RJ – 45 – CG – 1.
राजस्थान का आज तक का सबसे महंगा वीआईपी नंबर. इस नंबर की जो कीमत है उतने में आप एक सीडान कार खरीद सकते हैं.
अमीरों के चोंचले. बाप दादा की जायदाद. इकलौता लड़का. पैसे खर्च करना ही उसका फुल टाइम जॉब. दोनों हाथों से भी खर्च करे तो ख़त्म न हों. तो फिर क्या ही आश्चर्य कि ‘एक’ नंबर के लिए उसने सोलह लाख खर्च दिए.
ज़रा ठहरिए. ठीक पिछले वाले पैरा की एक भी बात सच नहीं है. तो फिर सच क्या है?
सच ये है कि एक बंदा है राहुल तनेजा. जब मैंने पहली बार इस नाम को सुना तो लगा कि इस नाम का कोई बंदा गरीब हो ही नहीं सकता. गोया नाम से भी अमीरीयत की कोई वाइब्स आती हों.
बहरहाल राहुल तनेजा की फैमिली सीहोर, मध्यप्र देश की है. राहुल अपने भाई-बहनों में सबसे छोटा था. उनके परिवार में उससे बड़े चार भाई-बहन और हैं. राहुल के पिताजी पंक्चर लगाने का काम करते थे. और राहुल उनका हाथ बंटाता था. आखिर उसे भी बाद में यही करना था.
पूत पे पूत घोड़े पे घोड़ा,
ज़्यादा नहीं तो थोड़ा थोड़ा.
लेकिन राहुल तनेजा पंक्चर लगाने के बजाय सीहोर से जयपुर आ गए. कुछ बड़ा करने के लिए बड़े शहर.
यहां ढेरों छोटे-बड़े काम किए. लेकिन काम करते हुए भी पढ़ाई ज़ारी रखी.
ये एक ज़रूरी बात है. सभी सफलताओं में प्रत्यक्ष कारण यदि पढ़ाई न भी हो तो भी अप्रत्यक्ष रूप से वो सदा कारणों में बना रहता है.
बहरहाल छोटे-बड़े कामों में पहले के बहुत छोटे-छोटे काम थे – पतंग बेचना, ढाबे में सर्व करना, अख़बार बांटना. होली में रंग और दीवाली में पटाखे के स्टॉल लगाने जैसे मौसमी बिज़नैस.
उसके बड़े काम बताएं उससे पहले एक और चीज़ – मेरे ज़ेहन में हमेशा ये सवाल उठता है कि क्या कोई काम छोटा बड़ा भी होता है?
नहीं मैंने ‘रईस’ मूवी नहीं देखी और मैं नैतिक अनैतिक कामों की बात भी नहीं कर रहा.
नैतिकता के दायरे के भीतर भी क्या कोई काम छोटा-बड़ा हो सकता है? मुझे लगता है, हो सकता है. वो हर काम छोटा है जिसे आप छोटा समझते हो, वो हर काम बड़ा है जिसे आप बड़ा समझते हो. दिक्कत माइंडसेट की है.
पुल बनाने वाले दो मजदूरों में से एक कहता है कि ज़िंदगी बर्बाद हो गई पत्थर ढोते ढोते. दूसरे को गर्व होता है कि वो आने वाली पीढ़ियों के लिए, सदियों के लिए, एक खाई को पाटने के काम में हाथ बंटा रहा है. विकास की सदियों पुरानी इमारत में अब एक ईंट उसका भी है. वरना तो अरबों लोग जी के मर गए किसी का कोई नामोनिशान नहीं – क्या राजा क्या रंक.
तो यूं, ये कहना ग़लत होगा कि काम छोटे-बड़े नहीं होते. बिल्कुल होते हैं.
बहरहाल, उधर अपनी कहानी के नायक राहुल तनेजा ने केवल पढ़ाई ही नहीं की बल्कि अच्छे नंबरों के साथ परीक्षाओं को उत्तीर्ण भी किया.
यूं पढ़ाई-लिखाई के चलते ज्ञान का दायरा बढ़ता गया. स्मार्टनेस के साथ-साथ एटीट्यूड भी आया. मॉडलिंग में हाथ आज़माया. अच्छी सफलता मिली. मॉडलिंग करते-करते स्टेज और इवेंट्स को ऑर्गनाईज़ करने के भी गुर सीख लिए और फ़िर एक स्टार्टअप खोला – लाइव क्रिएशन्स – एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी.
अपने मैनेजमेंट स्किल्स (जो पैदाइशी नहीं अर्जित किया हुआ था) की बदौलत सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले गए.
उनके पास तीन और गाड़ियां हैं. अलग अलग ब्रांड और फ़ीचर्स की. लेकिन सबमें एक बात कॉमन. वो ये कि हर गाड़ी की नंबर प्लेट में वीआईपी नंबर है – 1. उन्हें ये नंबर पसंद है. इसलिए इनको ऊंचे दामों में खरीदने से भी उन्हें गुरेज़ नहीं है.
इसी वजह से उन्होंने जयपुर में इस नंबर को हासिल करने के लिए तगड़ी बोली लगा दी. 15 लाख की बोली और एक लाख, एक हज़ार रुपए का फॉर्म. शौक हो तो ऐसा.
राहुल कहते हैं कि वो गरीबी समझते हैं क्यूंकि उन्होंने उसे जिया है.
राहुल नहीं कहते पर हम कहते हैं कि सही बात है –
जाके पैर न भई बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई.