी कर दी जोकि विश्वास प्रस्ताव के विरोध में थी. यही वो नुक्ता था जहां से मामले को नया मोड़ लेना था.
वो मैदान छोड़कर भाग गया
27 तारीख को शुरू हुए विधानसभा सत्र की शुरुआत हंगामे से हुई. कार्यवाही शुरू होते ही कांग्रेस के विधायकों ने हंगामा करना शुरू कर दिया. वो कुमारस्वामी को जेडीएस लेजिस्लेटिव पार्टी का नेता चुने जाने को असंवैधानिक बता रहे थे. इस तरह उनकी विप भी बेमानी हो जाती. हंगामे को देखते हुए विधानसभा अध्यक्ष कृष्णा ने कार्यवाही शाम 4 बजे तक के लिए स्थगित कर दी. उसके बाद शुरू हुई कार्यवाही में भी माहौल में कुछ ख़ास सुधार नहीं हुआ. आखिरकार विधानसभा की कार्यवाही स्थगित कर दी गई.
कांग्रेस की तरफ से यह अच्छी चाल थी. इसने धरम सिंह को अपनी सरकार बचाने के लिए थोड़ी और मोहलत दे दी. वो जानते थे कि बिना संख्याबल के वो इस कुर्सी पर ज्यादा देर टिके नहीं रह पाएंगे. सत्ता बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद बात न बनते देख उन्होंने आखिरकार 28 जनवरी की दोपहर अपने प्रिंसिपल सेक्रेटरी एसवी रंगनाथ के हाथों अपना इस्तीफ़ा राज्यपाल को भिजवा दिया.
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एक दशक लंबी ख़ामोशी
धरम सिंह के इस्तीफे की खबर ने कुमारस्वामी को एक पुरानी घटना याद दिला दी. साल 1994. कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार का दौर था. कुमारस्वामी के पिता एचडी देवेगौड़ा सूबे में जनता दल के अध्यक्ष हुआ करते थे और बड़े जोर-शोर से प्रचार में जुटे हुए थे. उनके बड़े भाई रवन्ना भी इस चुनाव में मैदान में थे. वो परिवार की पारंपरिक सीट होलानरसीपुर से चुनाव लड़ रहे थे.
चुनाव प्रचार के दौरान एक सुबह देवेगौड़ा का परिवार एक साथ बैठकर नाश्ता कर रहा था. देवेगौड़ा चुनाव प्रचार के लिए बाहर थे, लिहाजन वो इस जुटान में शामिल नहीं हो पाए. चुनाव का माहौल था तो नाश्ते की टेबल पर हो रही बातों का मिजाज सियासी होना लाजमी था. बातें घूमते-घूमते पिता की राजनीतिक विरासत पर आ गई. कुमारस्वामी ने कहा कि वो भी राजनीति में आना चाहते हैं.
इस पर रवन्ना ने हंसते हुए कहा – “तुम अपने फिल्म बनाने के धंधे में ही ठीक हो. सियासत तुम्हारे बस की बात नहीं है. तुम्हारे लिए विधायकी का चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाएगा.”
कहते हैं कि कुमारस्वामी को अपने भाई की बात लग गई. वहीं नाश्ते की टेबल पर बैठे-बैठे उन्होंने तय किया कि उनका अगला मुकाम सियासत होगा. चुनाव प्रचार के दौरान वो पार्टी के कामों में सक्रिय थे ही, उन्होंने इसे चुनाव के बाद में भी जारी रखा.
कुमारस्वामी का कुमारन्ना बनना
सियासत में आने का फैसला करने के दो साल के भीतर कुमारस्वामी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अच्छी पकड़ बना चुके थे. पार्टी के युवा कार्यकर्ता उन्हें ‘कुमारन्ना’ का नाम दे चुके थे. इस बीच आए 1996 के लोकसभा चुनाव. कुमारस्वामी सियासत में अपनी आधिकारिक एंट्री के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. यह उनका पहला चुनाव था. उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें हसन जैसी कोई सुरक्षित सीट पर टिकट मिल जाएगा. हसन देवेगौड़ा परिवार की परंपरागत सीट थी.
