21 जून. बेनजीर भुट्टो का जन्मदिन. इस मौके पर हम आपको एक किस्सा सुनाते हैं. सीधे, बेनजीर की किताब से. किताब का नाम था- डॉटर ऑफ द ईस्ट. माने, पूरब की बेटी.
1971 की हार के बाद पाकिस्तान सामूहिक शोक में था. उसका पूर्वी हिस्सा अलग होकर मुल्क बन चुका था. बांग्लादेश का बनना यूं ही बड़े तकलीफ की बात थी. ऊपर से ये दर्द कि पाकिस्तान को बांग्लादेश में बेइज्जत होना पड़ा. खुद को हारता देखकर पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद ली थी. ताकि सीजफायर करवाया जा सके. मगर सीजफायर नहीं हुआ. पाकिस्तान को सार्वजनिक तौर पर सरेंडर करना पड़ा. ऐसा पहली बार हुआ था. जब एक देश की सेना को इस तरह पब्लिक सरेंडर करना पड़ा था. ये हिंदुस्तान की जीत थी. इसके तकरीबन आठ महीने बाद 2 जुलाई, 1972 को भारत और पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर दस्तखत किए. इस मौके की कई कहानियां हैं. क्या हुआ, कैसे हुआ, क्या बातें हुईं, पीछे की कहानियां. बहुत कुछ है. एक कहानी वो भी है, जो बेनजीर भुट्टो ने सुनाई है.
जुल्फिकार को ‘लाहौर लॉबी’ का डर था
तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे जुल्फिकार अली भुट्टो. बेनजीर के अब्बा. वो शिमला समझौते के लिए भारत आए. बेनजीर भी उनके साथ आईं. इंदिरा और बेनजीर की ये पहली मुलाकात थी. जुल्फिकार और इंदिरा में पहले भी बात हो चुकी थी. 1971 की हार के बाद जुल्फिकार को पता लग गया था. कि पाकिस्तान सैनिक ताकत की बदौलत कश्मीर हासिल नहीं कर सकता. मार्च 1972 में उन्होंने भारतीय पत्रकारों से कहा था. कि कश्मीर विवाद बस शांति से सुलझ सकता है. निजी तौर पर जुल्फिकार कश्मीर मामले में यथास्थिति को स्थायी समाधाना के तौर पर मंजूर करने के पक्ष में थे. मगर दिक्कत ये थी कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकत कई सारे दूसरे लोगों के पास होती है. जैसे- सेना. ISI. जुल्फिकार अपने विरोधियों को ‘लाहौर लॉबी’ के नाम से पुकारते थे.
जुल्फिकार अपने साथ इतने सारे लोग लेकर आए कि माफी मांगनी पड़ी
अगर जुल्फिकार भारत की बातें मानकर समझौता कर लेते, तो पाकिस्तान में उनके लिए बड़ी दिक्कतें हो जातीं. सेना कहती कि उन्होंने पाकिस्तान का राष्ट्रहित भारत के पैरों में डाल दिया. पाकिस्तान में लोकतंत्र की हालत बहुत मरियल थी. जुल्फिकार के आने से पहले 14 साल तक सेना का शासन था. बहुत मुमकिन था कि इस समझौते के बाद जुल्फिकार के हाथ से सत्ता निकल जाती. और फिर से सैन्य शासन आ जाता. इसीलिए शिमला आने के काफी पहले से जुल्फिकार ने अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वो चाहते थे शिमला समझौते में जो भी निकलकर आए, उसको लेकर पाकिस्तान में एक किस्म की आम सहमति बने. शायद इसीलिए जुल्फिकार अपने साथ 84 सदस्यों का लंबा-चौड़ा डेलिगेशन लेकर शिमला पहुंचे थे. ये 84 लोग पाकिस्तान में काबिज अलग-अलग किस्म की राजनैतिक राय के नुमाइंदे थे. जुल्फिकार को लगा कि अगर ये लोग समझौते की शर्तों से सहमत हो जाएं, तो पाकिस्तान में भी करीब-करीब आम सहमति हो जाएगी. उन्होंने इतना बड़ा डेलिगेशन लेकर आने के लिए भारत से माफी भी मांगी थी.
