पटाखे फोड़ते हुए कभी आपने सोचा दिवाली में पटाखे फोड़ने की शुरुआत कहां से हुई? पटाखे कब दिवाली से जुड़ गए. हमें भी नहीं पता था. लेकिन इसका जवाब दिया है वेबसाइट कोरा पर एक शख्स ने. नाम है अजीत नारायणन. किसी ने कोरा पर पूछा था पटाखों और दिवाली के बीच क्या सम्बन्ध है? इस शख्स ने पूरी छान बीन के बाद जो उत्तर दिया वो काफी पसंद किया गया. अपनी बात को ठोस आधार देने के लिए कई लिंक, सोर्स भी बता डाले.
कोरा पर दिया गया अजीत नारायणन का उत्तरदेखिये उन्होंने क्या बताया:
1. मुगल साम्राज्य से पहले पटाखों के साथ दिवाली मनाने का कोई प्रमाण नहीं है. उस दौर में दिवाली दीयों से मनाई जाती थी. गुजरात के कुछ इलाकों में छिटपुट जलने वाले पटाखे यूज होते थे. (1667 में औरंगजेब ने दिवाली पर सार्वजनिक रूप से दीयों और पटाखों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी.) मुगलों के बाद, अंग्रेजों ने एक्स्प्लोसिव एक्ट पारित किया. इसमें पटाखों के लिए इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल को बेचने और पटाखे बनाने पर पाबंदी लगा दी गई.
2. 1923 में, अय्या नादर और शनमुगा नादर ने इस दिशा में पहला कदम रखा.
दोनों काम की तलाश में कलकत्ता गए और एक माचिस की फैक्ट्री में काम करना शुरू किया. इसके बाद अपने घर शिवकाशी लौट आये. वहां पर माचिस फैक्ट्री की नींव डाली. शिवकाशी तमिलनाडु का इलाका है.
3. 1940 में एक्स्प्लोसिव एक्ट में संशोधन किया गया. एक ख़ास स्तर के पटाखों को बनाना वैध कर दिया गया. नादर ब्रदर्स ने इसका फायदा उठाया और 1940 में पहली पटाखों की फैक्ट्री डाली.
कोरा पर डाली गयी अय्या नादर की तस्वीर4. नादर ब्रदर्स ने पटाखों को दिवाली से जोड़ने की कोशिश शुरू की. माचिस फैक्ट्री की वजह से उन्हें पहले से ही प्लेटफॉर्म मिला हुआ था. इसके बाद शिवकाशी में पटाखों की फैक्ट्री तेजी से फैलीं. 1980 तक अकेले शिवकाशी में 189 पटाखों की फैक्ट्रियां थीं.
आज लोगों के लिए दिवाली का मतलब पटाखे है लेकिन दिवाली पर पटाखों का इतिहास 1940 से ज्यादा पुराना नहीं है.
लेकिन जैसा होता है, हर अति की दुर्गति भी होती है. जैसे जब ‘डि-बियर्स’ ने डायमंड रिंग्स बनानी शुरू की, तब कांगो, अंगोला, लाइबेरिया, आइवरी कोस्ट जैसी जगहों के भूगोल, पर्यावरण को राजनीति कर के खूब नुकसान पहुंचाया गया. ये अब तक जारी है. उपभोक्तावाद को उन्होंने चरम पर पहुंचा दिया है.
इसी तरह शिवकाशी की पटाखा फैक्ट्री की वजह से चाइल्ड लेबर खूब बढ़ गया. इस पेशे से जुड़े न जाने कितनों की मौत हो गयी और न जाने कितने अपाहिज हो गए. इसकी वजह से वहां जातिवादी डिवीज़न और बढ़ गया. शोरगुल, धुआं यहां की पहचान हैं जो बच्चों और जानवरों के लिए बहुत घातक है.
शिवकाशी के पटाखा बनाने वालों ने अब चाइना में भी पटाखे बनाने शुरू कर दिए हैं. पिछले दस सालों में भारत के पटाखों में शिवकाशी का शेयर काफी कम हुआ है. भारत के कुछ बड़े पटाखा उद्योगों में एक है- स्टैण्डर्ड फायरवर्क्स. 2005 में इन्होंने अपनी कई फैक्ट्रियां चाइना में लगाईं.
अब शिवकाशी की इकॉनमी में पटाखा उद्योग का शेयर कम हो रहा है. लोगों का पढ़ाई की तरफ रुझान बढ़ा है जिससे वो बच्चों को इस तरफ नहीं मोड़ रहे हैं. फैक्ट्री वालों को काम करने के लिए लोग कम मिल रहे हैं. शिवकाशी अब अपने विकास के लिए सिर्फ पटाखा उद्योग पर निर्भर नहीं रह गयी है.
अंत में अजीत नारायणन ने दिवाली को दीयों से ही मनाने का मैसेज भी दिया है. उनका मानना है जाने अनजाने हम नादर ब्रदर्स की परम्परा को ही आगे बढ़ा रहे हैं.