जनता दल की तरफ से जारी की गई लिस्ट में कुमार का नाम बैंगलोर से सटी हुई कनकापुरा के आगे छपा हुआ था. कनकापुरा कर्नाटक में कांग्रेस के सबसे मजबूत गढ़ों में एक हुआ करती थी. कांग्रेस के कद्दावर नेता एम.वी. चंद्रशेखर मूर्ति 1977 से लगातार चुनाव जीतते आ रहे थे. कनकापुरा ने उन्हें पांच बार संसद भेजा था. 1996 में चंद्रशेखर मूर्ति अपने सियासी करियर के चरम पर थे. वो केंद्र में चल रही नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्रालय के राज्य मंत्री थे. कुमारस्वामी एक ऐसे रणक्षेत्र में फंस चुके थे जो उनके सियासी करियर की कब्रगाह साबित हो सकता था.
कहते हैं कुमारस्वामी उस समय भाषण देने में बहुत झिझकते थे. अपनी इस कमजोरी को दूर करने के लिए उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा घर-घर जाकर वोट मांगने में लगा दी. इसका असर यह हुआ कि उन्होंने हारा हुआ मुकाबला बड़ी आसानी से जीत लिया. इस चुनाव में कुमार को मिले 4,40,444 वोट जबकि चंद्रशेखर मूर्ति को मिले 3,33,040 वोट. इस तरह कुमार यह मुकाबला 1,07,404 वोट से जीतने में कामयाब रहे.
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कुमारस्वामी ने अपनी सियासी पारी की शुरुआत ‘जाइंट किलर’ के तौर पर की थी लेकिन दो साल में ही उनका जादू हवा हो गया. 1998 में एक नाटकीय घटनाक्रम में इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफ़ा देना पड़ा. 1998 में फिर से लोकसभा के चुनाव हुए. कुमारस्वामी फिर से कनकपुरा से मैदान में उतरे. इस बार उनके सामने थे बीजेपी के एम. श्रीनिवास और कांग्रेस के डी. प्रेमचंद्र सागर. इस चुनाव में कुमारस्वामी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. वो मुकाबले में 2,60,859 वोट के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गए.
13 महीने चली वाजपेयी सरकार के 1 वोट से गिरने के बाद 1999 में एक बार फिर से लोकसभा चुनाव हुए. कुमारस्वामी फिर से कनकापुरा से भाग्य आजमा रहे थे. इस बार भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. इस चुनाव में जीत का सेहरा बंधा एमवी चंद्रशेखर मूर्ति के सिर. बीजेपी के एम श्रीनिवास दूसरे स्थान पर रहे. तीसरे नंबर पर रहे कुमारस्वामी को मिले महज 1,62,448 वोट जोकि कुल वोटिंग का महज 13 फीसदी थे. हार का सिलसिला यहीं थमा नहीं 1999 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कुमारस्वामी सतानुर विधानसभा से मैदान में उतरे. इस बार उन्हें कांग्रेस के डीके शिवकुमार के हाथों 14,387 वोटों से हार का सामना करना पड़ा. यह उनकी सबसे शर्मनाक हार थी. डीके शिवकुमार और उनके पिता देवेगौड़ा की 1985 से एक-दूसरे से दुश्मनी पाल रहे थे. इस चुनाव में कुमार ने खानदानी दुश्मन से मात खाई थी.
चुनाव हारने के बाद कुमारस्वामी सियासत की बजाए अपने फिल्म कारोबार पर फिर से ध्यान लगाने लगे. अब तक उनके खाते में तीन चुनावी हार के बरक्स महज एक चुनावी जीत थी. राजनीतिक सर्किल में यह चर्चा भी तेज हो गई कि शायद वो सियासत को हमेशा के लिए अलविदा कह दें. अगले पांच साल वो शांति से अपनी बारी आने का इंतजार करते रहे. 2004 में उन्होंने समझदारी भरा फैसला लिया. कर्नाटक विधानसभा के चुनाव लोकसभा के साथ-साथ हो रहे थे. कुमार ने लोकसभा की बजाए विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया. उन्हें पार्टी की तरफ से रामनगरम विधानसभा सीट पर प्रत्याशी बनाया गया. इस सीट पर उन्होंने कांग्रेस के सीएम लिंगप्पा को 24,916 के अंतर से चुनाव हराया.