शिमला समझौते का वर्ल्ड वॉर कनेक्शन
पाकिस्तानी डेलिगेशन की ओर से की जाने वाली बातचीत की कमान थी अजीज अहमद के पास. अजीज अहमद उस वक्त शायद पाकिस्तान के सबसे वरिष्ठ प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. बहुत मान था उनका पाकिस्तान में. बहुत प्रभाव था. माना जाता था कि सेना और ISI के साथ भी अजीज के अच्छे-भले ताल्लुकात थे. भारत की ओर से होने वाली बातचीत की कमांड थी दुर्गा प्रसाद धार (डी पी धार) के पास. धार कश्मीरी थे. डिप्लोमेट थे. 1971 की लड़ाई में भारत ने जो दखलंदाजी की, उसके पीछे धार का दिमाग काफी अहम था. मगर ऐन मौके पर वो बीमार हो गए. फिर उनकी जगह इंदिरा ने ये जिम्मेदारी सौंपी परमेश्वर नारायण हसकर (पी एन हसकर) को. हसकर खुद नौकरशाह थे. डिप्लोमेट थे. छह साल तक इंदिरा गांधी के प्रिंसिपल सेक्रटरी रहे. हसकर के दिमाग में पहले विश्व युद्ध के बाद हुई ‘वर्साय की संधि’ थी. ये संधि जर्मनी के लिए इतनी अपमानजनक थी कि कहते हैं इसी की वजह से दूसरा वर्ल्ड वॉर हुआ. हसकर का मानना था कि शिमला समझौते में पाकिस्तान को इतने घुटने टिका देने को नहीं कहना चाहिए कि ये चीज आगे चलकर एक और युद्ध की वजह बन जाए.
भारत बहुत संयम से पेश आ रहा था
भारत और पाकिस्तान की टीमों के बीच कई मुद्दों पर सहमति नहीं बन पा रही थी. सबसे बड़ा मुद्दा था कश्मीर. हालांकि भारतीय पक्ष कश्मीर को लेकर बहुत आक्रामकता नहीं दिखा रहा था. बल्कि संयम और समझदारी से पेश आ रहा था. फिर भी असहमतियां थीं. जैसे ये कि भारत ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में जो रेखा भारत और पाकिस्तान को बांटती है, उसे ‘सीजफायर लाइन’ की जगह ‘नियंत्रण रेखा’ कहा जाए. पाकिस्तान को इसपर आपत्ति थी. उसका कहना था कि अगर ये किया, तो उस लाइन का मतलब बदल जाएगा. यथास्थिति का मतलब बदल जाएगा. ऐसे ही और भी आपत्तियां-असहमतियां थीं.
…और उस दिन लगा कि सब खत्म हो गया
इन असहमतियों की वजह से ऐसा लगने लगा कि समझौता नहीं हो पाएगा. कि सहमति बन ही नहीं पाएगी. यहां 2 जुलाई की तारीख का जिक्र करना जरूरी है यहां. भारत ने समझौते का तीसरा ड्राफ्ट बनाकर दिया था. भारत का कहना था कि ये फाइनल ड्राफ्ट है. दोपहर के वक्त अजीज अहमद ने भारतीय पक्ष से कहा. कि ये उनकी आखिरी मुलाकात है. कि पाकिस्तान सीजयफायर लाइन का स्टेटस बदलने की भारत की मांग नहीं मान सकता. इसके ठीक एक दिन पहले, 1 जुलाई की बात है. उस दिन इंदिरा और जुल्फिकार की मीटिंग थी. दोनों तरफ के कुछ अधिकारी भी थे वहां. मीटिंग में अजीज ने कहा-
हम कश्मीर के अलावा बाकी हर चीज पर राजी हो गए हैं.
उनकी बात को काटते हुए जुल्फिकार ने कहा कि वो तो एक तरह से कश्मीर को भी शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के लिए सहमत हो चुके हैं. उन्होंने कहा-
एक शांति रेखा बन जाने दो. लोगों को इस पार से उस पार आने-जाने दो. लोग आएं-जाएं. इसे लेकर दोनों मुल्क आपस में न लड़ें.