2006 की जनवरी खत्म होने को थी. कुमारस्वामी तेजी से सूबे के सबसे अहम सियासी ओहदे की तरफ बढ़ रहे थे. इस बीच उनका परिवार उनके खिलाफ हो चुका था. इसकी मुख्य वजह थी पिता देवेगौड़ा के सियासी विरसे पर दावा. देवेगौड़ा रवन्ना को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. इसके प्रतीक के तौर पर उन्होंने होलानरसीपुर की सीट भी उन्हें सौंप दी थी. कुमारस्वामी ने उनकी इच्छा के खिलाफ सियासत में आए और वो खुद को रवन्ना से बेहतर साबित कर रहे थे.
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03 फरवरी को उन्होंने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 7 दिन का वक़्त दिया गया. 9 फरवरी को विधानसभा में विश्वास प्रसताव पर जब वोटिंग हुई तो 224 में से 138 विधायकों ने इसके पक्ष में वोट डाला. इसमें जेडीएस के 41, जनता दल (यू) के पांच, बीजेपी के 79 विधायक शामिल थे. बहुमत साबित करने के लिए मिले एक सप्ताह के समय में कुमारस्वामी आधा दर्जन निर्दल विधायकों को भी अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे थे.
नवंबर 2007 में अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद कुमारस्वामी ने एक बार खुद को शातिर राजनेता साबित किया जब वो बीजेपी को सत्ता सौंपने का वायदा अचानक से भूल गए. इस किस्से का विस्तार में जिक्र हमारी अगली कड़ी में होगा.
कुमारस्वामी के निजी जिंदगी के कई किस्से चौराहेबाजों से लेकर मीडिया में चर्चा में रहे. हम इस पर चर्चा नहीं करने जा रहे हैं. दी लल्लनटॉप किसी के बेडरूम में नाक घुसेड़ने को अपने काम का हिस्सा नहीं मानता. कुमारस्वामी फिलहाल फिर से चर्चा में है. कर्नाटक में कांग्रेस के मुख्यमंत्री के चेहरे सिद्धारमैया ने उन पर आरोप लगाया है कि वो अंदरखाने बीजेपी से हाथ मिला चुके हैं. इसके जवाब में एक बार फिर से देवेगौड़ा अपने सेकुलर चेहरे के साथ यह कहते हुए पाए गए –
“अगर इस बार कुमारस्वामी ने बीजेपी से हाथ मिलाया तो मैं और मेरा परिवार उनसे नाता तोड़ लेगा.”
सियासत में कोई भी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. कुमार ने यह अपने पिता को देखकर ही सीखा है. विंस्टन चर्चिल ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान रूस के मिजाज के बारे में एक मार्के की बात कही थी, “रूस क्या कर रहा है या क्या करने वाला इस सवाल का किसी के पास ठीक-ठीक जवाब नहीं है. रूस के अगले कदम को समझने के लिए सिर्फ एक कुंजी है. वो वही करेगा जिसमें उसका सबसे ज्यादा फायदा होगा.”
कुमारस्वामी का मिजाज भी कुछ-कुछ रूस जैसा ही है. उनकी पार्टी का नाम जनता दल (सेकुलर) है. सेकुलर उनकी पार्टी के नाम का आखिरी हिज्जा है, जोकि एक खांचे में बंद है. कुमारस्वामी इस खांचे को खिड़की की तरह इस्तेमाल करते आए हैं और इसे अपनी सहूलियत के हिसाब से खोलते-बंद करते रहते हैं.