इंदिरा और जुल्फिकार ने एक घंटे तक बंद दरवाजे के पीछे बात की
‘सीजयफायर लाइन’ को ‘नियंत्रण रेखा’ बनाना भारत का पक्ष था. सो जब अजीज ने कहा कि पाकिस्तान इसके लिए कभी राजी नहीं होगा, तो भारत भी अड़ गया. लगा, अब सब खत्म है. तय हुआ कि पाकिस्तानी डेलिगेशन अगले दिन, यानी 3 जुलाई की सुबह शिमला से लौट जाएगा. तुरंत ये बात फैल गई. कि समझौता नहीं हो सकेगा. कि बातचीत नाकाम रही. जुल्फिकार बहुत निराश थे. खैर. इसी उदासी में तय हुआ कि उस दिन शाम 6 बजे इंदिरा और जुल्फिकार मिलेंगे. अलविदा टाइप समझ लीजिए. इंदिरा वहां रिट्रीट बिल्डिंग में ठहरी थीं. ये इमारत शिमला में राष्ट्रपति की छुट्टियां मनाने का आधिकारिक आवास है. यहीं पर मीटिंग होनी तय हुई. एक घंटे तक दोनों की बातचीत हुई. वो अकेले थे. ये उन दोनों के बीच अकेले में हुई वो बातचीत ही थी कि जिसने इस समझौते को मुमकिन किया. जुल्फिकार ने बंद दरवाजे के पीछे इंदिरा से कई वादे किए. कई चीजों के लिए माने. पाकिस्तान ‘संघर्ष विराम रेखा’ को ‘नियंत्रण रेखा’ का नाम देने के लिए राजी हो गया. फिर हुआ ये कि दोनों तरफ की टीमें ड्राफ्ट को फाइनल शक्ल देने में जुट गईं.
पाकिस्तान को फायदा होने पर क्या ‘कोड वर्ड’ बोला जाना था?
ये समझौते का फाइनल था. पाकिस्तान और हिंदुस्तान, दोनों तरफ के लोगों की धड़कनें बढ़ गई थीं. बेनजीर ने अपनी किताब में लिखा है. कि डेलिगेशन के चुनिंदा लोग अलग कमरों में बात कर रहे थे. बाकी लोग बाहर थे. जो बाहर थे, उनके कान उधर की ही ओर लगे थे. कि क्या खबर आएगी, क्या होगा. ऐसे में पाकिस्तानी डेलिगेशन ने एक कोड वर्ड तय किया. कि अगर समझौते की शर्तें पाकिस्तान के खिलाफ जाती हैं, तो अंदर बातचीत कर रहे डेलिगेशन का एक मेंबर बाहर आकर बाकी लोगों से कहेगा-
बेटी हुई है.
लेकिन अगर समझौते की शर्तें पाकिस्तान के मुताबिक होती हैं, तो वो कहेगा-
मुबारक हो, बेटा हुआ है.
पाकिस्तान के घर ‘लड़का’ पैदा हुआ
फिर तो इतिहास यही है. पाकिस्तान ने सोचा भी नहीं था कि इतनी बुरी हार के बाद भी समझौते में इतनी सम्मानजनक शर्तों के साथ वो वापस घर लौटेगा. भारत उसके 93,000 बंदी सैनिकों को रिहा करने के लिए भी तैयार हो गया था. कोड वर्ड के मुताबिक, पाकिस्तान के घर में ‘लड़का’ हुआ था. बेनजीर ने ये किस्सा सुनाते हुए खुद भी लिखा है. कि ये बड़ा सेक्सिस्ट अरेंजमेंट था. लेकिन जो था, वो था.
नोट: जुल्फिकार अली भुट्टो की चालाकी कहिए. या उनकी काबिलियत. उन्होंने बंद दरवाजे के पीछे इंदिरा से जो वादे किए, उन्हें कहीं दर्ज नहीं करवाया. ये वादे शिमला समझौते के कागजों पर या कहीं अलग से भी नहीं लिखे गए. मुंह की कही बातें मुंहजुबानी ही रहीं. जाहिर है, बिना दस्तावेज के इन बातों को कोई मोल नहीं था. इंदिरा जैसे पैनी, बेहद शातिर और समझदार नेता ने ये चूक क्यों की, इसकी भी कई सारी कहानियां हैं. बहुत सारी दिलचस्प कहानियां. वो भी सुनाएंगे आपको कभी.